Monday, November 28, 2016

हिंदी फिल्मों पर भारी पड़ता भाषाई सिनेमा


- हेमंत पाल 

  हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए फिल्म का मतलब सिर्फ हिंदी में बनने वाली फ़िल्में होता है। जब भी कहीं दुनिया में भारतीय फिल्मों के दबदबे की बात होती है, जिस संदर्भ में फिल्मों का जिक्र होता है, वो हिंदी की फ़िल्में होती है। जबकि, असलियत ये है कि धीरे-धीरे हिंदी फिल्मों का तिलस्म टूटने लगा है। अभी तक हिंदी के अलावा दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों का बाजार था! लेकिन, अब मराठी, पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी और अन्य भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने लगा है। जिस तरह मराठी, भोजपुरी और पंजाबी फ़िल्में बन रही है और बिजनेस कर रही है, हिंदी फिल्मों के दर्शक घटने लगी। मराठी की सबसे सफल मानी जाने वाली फिल्म 'सैराट' को हिंदी में बनाया जा रहा है। हिंदी में बनी फिल्म ‘एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी‘ को मराठी में डब किया गया। फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे का कहना है कि क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से फलफूल रहा है, ये प्रयोग करना जरुरी हो गया। 

  हिंदी सिनेमा की जन्मस्थली कहे जाने वाले मुंबई में मराठी सिनेमा तेजी से अपनी जगह बनाता जा रहा है। इस दौर में ऐसी कई फिल्में आई, जिन्होंने मराठी सिनेमा की पहचान और उसके बारे में सोच बदल दिया। 2013 में आई 'फंड्री' 2014 में 'एलिजाबेथ एकादशी' और 2015 में 'कत्यार कालजात घुसली' के बाद इस साल आई 'सैराट' ने तो सारा माहौल ही बदल दिया। 'सैराट' अब तक की सबसे ज्यादा कमाई वाली मराठी फिल्म साबित हुई है। 4 करोड़ में बनी इस फिल्म ने करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया है। बदतर हालत में पहुंच चुके मराठी सिनेमा के लिए ये बेहद संतोष की बात है। कुछ साल पहले तक मराठी फिल्मों का मतलब सिर्फ दादा कोंडके स्टाइल वाली द्विअर्थी फ़िल्में थी। लेकिन, अब मराठी फिल्मकारों को भी समझ आ गया कि दर्शक हर नए प्रयोग के पक्षधर होते हैं। अब इन फिल्मों को पसंद करने वाले मराठी भाषी ही नहीं रहे, इन्हें दूसरी भाषा और प्रांतों के दर्शक भी मिल गए। ये प्रयोग वैसा ही है जैसा हॉलीवुड की फिल्मों का हिंदी या भोजपुरी डब करके प्रदर्शित किया जाना। 'उड़ता पंजाब' भी हिंदी के साथ ही पंजाबी में बनी। 
  देश में हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों की तरह बांग्ला सिनेमा का इतिहास भी बहुत पुराना है। संसाधन की कमी के बावजूद वहां के फिल्मकारों ने अपनी संस्कृति को सिनेमा से जोड़कर पकड़ बनाई है। उन्होंने बांग्ला साहित्य  कहानियां चुनी और कलात्मक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई। ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा से लेकर बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष उत्पलेंदु चक्रवर्ती, अपर्णा सेन ने कई फिल्में बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सिनेमा पहचान बनाई। आज बांग्ला के बाद मलयालम में ही यथार्थवादी सिनेमा जिंदा है। लेकिन, फिल्मों की बढ़ती लागत नई पीढ़ी की बदलती रूचि ने फार्मूला फिल्मों की मांग बढ़ा दी है। ऐसे में हिंदी और तमिल, तेलगु के अलावा क्षेत्रीय सिनेमा में भी नए प्रयोग शुरू हो गए। 
  आज भले ही फिल्मों का मतलब हिंदी सिनेमा समझा जाता हो, पर पिछले साल की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 'बाहुबली' ही थी। ये तेलुगू और तमिल में बनी, फिर उसे हिंदी के अलावा मलयालम तथा फ्रेंच में डब किया गया। तकनीक के साथ संसाधनों की बात जाए तो तमिल-तेलगु के फिल्मकार किसी भी मामले में हिंदी के फिल्मकारों से कम नहीं हैं। हिंदी की फिल्मों की तरह इन फिल्मों की शूटिंग भी विदेशों में होती है। आज टीवी के अधिकांश चैनलों पर दिखने वाली फ़िल्में दक्षिण भारतीय ही हैं।देखा जाए तो क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से जमीन पकड़ रहा है, ये हिंदी सिनेमा के लिए खतरा है। जब क्षेत्रीय दर्शकों को जो मनोरंजन अपनी भाषा में मिलेगा तो वो हिंदी फिल्मों की तरफ क्यों रुख करेगा? भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने का एक सबूत ये भी है कि प्रियंका चोपड़ा जैसी बड़ी एक्ट्रेस ने अपना प्रोडक्शन हाउस खोलकर पंजाबी फ़िल्में बनाना शुरू की, न कि हिंदी! क्योंकि, कनाडा में बसे भारतीयों में यही फ़िल्में पसंद की जाती हैं। ऐसे में हिंदी के फिल्मकारों की नींद उड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
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Thursday, November 24, 2016

'नोटबंदी' से बेअसर रही 'वोटबंदी' की चुनावी राजनीति

- हेमंत पाल 

   शहडोल की लोकसभा और नेपानगर की विधानसभा सीटें जीतकर भाजपा ने ये संदेश दे दिया कि नोटबंदी की नाराजी और सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार की पीठ थपथपाने का असर चुनाव पर।  नोटबंदी के बावजूद मतदाताओं ने उनके प्रति भरोसा बनाये बनाए रखा! बैंक के सामने नोट बदलाने की लाइन में खड़े लोगों तात्कालिक नाराजी को सरकार के खिलाफ आक्रोश समझना गलती है। नेपानगर में भाजपा को उम्मीदवार के साथ जुडी सहानुभूति का फ़ायदा जरूर मिला! लेकिन, शहडोल में भाजपा की जीत के साथ कई किन्तु, परंतु हैं! सबसे बड़ी कमजोरी तो कांग्रेस की मानी जाएगी कि उसने जीत की कोशिश से पहले ही हार मान ली! उपचुनाव में दोनों सीटों पर भाजपा की जीत से कांग्रेस का ग्राफ गिरा है। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के खाते में जाएगा, जो अपने घर की नेपानगर सीट नहीं बचा सके! कांग्रेस के क्षत्रपों की आपसी तनातनी ने पार्टी को इस हालत में ला दिया है कि उसमें सर उठाने की भी गैरत नहीं बची!    
  
