हेमंत पाल
अनुराग कश्यप ने जब 'उड़ता पंजाब' बनाने की योजना बनाई होगी, तब ये नहीं सोचा होगा कि ये फिल्म रिलीज से पहले ही इतनी चर्चित हो जाएगी! इस फिल्म पर भले ही विवादों की जंग छिड़ी हो, पर इस बहाने फिल्म का प्रचार भी जमकर हो गया! पहले फिल्म में बोली गई भाषा, गानों में गंदे बोल और दृश्यों को लेकर विवाद हुआ, अब इसके नाम में शामिल 'पंजाब' को लेकर! फिल्म निर्माण से जुड़े फिल्मकारों का कहना है कि फिल्म में जो भाषा इस्तेमाल की गई है वो स्क्रिप्ट की डिमांड है! सेंसर बोर्ड के पास 89 कट के अपने तर्क हैं और अनुराग कश्यप पास बचाओ का अपना स्क्रिप्ट डिमांड का आधार! लेकिन, जो भी हो इस मसले ने फिल्म को इतना चर्चा में तो ला ही दिया कि दर्शक अब फिल्म की रिलीज का इसका इंतजार कर रहे हैं! यानी नकारात्मक ही सही, पर फिल्म को प्रचार तो मिल ही गया!
सेंसर बोर्ड और फिल्मकारों के बीच विवाद का ये पहला मामला नहीं है! बरसों से सेंसर अपनी कैंची की धार तेज करता रहा है और फिल्मकार उसके नीचे से अपनी फिल्म को बचाकर निकाल ले जाने की जुगत भिड़ाते रहे! 1975 में आई गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ पर आपातकाल के समय प्रतिबंध लगा दिया गया था। क्योंकि, फिल्म की नायिका सुचित्रा सेन में इंदिरा गांधी की झलक दिखाई दी थी। जबकि, फिल्म के कथानक का इंदिरा गांधी जिंदगी से कोई सरोकार नहीं था! बाद में ये फिल्म रिलीज हुई और जबरदस्त कामयाब हुई! आपातकाल के ही दौर में 1977 में आई अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को सेंसर बोर्ड ने रिलीज नहीं करने दिया था! क्योंकि, फिल्म के बारे में कहा गया था कि इसमें आपातकाल के खिलाफ टिप्पणी की गई थी! फिल्म को लेकर इतना विवाद बढ़ा था कि संजय गांधी के समर्थकों ने फिल्म के ओरीजनल प्रिंट तक जला दिए थे। वे सेंसर बोर्ड के ऑफिस में घुसकर प्रिंट निकाल ले गए और जला डाला। यदा कदा इस तरह के विवाद होते रहते हैं, पर चर्चा तब आम होती है, जब निर्माता-निर्देशक अपनी बात पर अड़ जाते हैं! निर्देशक अनुराग कश्यप की ही फिल्म 'ब्लैक फ्राइडे' भी सेंसर में उलझ चुकी है! 1993 के दंगों पर बनी इस फिल्म के कुछ दृश्य काटे जाने के खिलाफ वे अदालत में पहुंच गए थे। करीब दो साल बाद उन्हें फिल्म रिलीज करने का मौका मिला! पाँच, उर्फ़ प्रोफ़ेसर, डेज्ड इन दून, इंशाल्लाह फुटबॉल, बेंडिट क्वीन और परजानिया जैसी फ़िल्में भी सेंसर बोर्ड के चंगुल में फँस चुकी है!
मुद्दे की बात ये है कि फिल्म सेंसर बोर्ड का चैयरमेन कोई गैर फ़िल्मी व्यक्ति न होकर फिल्मकारों का ही प्रतिनिधि होता है! लेकिन, जब उसके हाथ में 'कैंची' आती है, उसका अंदर वाले जिम्मेदार इंसान का जमीर जाग जाता है! उसे फिल्म की भाषा, दृश्य और स्क्रिप्ट में खामियां नजर आने लगती है! विवाद के केंद्र में बैठे सेंसर बोर्ड के चैयरमेन गोविंद निहलानी भी बड़े फिल्मकार रहे हैं! लेकिन, आज जब वे निर्णय करने की स्थिति में हैं उन्हें सही और गलत नजर आने लगा! निहलानी तो सेंसर बोर्ड में आने के साथ ही विवाद से जुड़ गए थे। उन्होंने फिल्मों के लिए 'बैड वर्ड्' की लिस्ट जारी कर दी थी, जिनके फिल्मों में इस्तेमाल पर रोक का प्रस्ताव था! उनके इस कदम का जमकर विरोध हुआ और उन्हें पीछे हटना पड़ा!
सेंसर बोर्ड और फिल्मकारों के बीच बढ़ते विवाद और तनाव को ख़त्म करने के लिए सरकार ने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है! कमेटी को सेंसर बोर्ड के कामकाज का नए ढंग से निर्धारण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है! कमेटी ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी, पर अभी इसे लागू नहीं किया गया! बेनेगल कमेटी का मानना है कि बोर्ड का काम फिल्म को सर्टिफिकेट देने का होना चाहिए न कि कैंची चलाने का! फिल्म को कतरने से बेहतर होगा है कि उसे अलग श्रेणी का सर्टिफिकेट दिया जाए। इससे फिल्मकार की रचनात्मकता भी बरक़रार रहेगी! इसके अलावा भी और भी कई सुधारों की सिफारिशें की गई है! लेकिन, अभी सरकार कमेटी की सिफारिशों पर विचार कर ही कर रही थी, कि अनुराग कश्यप के 'उड़ता पंजाब' ने विवादों की उड़ान भर ली! सवाल उठता है कि सेंसर बोर्ड के चंद मेंबर ये फैसला कैसे ले सकते हैं कि देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता क्या देखे और क्या नहीं! क्योंकि, देश जिस राह पर जा रहा है, उसका कारण सिर्फ फ़िल्में ही नहीं और भी बहुत कुछ है!
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