- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए फिल्म का मतलब सिर्फ हिंदी में बनने वाली फ़िल्में होता है। जब भी कहीं दुनिया में भारतीय फिल्मों के दबदबे की बात होती है, जिस संदर्भ में फिल्मों का जिक्र होता है, वो हिंदी की फ़िल्में होती है। जबकि, असलियत ये है कि धीरे-धीरे हिंदी फिल्मों का तिलस्म टूटने लगा है। अभी तक हिंदी के अलावा दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों का बाजार था! लेकिन, अब मराठी, पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी और अन्य भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने लगा है। जिस तरह मराठी, भोजपुरी और पंजाबी फ़िल्में बन रही है और बिजनेस कर रही है, हिंदी फिल्मों के दर्शक घटने लगी। मराठी की सबसे सफल मानी जाने वाली फिल्म 'सैराट' को हिंदी में बनाया जा रहा है। हिंदी में बनी फिल्म ‘एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी‘ को मराठी में डब किया गया। फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे का कहना है कि क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से फलफूल रहा है, ये प्रयोग करना जरुरी हो गया।
हिंदी सिनेमा की जन्मस्थली कहे जाने वाले मुंबई में मराठी सिनेमा तेजी से अपनी जगह बनाता जा रहा है। इस दौर में ऐसी कई फिल्में आई, जिन्होंने मराठी सिनेमा की पहचान और उसके बारे में सोच बदल दिया। 2013 में आई 'फंड्री' 2014 में 'एलिजाबेथ एकादशी' और 2015 में 'कत्यार कालजात घुसली' के बाद इस साल आई 'सैराट' ने तो सारा माहौल ही बदल दिया। 'सैराट' अब तक की सबसे ज्यादा कमाई वाली मराठी फिल्म साबित हुई है। 4 करोड़ में बनी इस फिल्म ने करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया है। बदतर हालत में पहुंच चुके मराठी सिनेमा के लिए ये बेहद संतोष की बात है। कुछ साल पहले तक मराठी फिल्मों का मतलब सिर्फ दादा कोंडके स्टाइल वाली द्विअर्थी फ़िल्में थी। लेकिन, अब मराठी फिल्मकारों को भी समझ आ गया कि दर्शक हर नए प्रयोग के पक्षधर होते हैं। अब इन फिल्मों को पसंद करने वाले मराठी भाषी ही नहीं रहे, इन्हें दूसरी भाषा और प्रांतों के दर्शक भी मिल गए। ये प्रयोग वैसा ही है जैसा हॉलीवुड की फिल्मों का हिंदी या भोजपुरी डब करके प्रदर्शित किया जाना। 'उड़ता पंजाब' भी हिंदी के साथ ही पंजाबी में बनी।
देश में हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों की तरह बांग्ला सिनेमा का इतिहास भी बहुत पुराना है। संसाधन की कमी के बावजूद वहां के फिल्मकारों ने अपनी संस्कृति को सिनेमा से जोड़कर पकड़ बनाई है। उन्होंने बांग्ला साहित्य कहानियां चुनी और कलात्मक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई। ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा से लेकर बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष उत्पलेंदु चक्रवर्ती, अपर्णा सेन ने कई फिल्में बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सिनेमा पहचान बनाई। आज बांग्ला के बाद मलयालम में ही यथार्थवादी सिनेमा जिंदा है। लेकिन, फिल्मों की बढ़ती लागत नई पीढ़ी की बदलती रूचि ने फार्मूला फिल्मों की मांग बढ़ा दी है। ऐसे में हिंदी और तमिल, तेलगु के अलावा क्षेत्रीय सिनेमा में भी नए प्रयोग शुरू हो गए।
आज भले ही फिल्मों का मतलब हिंदी सिनेमा समझा जाता हो, पर पिछले साल की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 'बाहुबली' ही थी। ये तेलुगू और तमिल में बनी, फिर उसे हिंदी के अलावा मलयालम तथा फ्रेंच में डब किया गया। तकनीक के साथ संसाधनों की बात जाए तो तमिल-तेलगु के फिल्मकार किसी भी मामले में हिंदी के फिल्मकारों से कम नहीं हैं। हिंदी की फिल्मों की तरह इन फिल्मों की शूटिंग भी विदेशों में होती है। आज टीवी के अधिकांश चैनलों पर दिखने वाली फ़िल्में दक्षिण भारतीय ही हैं।देखा जाए तो क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से जमीन पकड़ रहा है, ये हिंदी सिनेमा के लिए खतरा है। जब क्षेत्रीय दर्शकों को जो मनोरंजन अपनी भाषा में मिलेगा तो वो हिंदी फिल्मों की तरफ क्यों रुख करेगा? भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने का एक सबूत ये भी है कि प्रियंका चोपड़ा जैसी बड़ी एक्ट्रेस ने अपना प्रोडक्शन हाउस खोलकर पंजाबी फ़िल्में बनाना शुरू की, न कि हिंदी! क्योंकि, कनाडा में बसे भारतीयों में यही फ़िल्में पसंद की जाती हैं। ऐसे में हिंदी के फिल्मकारों की नींद उड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
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