    इस उपचुनाव की घोषणा के बाद नोटबंदी से जिस तरह के हालात बने थे, ये समझा जाने लगा था कि जनता का आक्रोश भाजपा को ले डूबेगा! नोट बदलाने के लिए बैंक के सामने लगी लाइनों में खड़े लोग सरकार के इस फैसले से बनी स्थिति का आंकलन करने लगे हैं! हर व्यक्ति अर्थशास्त्री की तरह टिप्पणी करने लगा! कालेधन और नकली नोटों के खिलाफ अचानक हुए केंद्र सरकार के इस फैसले ने रातों-रात लोगों की दिनचर्या और प्राथमिकताएं बदल दी थी! इसी नजरिए से ये आकलन किया जाने लगा था कि जो लोग लाइन में खड़े हैं, उनको यदि मतदान का मौका मिला, तो नतीजा सरकार के खिलाफ जाएगा। शहडोल और नेपानगर के संभावित नतीजों को भी इसी प्रतिक्रिया से देखा जा रहा था! लेकिन, मतदाताओं ने नतीजों ने सारे अनुमान बदल दिए। इन नतीजों को सहजता से नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, जब लोग व्यक्तिगत रूप में सरकार के फैसले से परेशान हों, तो तय है कि वे सत्ताधारी दल की सरकार को सबक सिखाने का मौका भी नहीं छोड़ेंगे! किन्तु, ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि लोग तात्कालिक परेशानी के बावजूद देशहित समझ रहे हैं! शहडोल और नेपानगर दोनों सीटों के मतदाता आधुनिक विचारधारा से कटे हैं, पर नोटबंदी बाद सुधरने वाले हालातों से वाकिफ भी हैं।
  जिन लोगों ने ये अनुमान लगाया था कि नोटबंदी से होने वाली परेशानी को लोग उपचुनाव के नतीजों से जाहिर करेंगे, वे गलत थे! देश का मतदाता इतना नासमझ नहीं कि वह पीओके पर सर्जिकल स्ट्राइक से खुश हो जाए और नोटबंदी से उसकी नाराजी सामने आ जाए। वैसे भी केंद्र सरकार के फैसलों की सजा मतदाता स्थानीय नेतृत्व को नहीं देता! ये बात सही है कि सरकार के अचानक बड़े नोट बंद करने के फैसले से लोग निजी तौर पर परेशान तो हुए, पर उन्हें संतोष था कि सरकार के इस कदम से भ्रष्ट लोग बेनकाब हो जाएंगे! उनका करोड़ों रुपया रद्दी हो जाएगा! यही वो मानसिकता थी, जिसने लोगों को नोटबंदी के समर्थन में सोचने लिए मजबूर किया। प्रदेश की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजों को इस प्रतिक्रिया से देखा जाए तो जो फैसला आया है, वो सही लगेगा। फिर एक बड़ा कारण ये भी है कि लोग मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के कामकाज से नाराज नहीं है। वे नहीं चाहेंगे कि विपरीत नतीजे देकर प्रदेश सरकार कमजोर किया जाए।  
  इसे कोई कारण माने या एंटी इनकंबेंसी का असर कि शहडोल लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की का अंतर घटकर एक चौथाई रह गया! जबकि, नेपानगर में सहानुभूति कारण ये अंतर बढ़कर दोगुना हो गया। शहडोल लोकसभा सीट आम चुनाव में भाजपा ने 2 लाख 41 हजार वोट से जीती थी। जबकि, उपचुनाव में जीत का अंतर 60 हजार रह गया। नेपानगर में जरूर 22 हजार 178 वोटों का अंतर 42,198 हो गया है। भाजपा की सफलता का एक बड़ा श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की सक्रियता और पार्टी की रणनीति को भी दिया जाना चाहिए। जैसा कि देखा गया है, शिवराज सिंह ने अपने कार्यकाल में कभी किसी चुनाव को कमतर नहीं आंका! झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में मिले झटके के बाद तो वे कुछ ज्यादा ही सजग हो गए हैं! इस बात से इंकार नहीं कि शहडोल में भाजपा स्थिति अच्छी नहीं थी! भाजपा उम्मीदवार ज्ञानसिंह तो चुनाव लड़ने के मूड में ही नहीं थी, फिर भी एक रणनीति  उन्हें टिकट दिया गया। मुख्यमंत्री ने सभी दावेदारों को किनारे करके ज्ञानसिंह को मंत्रिमंडल से उठाकर चुनाव मैदान में उतारा। वह भी उस दशा में जबकि ज्ञानसिंह स्वयंं भी चुनाव में उतरना नहीं चाहते थे। इसके बाद मुख्यमंत्री ने चुनावी जमावट शुरू की। इसलिए ज्ञानसिंह की जीत को चमत्कार माना जा रहा है। शहडोल उपचुनाव में पुष्पराजगढ़ के निवासी को हराकर उमरिया इलाके के उम्मीदवार को जीत मिली। भाजपा ने इस उपचुनाव को पूरी दमदारी से लड़ा।
  इस चुनाव का सबसे बड़ा प्रभाव ये हुआ कि राजघराने से जुडी कांग्रेस उम्मीदवार हिमाद्री सिंह का राजनीतिक भविष्य उदय होने के पहले अस्त हो गया। शहडोल और नेपानगर उपचुनाव में भाजपा पर से जीत की खुमारी तो जल्दी उतर जाएगी, पर कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के लिए ये चुनाव लिटमस टेस्ट साबित हो गए। लगता नहीं कि अब वे ज्यादा दिन अपनी डांवाडोल कुर्सी बचा पाएंगे। इसके लिए भी जिम्मेदार भी कांग्रेस के वे क्षत्रप हैं, जिन्हें पार्टी का कर्णधार माना जा रहा है। ये हार कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण यादव के ही खाते में दर्ज होगी। किसी ने भी चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया। प्रचार की भी औपचारिकता ही निभाई और अंतिम दिनों में तो क्षेत्र से ही गायब हो गए। भाजपा के ही पूर्व विधायक सुदामा सिंह के तेवर अपनी ही पार्टी के खिलाफ थे। अनूपपुर से भाजपा विधायक रामलाल रौतेल भी नाराज थे!  जबकि, उमरिया सीट से भी भाजपा के उम्मीदवार ज्ञान सिंह की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा रही थी। सबसे ज्यादा चुनौती पुष्पराजगढ़ में थी और माना जा रहा था कि कांग्रेस के लिए यहां एक तरफा वोट पड़ेंगे। लेकिन, कांग्रेस प्रतिद्वंदी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब नहीं हुई! इन नतीजों से कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव की मुश्किलें अब बढ़ सकती हैं। पार्टी में बढ़ते असंतोष को ठंडा करने के लिए अब पार्टी को कोई गंभीर फैसला लेना पड़ सकता है। क्योंकि, नोटबंदी मामले में भी कांग्रेस लोगों की नाराजी को केश नहीं कर सकी।
  इस उपचुनाव में मतदाता का रुझान शुरु से ही समझ नहीं आ रहा था! सबसे ज्यादा असमंजस भाजपा खेमे में था। नोटबंदी के केंद्र के फैसले ने इस असमंजस को और बढ़ा दिया था, जिसे लेकर भाजपा पूरे समय ठीक करने में लगी रही। उसी का नतीजा है कि परिणाम भाजपा के पक्ष में गया। वहीं मतदाता का मूड कांग्रेस के पक्ष में दिख तो रहा था, पर पार्टी के ही जिम्मेदार लोग ही कन्नी काटते रहे। शहडोल में भाजपा की जीत के कई मायने हैं। चुनाव नतीजों से पहले तक किसी को उम्मीद नहीं थी कि भाजपा उम्मीदवार ज्ञानसिंह जीत जाएंगे। लेकिन, नतीजा आते ही सभी सर्वे और आंकलन फेल हो गए। मतदान के पहले तक शहडोल क्षेत्र में ज्ञानसिंह के खिलाफ चल रही हवा और मतदाताओं के रूझान भाजपा के पक्ष में नहीं थे। ऐसा क्या हुआ कि भाजपा ने कांग्रेस को चित कर दिया। इसकासिर्फ कारण है कि ज्ञानसिंह के राजनीतिक अनुभव के सामने कांग्रेस उम्मीदवार हिमाद्री सिंह नया चेहरा थी, जिसे लोग ठीक से पहचानते भी नहीं थे। जबकि, नेपानगर विधानसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार मंजू दादू की जीत सहानुभूति खाते के खाते में गई! मंजू ने कांग्रेस उम्मीदवार अंतर सिंह बर्डे को 40 हजार से भी ज्यादा अंतर से हराया। यह सीट उनके पिता राजेंद्र सिंह दादू के निधन की वजह से खाली हुई थी। बुरहानपुर जिले के तहत आने वाली इस सीट पर भाजपा की जीत तय ही मानी जा रही थी।
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Sunday, November 20, 2016

एक हिट के बाद कहाँ गुम हुए सितारे?


हेमंत पाल 

  सिनेमा के परदे पर हर शुक्रवार एक नया सितारा जन्म लेता है। लेकिन, कुछ सितारे परदे की चमक बनते हैं तो कुछ टिमटिमाकर लुप्त हो जाते हैं। सिनेमा इतिहास में ऐसे नामों को कमी नहीं है, जो पहली फिल्म आते ही रातों रात स्टार बन गए! सफलता ने उन्हें आसमान पर पहुंचा दिया था! लेकिन, उनकी किस्मत में शायद हमेशा चमकना नहीं लिखा था। बॉलीवुड के 'वन फिल्म वंडर' सितारे आज भी आ रहे हैं! पीछे पलटकर देखें तो ऐसे कलाकारों की कमी। जब तक सिनेमा की ये दुनिया है स्टार का जान लेना और लुप्त होने का क्रम जारी रहेगा।   
  सलमान खान जैसे बड़े कलाकार के साथ ‘मैंने प्यार किया’ में नजर आईं भाग्यश्री को अपनी पहली ही फिल्म से बहुत लोकप्रियता मिली। पहली ही फिल्म से भाग्यश्री ने दर्शकों के दिलों पर राज कर लिया। लेकिन, सफलता का नशा जल्दी उतर गया। उन्होंने शादी कर ली और अपने आप ही इंडस्ट्री से दूर हो गई! ऐसी ही एक्ट्रेस मंदाकिनी का जन्म हुआ राजकपूर की फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' से! उनकी पहली फिल्म ने मंदाकिनी को आसमान पर पहुंचा दिया! लेकिन, बाद की फिल्मों में कमाल नहीं कर सकीं। अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम से रिश्तों के लेकर मंदाकिनी का करियर भी विवादस्पद रहा। ऐसा ही एक नाम है भूमिका चावला! 'तेरे नाम' में सलमान के साथ परदे पर उतरी इस साधारण चेहरे वाली हीरोइन ने दर्शकों दीवाना बना दिया था। लेकिन, भूमिका ने जल्द ही दक्षिण की और रुख कर लिया और बॉलीवुड से दूरी बना ली। सालों बाद वे एमएस धोनी पर बनी बायोपिक में धोनी की बहन के रोल में नजर आईं!
  याद किया जाए तो ऐसे सैकड़ों नाम सामने आएंगे, जिन्हें दर्शकों ने पहले तो सिर पर बैठाया, पर फिर ऐसा उतार फैंका कि पलटकर देखा भी नहीं! किम शर्मा भी ऐसे ही चर्चित नामों में से एक थी। किम ने ‘डर’ और ‘मोहब्बतें’ जैसी हिट फ़िल्में दी! आज यह एक्ट्रेस कहाँ है, किसी को पता नहीं! पिछले दशक में ऐसा सबसे चर्चित नाम रहा ग्रेसी सिंह! आमिर खान के साथ 'लगान' से धमाकेदार इंट्री करने वाली ग्रेसी उसके बाद से ही लुप्त हो गई! वे 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में भी थीं! यह फिल्म हिट तो हुई, लेकिन ग्रेसी की चर्चा नहीं हुई। वे 'अरमान और मुस्कान' में नजर जरूर आईं, पर फिल्में ही बेअसर रही। सलमान खान के साथ 'सनम बेवफा' में दिखाई दी चांदनी भी लुप्त होने वाले नामों में से एक है। उनके खाते में 'सनम बेवफा' पहली और आखिरी फिल्म साबित हुई। सलमान के ही साथ स्नेहा उलाल का भी 'लकी' में उदय हुआ था। उसके चेहरे पर ऐश्वर्या की झलक देखी गई थी! बाद में हॉरर फिल्म 'क्लिक' में भी उन्होंने काम किया। लेकिन, स्नेहा अपने करियर को आगे नहीं बढ़ा पाई! 
  महेश भट्ट की बेटी पूजा भट्ट ने 'डैडी' से अपनी शुरुआत की। पूजा 'दिल है कि मानता नहीं' में आमिर खान के साथ नज़र आई! इसके बाद संजय दत्त के साथ 'सड़क' में उनकी अदाकारी की तारीफ हुई। लेकिन, वे निर्देशक बन गईं और ऐक्टिंग छोड़ दी। प्रसिद्द फिल्मकार शेखर कपूर की पत्नी सुचित्रा कृष्णमूर्ति ने भी शुरुवाती लोकप्रियता के बाद पहचान खो दी। टीवी की दुनिया से आईं सुचित्रा ने के खाते में बहुत ज्यादा फिल्में नहीं हैं। शिल्पा शेट्टी बहन शमिता शेट्टी भी अपनी बहन की तरह बॉलीवुड पर छा जाना चाहती थीं। लेकिन, शमिता का जादू नहीं चला! ऐसा ही काजोल की बहन तनीषा मुखर्जी के साथ हुआ! ममता कुलकर्णी ने क्रांतिवीर, करन अर्जुन और सबसे बड़ा खिलाड़ी जैसी हिट फिल्में दीं। लेकिन, बाद में वे विवादों में आ गई। आयशा जुल्का का नाम भी दर्शक भूले नहीं है। खिलाड़ी, जो जीता वहीं सिकंदर जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। लेकिन वे अपने करियर को सही दिशा देने में नाकाम रहीं। दीपा शाही ने फिल्म 'हम' में भाभी की भूमिका निभाई। इसके बाद फिल्म 'माया मेमसाहब' में शाहरुख खान के साथ बोल्ड सीन देकर सबको चौंका दिया था, आज लोग उनका नाम तक भूल चुके हैं। अमिताभ के साथ 'हम' के लोकप्रिय गाने जुम्मा चुम्मा दे दे पर थिरकने वाली किमी काटकर भी इस फिल्म की सफलता को भुनाने में असफल रही। 
  ये स्थिति सिर्फ हीरोइनों के साथ ही नहीं रही, कई हीरो भी  चमक दिखाकर गायब हुए हैं। राहुल रॉय की पहली फ़िल्म ‘आशिकी’ ने कामयाबी के रिकार्ड तोड़ दिए थे। लेकिन, यह अभिनेता आज गुमनामी की दुनिया में कहीं खो गए। राहुल 'बिग बॉस' के पहले सीजन के भी विजेता भी रहे! अपने वक़्त के सुपरहिट हीरो राजेंद्र कुमार के बेटे कुमार गौरव ने जब 'लव स्टोरी' से सेलुलाइड की दुनिया में कदम रखा तो रातों-रात स्टार बन गए। उन्हें भविष्य का राजेश खन्ना कहा गया, लेकिन कुमार गौरव इस सफलता को बचाकर नहीं रख पाए और इंडस्ट्री से गायब हो गए। ऐसा ही एक एक्टर दीपक तिजोरी  जिसने आशिकी, कभी हां कभी ना, जो जीता वहीं सिकंदर जैसी फिल्मों से नाम कमाया। तिजोरी के निगेटिव रोल की भी सराहना की गई। आज दीपक तिजोरी का कोई अता-पता नहीं है। सुभाष घई खोज कहे जाने वाले विवेक मुशरान ने 'सौदागर' जैसी हिट फिल्म में काम किया। लेकिन, बाद की फिल्में सफल नहीं रही। उन्होंने छोटे पर्दे का भी रुख किया। मणिरत्नम की फिल्म 'रोजा' और 'बांबे' जैसी फिल्म में काम कर चुके अभिनेता अरविंद स्वामी तो फिल्मों से ही दूर हो गए। ये सूची पूरी नहीं हुई, जितने शुक्रवार आते हैं, एक नया नाम जुड़ता जाता है।  
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Friday, November 18, 2016

चुनी महिलाओं की पार्षदी पर पतियों का अतिक्रमण

- हेमंत पाल 

   नगर निगमों और नगर पालिकाओं में पार्षदों के दबदबे से ज्यादा ख़बरें अब 'पार्षद पतियों' की सुनाई देती हैं! अधिकारियों को धमकाने, अनर्गल काम के लिए दबाव बनाने, सरकारी आवंटित राशि में हिस्सेदारी करने जैसे कई मामलों में पार्षद पतियों का दखल बढ़ता जा रहा है। लेकिन, सरकार इस सबसे बेअसर है! त्रिस्तरीय पंचायती राज को लेकर नियम बना दिए, पर स्वायत्तशासी संस्थाओं में इस मुद्दे पर नकेल नहीं डाली गई! पत्नियों को हथियार बनाकर अपनी राजनीतिक इच्छा पूरी करने वाले इन 'पार्षद पतियों' का दखल इतना ज्यादा है कि वे परिषद् की बैठकों में भी अधिकारियों पर दबाव बनाने लगे हैं! ऐसे में उन मतदाताओं का क्या दोष जिन्होंने एक महिला को अपना प्रतिनिधि चुना था? जीतने के बाद वो महिला प्रतिनिधि तो कहीं नजर नहीं आई, अलबत्ता उसका पति मतदाताओं के गले पड़ गया! इससे महिला आरक्षण की मूल भावना बुरी तरह प्रभावित हुई है। मकसद था कि इससे महिलाओं में नेतृत्व करने और निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा, पर 'पतियों' की राजनीतिक इच्छा ने उसपर पानी फेर दिया! अब वो वक़्त आ गया है, जब सरकार को 'पार्षद पतियों' को लेकर कोई गंभीर और असरदार फैसला करना होगा!
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-  भोपाल नगर निगम के अतिक्रमण दस्ते के साथ बदसलूकी करने वाले पार्षद पति समेत दो दर्जन लोगों के खिलाफ पुलिस ने शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने और गाली-गलौज करने समेत विभिन्न धाराओं के तहत प्रकरण दर्ज किया।
- विदिशा के सिविल लाइंस थाना पुलिस ने एक पार्षद पति के खिलाफ एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत युवती की शिकायत पर छेड़छाड़ और रास्ता रोकने का प्रकरण दर्ज किया है। युवती भोपाल में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत है। पार्षद पति के खिलाफ छेड़छाड़ का प्रकरण दर्ज किया गया।
- इंदौर में महिला पार्षद के पति ने स्ट्रीट लाइट का मेंटेनस करने वाली कंपनी के कर्मचारी के साथ मारपीट की! स्ट्रीट लाइट सुधारने से इनकार करने पर पार्षद पति ने कर्मचारी को थप्पड़ मार दिया। विवाद बढ़ने पर कंपनी की गाड़ी भी वहीं रुकवा ली।
- भोपाल नगर निगम महापौर ने परिषद की बैठकों में पार्षद पतियों के भाग लेने पर रोक लगा दी! महापौर ने वार्डों के निरीक्षण के दौरान पाया कि अधिकांश महिला पार्षदों के पति इन बैठकों में शामिल हुए।
- इंदौर की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने महिला सरपंचों के लिए बुलाई बैठक से उनके पतियों को बाहर कर दिया। महाजन ने इंदौर में जिस बुराई पर नाखुशी जताई, वो पूरे प्रदेश और देश में फैली है।
- इंदौर के कई समाजसेवियों ने पार्षद पतियों के बढ़ते दखल पर आपत्ति जताते हुए, उनको मर्यादा में रहने की हिदायत दी है। उन्होंने ये भी कहा कि ये उन महिला प्रतिनिधियों का अपमान है, जिन्हें जनता ने वोट देकर चुना है।
   ये वो चंद घटनाएं हैं, जो प्रदेश में पार्षद पतियों के बढ़ते दखल और महिला पार्षद के अधिकारों में अतिक्रमण का संकेत देती हैं। न सिर्फ ग्राम पंचायतों में बल्कि नगर परिषद, नगर पालिका और नगर निगमों में भी में भी यही हाल है। इंदौर नगर निगम में हाल ही में महापौर ने वार्डों की समीक्षा का जो अभियान चलाया, उनमें महिला पार्षद अप्रासंगिक नजर आईं! इंदौर नगर निगम की कोई भी बैठक या आयोजन हो, महिला पार्षद कभी-कभी दिखती हैं, उनके पति ही ज्यादा दिखाई देते हैं। निगम के हर कार्यालय में पार्षद पतियों की ही दादागिरी नजर आती है। ये सिर्फ भाजपा की महिला पार्षदों की बात नहीं, कांग्रेस में भी हाल है। गिनती की महिला पार्षद ही होंगी, जो पतियों के बिना भी सक्रिय हैं। अधिकांश महिला पार्षद ऐसी हैं, जिनके पतियों ने उन्हें कठपुतली बनाकर उनके नाम पर नेतागिरी चमकाई! निगम के किसी अधिकारी की उन्हें रोकने-टोकने की हिम्मत इसलिए नहीं होती कि महिला पार्षदों को कोई आपत्ति ही नहीं है।
  ये नकली पार्षद अपनी असली पार्षद पत्नियों को उन मतदाताओं से कभी मिलने भी नहीं देते, जिन्हें वोट देकर चुना गया है। ऐसे में महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली सरकार की भावना का क्या होगा? महिलाओं के लिए आरक्षण की मूल भावना ही ये थी कि इससे महिलाओं में नेतृत्व करने और निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा, पर 'पतियों' की राजनीतिक इच्छा ने उसपर पानी फेर दिया! ऐसा करके पार्षद पति अपनी पत्नियों का तो नुकसान कर ही रहे हैं, महिलाओं को पिछड़ा और अभिशप्त बनाए रखने में भी मददगार हैं। इंदौर के संदर्भ में ये मामला इसलिए भी गंभीर है कि यहाँ महापौर महिला है, पर उन्हें कभी इस बात का अहसास नहीं होता कि उनकी ही बिरादरी के साथ नाइंसाफी हो रहा है।
  जब से सरकार ने महिलाओं के लिए स्वायत्तशासी संस्थाओं में सीटों का आरक्षण किया, कई पुरुषों को उनके लिए रास्ता छोड़ना पड़ा! जो पुरुष खुलकर राजनीति करना चाहते थे, उन्हें इस व्यवस्था के कारण पीछे हटना पड़ा! लेकिन, उन्होंने इस व्यवस्था के भीतर से भी उन्होंने राजनीति का आसान रास्ता खोज लिया। आरक्षित सीटों पर पत्नियों को चुनाव लड़वाया और खुद राजनीति करने लगे। इससे चुनी हुई महिलाएं फिर घरेलू बन गई और पति उनके नाम से राजनीति करने लगे। बात यहीं तक सीमित होती तो किसी को आपत्ति नहीं होती, पर ये पार्षद पति अपनी राजनीतिक सीमा और मर्यादा दोनों लांगने लगे हैं। पार्षद पत्नी के नाम से अधिकारियों को धमकाने लगे और शासकीय राशि में गड़बड़ी करने लगे! अब तो ये सब खुलेआम होने लगा! जब कोई घटना होती है, तो पार्षद पति गुंडागर्दी करने लगते हैं, दबाव बनाने लगते हैं या धमकाने लगते हैं। लेकिन, किसी जिम्मेदार अधिकारी के माथे पर शिकन तक नजर नहीं आती!
  ऐसी स्थिति में जनता खुद को ठगा सा महसूस करती है। आखिर, इस सबके पीछे जनता का क्या दोष? महिला पार्षद काम करना नहीं चाहती होगी, ऐसा नहीं है! लेकिन, पति के सम्मान और सामाजिक मर्यादा के कारण वो विरोध नहीं कर पाती! पत्नी की नेतागिरी की आड़ में ये पार्षद पति अपनी कई ऐसी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति कर लेते हैं, जो वे चाहते हैं! ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या महिला पार्षद सिर्फ नाम की जनप्रतिनिधि हैं? जब महिला सांसदों और विधायकों के कामकाज में उनके पतियों का कभी सीधे दखल नहीं देखा गया, तो फिर महिलाओं की सरपंची और पार्षदी पर पति क्यों हावी हो रहे हैं? जब किसी महिला को मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनती है, तो उसके जहन में पति के अतिक्रमण की कल्पना नहीं होती!
   महिला सरपंचों और पार्षदों का व्यवस्था में दखल स्थानीय मामला नहीं है! वास्तव में ये एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है! लेकिन, कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मामले में गंभीर नहीं है। पंचायत राज दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पंचायती सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत सरपंच के पति का दखल समाप्‍त होना चाहिए! बिलासपुर हाईकोर्ट में लगी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए भी कोर्ट कहा कि पंचायती राज शासन व्यवस्था में सरपंच पतियों की दखलंदाजी और उनके द्वारा किए जा रहे शक्ति दुरुपयोग बंद होने चाहिए! राज्य सरकारों को नियम बनाने चाहिए! लेकिन, लगता है राज्य सरकार ही इस बारे में गंभीर नहीं है!
  खानापूर्ति के लिए राज्य सरकार ने प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया! शासन के इस फैसले के बाद अब महिला जनप्रतिनिधियों की बैठक में इनके पति उपस्थित नहीं होते! आदेश में कहा गया है कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की ग्राम सभाओं की बैठकों में महिला सरपंचों तथा पंचों की सक्रिय भागीदारी जरुरी है! पंचायतों की कार्यवाहियों में सरपंच पति के शामिल होने पर प्रतिबंध लगाया गया है। लेकिन, यह व्यवस्था नगर पालिकाओं और नगर निगमों में लागू क्यों नहीं की गई? यदि कोई पार्षद पति अधिकारियों को धमकाता है, पार्षद पत्नी के अधिकारों का खुद उपयोग करता है या निर्माण कार्यों में हिस्सेदारी करता है, तो महिला पार्षद को हटाने की भी कार्रवाई की जाना चाहिए! क्या सरकार ने इस दिशा में कभी सोचा है? सवाल उठता है कि नहीं सोचा तो अब सोचे!
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Sunday, November 13, 2016

सिनेमा, समाज और बदलाव की बयार


हेमंत पाल 

  फिल्मों पर अकसर ये आरोप लगते रहे हैं कि ये अपराध को बढ़ावा देते हैं। कई अपराधियों ने भी पकडे जाने के बाद किसी फिल्म से अपराध की प्रेरणा लेना बताया। इसका सीधा सा मतलब है कि फ़िल्में जनमानस के इतने निकट होती हैं कि दर्शक फिल्म के नायक में अपनी छवि देखने लगता है। लेकिन, ये बात सिर्फ बुराई तक ही सीमित नहीं होती! कई कालजयी फ़िल्में ऐसी भी हैं, जिन्होंने समाज में सोच बदलने में भी प्रेरक का काम किया। दर्शक जब फिल्म की कहानी से एकाकार हो जाता है, तो खुद को अपने पसंदीदा किरदार के बीच पाता है। फिर उस किरदार द्वारा अभिनीत भावनाओं से तादात्म्य बैठाकर उसी के अनुरूप आचरण करने लगता है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब फिल्मों ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरह असर डाला। कुछ फ़िल्में तो ऐसी भी आईं, जिन्होंने समाज पर गहराई तक प्रभाव डाला और बदलाव की राह बनाई!  
  महात्मा गाँधी ने भी कई संदर्भों में अपने जीवन पर ‘सत्यवादी हरिश्चन्द्र' फिल्म के असर होने का जिक्र किया था। ये असर उनके पूरे जीवनकाल में उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता रहा। इस फिल्म से प्रभावित होकर गाँधीजी ने जीवनभर सत्य बोलने का संकल्प लिया था। ‘दो आँखें बारह हाथ’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’ भी उन फिल्मों में शुमार है, जिसे देखकर कई अपराधियों का हृदय परिवर्तन हो गया था। फिल्म देखकर उन्होंने अपराध से तौबा ही कर ली थी। इसके बाद भी ऐसी कई फ़िल्में आईं, जिन्होंने दर्शकों को विचारधारा के स्तर पर प्रभावित किया। अभी भी ये क्रम बंद नहीं हुआ है।  
  हिन्दी में लोकजीवन से जुड़ी पहली फिल्म बनाने का श्रेय निर्माता हिमांशु रॉय तथा निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन को दिया जाता है, जिन्होंने 1936 में 'अछूत कन्या' बनाई! इस फिल्म में दलित की बेटी कस्तूरी (देविका रानी) का ब्राह्मण के बेटे प्रताप (अशोक कुमार) से प्यार दिखाया गया था। फिल्म में मूल प्रगतिशील विचार यह था कि ब्राह्मण अपने बेटे का विवाह दलित कन्या से करने को तैयार हो जाता है। लेकिन, बाद में अफवाह और सामाजिक कटुता का वातावरण बहुत ज्यादा कलुषित हो जाता है, जिससे ये प्रयास निष्फल हो जाता है। ऐसी ही एक फिल्म 'जीवन नैया' आई थी, जिसमें एक वेश्या की बेटी का जीवन संघर्ष था। 
  1957 में आई वी शांताराम की फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' को भी सामाजिक बदलाव प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका दिखाया था। इसी धारा पर 1960 में राजकपूर ने 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। कहा जाता है कि इस फिल्म की विचारधारा से प्रेरित होकर बाद में विनोबा भावे, वीपी सिंह तथा अन्य समाजसेवियों एवं नेताओं ने डाकुओं के आत्मसमर्पण का विचार सामने रखा। ये भी कहा जाता है कि जब किरण बेदी तिहाड़ जेल की मुखिया थी, तब उन्होंने कई खूंखार कैदियों को सुधारने के लिए वी शांताराम के ही मानवतावादी मनोविज्ञान फार्मूले आजमाए थे। 
  1953 में बिमल रॉय ने 'दो बीघा जमीन' बनाई थी, जो वास्तव में किसान के जीवन की कारुणिक गाथा थी। 'गोदान' के बाद यदि किसानों की व्यथा भयावह स्वरूप में सामने आई, तो वह इसी फिल्म में देखने को मिली। महबूब खान की 1957 में आई कालजयी फिल्म 'मदर इंडिया' को भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर कहा जाता है। इस फिल्म को 'दो बीघा जमीन' का विस्तार कहा जा सकता है। साहूकार के शोषण तले कराहते किसान परिवार की वेदना को नरगिस ने जिस संवेदना से निभाया, उससे किसान की आवाज़ सरकार तक पहुँची थी! कहा जाता है कि किसानों की हालात के इस फ़िल्मी चित्रण के बाद ही देश में हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ! राजकपूर की फिल्म 'आवारा' ने भी इस धारणा को झुठलाया था कि अपराधी तथा अच्छे लोग जन्मजात होते हैं। किसी भी व्यक्ति को अच्छा या बुरा हालात नहीं, बल्कि उसकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि बनाती है। 'टाइम पत्रिका' ने तो इसे दुनिया की श्रेष्ठ 20 फिल्मों में स्थान दिया था। आज भी ऐसी फ़िल्में बनना बंद नहीं हुई है, बस उनका कलेवर बदल गया। जरुरत है, उन्हें इस नजरिए से देखने की! पा, कहानी, रुस्तम और पिंक जैसी फिल्मों में भी देखने के लिए बहुत कुछ है।
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Thursday, November 10, 2016

'पंडितजी' के बहाने भी इंदौर में कांग्रेस ने 'अमृत' नहीं मिला!

- हेमंत पाल 

 मध्यप्रदेश में इंदौर की राजनीति का एक अलग ही अंदाज है। भोपाल भले राजधानी है और प्रदेश से जुड़े सारे फैसले वही होते हैं, पर नेताओं और अफसरों की पसंदीदा जगह इंदौर ही है। फिर सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो, इंदौर का दबदबा कभी कम नहीं होता! सिर्फ प्रदेश में ही नहीं, केंद्र की सत्ता में भी इंदौर की छाप बनी रहती है। लेकिन, मुद्दा ये कि इतने महत्वपूर्ण शहर में किसका सिक्का चलता है? ऐसा कौनसा नेता है, जिसके नाम की तूती बोलती है? आज भले ही ऐसा कोई नाम याद नहीं आता हो, पर इंदौर लंबे अरसे तक कांग्रेस के नेता महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला उर्फ़ 'पंडितजी' के नाम का डंका बजता रहा! इनमें भी 'पंडितजी' की आवाज की अपनी अलग खनक और अंदाज रहा, जैसा कभी किसी और किसी नेता में नहीं दिखा! 75 साल के इस नेता का जोश आज भी कम नहीं हुआ! कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा पर उंगली नहीं उठाई जा सकती! लेकिन, जिंदगीभर राजनीति करने वाले इस नेता के 'अमृत महोत्सव' पर भी जमकर राजनीति हुई! हाशिए पर खड़ी कांग्रेस के नेताओं ने इस बहाने अपनी एकता दिखाने के बजाए सिर फुटव्वल को ही उजागर किया! इसके बाद भी 'पंडितजी' को शुभकामना देने वालों की कमी नहीं थी! कांग्रेस के बड़े नेता नदारद थे, पर 'पंडितजी' को चाहने वाले मौजूद थे। 


    जब कभी इंदौर में कांग्रेस की राजनीति का जिक्र होता है, बात दो नाम पर आकर टिक जाती है। ये नाम हैं महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला यानी 'पंडितजी।' इन नेताओं ने जिस दमदारी से राजनीति की है, ऐसा कभी कोई दूसरा नहीं कर सकता! दोनों नेताओं ने अपने दम पर कई सालों तक कांग्रेस को बाँधे रखा! इनके ज़माने में न तो कोई गुटबाजी थी न सिर फुट्टवल जैसे हालात! महेश जोशी की राजनीतिक शैली का आलम तो ये था कि हर बड़े अफसर को इंदौर में ज्वाइन करने के बाद उनके यहाँ हाजरी लगाने जाना पड़ता था। इसी धारा पर 'पंडितजी' की राजनीतिक शैली विकसित हुई। ये दोनों नेता चुनावी राजनीति में अपना ख़म भले न ठोंक पाए हों, पर इन्होंने कई नेताओं को गढ़ा! महेश जोशी तो चुनाव जीते और मंत्री भी बने, पर कृपाशंकर शुक्ला चुनाव लड़े तो पर जीत नहीं सके! महेश जोशी ने अब तो एक तरह से खुद को राजनीति से अलग ही कर लिया है। लेकिन, पंडितजी इस उम्र में भी सक्रिय हैं। हर सरकारी और राजनीतिक कार्यक्रम में पंडितजी कहीं न कहीं दिख ही जाते हैं।
  महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला के बाद तो इंदौर की कांग्रेस राजनीति ध्वस्त सी हो गई! इस कद का और कोई नेता उभर ही नहीं सका! गुटों और क्षत्रपों के सिपहसालारों में बंटी कांग्रेस के पास आज न तो सर्वमान्य नेता है और न कोई इच्छाशक्ति! इंदौर में किसी नए नेता के उभर न पाने का ही नतीजा है कि सुमित्रा महाजन लगातार 8 बार से लोकसभा चुनाव जीत रही है। महेश जोशी के साथ अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले कृपाशंकर शुक्ला ने पार्टी के अलावा दोस्ती में भी अपनी निष्ठा नहीं बदली। महेश भाई साथ कई बार उनके मतभेद सामने आए, पर मनभेद की स्थिति कभी नहीं बनी! अभी तक कभी सुनने में नहीं आया कि पंडितजी की किसी नेता से ऐसी ठनी हो कि उससे बातचीत ही बंद हो गई हो! जबकि, आज इंदौर में कांग्रेस आधा दर्जन खेमों में बंटी है।  
 इसी माहौल में 6 नवम्बर को इंदौर में कृपाशंकर शुक्ला के अमृत महोत्सव का आयोजन हुआ। जब इस कार्यक्रम की घोषणा हुई, तो कई बड़े नेताओं के आने की ख़बरें सामने आई। लगा कि इंदौर में अंतिम साँस गिन रही कांग्रेस को इस बहाने ऑक्सीजन भी मिलेगी! पार्टी के कुछ नेताओं ने इस बहाने आगे की रणनीति भी जमा ली थी, कि इस मौके के कैसे भुनाना है! लेकिन, अमृत महोत्सव के दौरान जो कुछ हुआ उसने पार्टी को आगे बढ़ाने के बजाए पीछे धकेल दिया! इस महोत्सव में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह समेत कई बड़े नेताओं को आमंत्रित किया गया था! लेकिन, इनमें से कोई नहीं पहुंचा! सबके पास अपने बहाने थे! फिर भी आयोजन में जो भीड़ उमड़ी उसने 'पंडितजी' की लोकप्रियता का जलवा दिखा दिया।
 पहले कमलनाथ को इस अमृत महोत्सव मुख्य अतिथि बनाया गया था। लेकिन, वे नहीं आए! कहा गया कि कमलनाथ के न आने के पीछे इंदौर में कांग्रेस की गुटीय लड़ाई सबसे बड़ा कारण है। पंडितजी के समर्थक और अमृत महोत्सव के संयोजक सज्जनसिंह वर्मा के खिलाफ जो लॉबी काम कर रही है, उसने कमलनाथ को न आने देने को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। बताते हैं कि कभी सज्जन वर्मा के नजदीक रहे पूर्व मंत्री हुकुमसिंह कराड़ा ने कमलनाथ को रोकने में प्रमुख भूमिका निभाई! जब कमलनाथ को लगा कि इंदौर में गुटीय राजनीति के समीकरण बिगड़ रहे हैं, तो वे पीछे हट गए। लेकिन, इस आयोजन में जिस तरह की भीड़ उमड़ी, उसने सज्जन वर्मा की धाक जमा दी! वे सोनकच्छ क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं, इसलिए उन्हें अभी तक उन्हें बाहरी नेता कहा जाता था। पर, पंडितजी के 'अमृत महोत्सव' की सफलता ने उन सबकी जुबान पर ताले डाल दिए। कमलनाथ या किसी और बड़े नेता के न आने से आयोजन की सफलता पर कोई फर्क नहीं पड़ा, पर कांग्रेस की एकजुटता का  मौका जरूर हाथ से निकल गया।
  इस अमृत महोत्सव में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश, पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और उनके पुराने साथी महेश जोशी मौजूद थे। जबकि, भाजपा से विक्रम वर्मा, सत्यनारायण सत्तन, रमेश मेंदोला, महेंद्र हार्डिया, कैलाश शर्मा भी पंडितजी से अपने निजी संबंधों के चलते दिखाई दिए। मोहन प्रकाश ने कहा कि शिव के अनेक रूप हैं। लेकिन, उनके साथ कृपा जुड़ जाए तो कृपाशंकर हो जाता है। यह उन्हीं की पुण्याई है कि जितने लोग हॉल के अंदर हैं, उससे ज्यादा बाहर भी खड़े हैं। वे शताब्दी वर्ष भी मनाएं यह शुभकामना है। उन्होंने कहा कि जिन संस्कारों से पंडितजी राजनीति करते थे वह समाप्त हो चुकी है, पर पंडितजी आप अलख जगाए रखो और एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता में लाओ। लोगों के कान पकड़कर उनसे काम करवाओ।
 अपने राजनीतिक जीवन में पंडितजी की छवि हमेशा मस्तमौला नेता की रही! इंदौर की भाषा में कहा जाता है कि राजनीति में जो झांकी कभी 'पंडितजी' की थी, वो कभी किसी की नहीं हो सकती! कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण पर भी कभी सवाल खड़े नहीं हुए। सक्रिय राजनीति में उनके तेवर पार्टी के अन्य नेताओं से हमेशा अलग ही देखने को मिले! इतने पर भी कभी 'पंडितजी' कभी विवाद में नहीं पड़े! हां, उनसे जुड़े किस्सों की कमी भी कभी नहीं रही! जब वे चुनाव लड़े, विरोधियों ने उनपर जिंसी की एक मस्जिद से घडी चोरी का आरोप लगाकर माहौल गरमा दिया था। फिर भी मस्तमौला पंडितजी  बुरा नहीं माना! कहा जाता है कि राजनीति में किसी नेता को कितना माइक प्रेमी होना चाहिए, ये 'पंडितजी' से अच्छा किसी से नहीं सीखा जा सकता! आज भी वे जब किसी कार्यक्रम में जाते हैं, बोलने का मौका नहीं छोड़ते। उनकी भाषण शैली भी ऐसी है उसे गंभीरता के बजाए रस लेकर ही सुना जाता है। किन्तु, पार्टी के प्रति उनकी गंभीरता, समर्पण और निष्ठा पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं लगा! उनका पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस के लिए राजनीतिक दुर्भावना से पर रहा।
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Friday, November 4, 2016

क्या मालवा, निमाड़ का सिमी नेटवर्क ध्वस्त हो गया?

- हेमंत पाल 

  भोपाल जेल से भागे सिमी के 8 गुर्गों का पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने को लेकर देशभर में राजनीति चरम पर है। ये मुठभेड़ असली थी या नकली? उन्हें जिन्दा पकड़ना था, मारा क्यों गया? ऐसे कई सवालों से राजनीति गरमाई है। लेकिन, मालवा, निमाड़ के लिए ये सुकून भरी घटना है। पश्चिम मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में पिछले करीब 15 सालों से सिमी की गतिविधियां चल रही है। खंडवा से शुरू होकर सिमी ने खरगोन, इंदौर, धार और उज्जैन के ग्रामीण इलाकों में भी अपनी पकड़ बनाई! धार के भोजशाला मामले को भी अल्पसंख्यकों की आड़ में सिमी ने ही ज्यादा भड़काया! लेकिन, एक साथ 8 खूंखार आतंकवादियों के मारे जाने के बाद निश्चित रूप से सिमी की कमर टूटी है। किन्तु, अभी सबसे बड़ी चुनौती उन चेहरों को बेनकाब करना है जो सिमी के लिए स्लीपर-सेल के रूप में काम कर रहे हैं! क्योंकि, जब तक ये चेहरे सामने नहीं आएंगे, सिमी की जड़ों में मट्ठा नहीं डलेगा! उसके बाद ही दावा किया जा सकता है कि मालवा, निमाड़ से सिमी  नेटवर्क ध्वस्त हो गया!
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   सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया) का जब भी जिक्र आता है, नजरें मालवा के 4-5 जिलों पर केंद्रित हो जाती है। खंडवा, इंदौर, उज्जैन और धार जिले में इस प्रतिबंधित संगठन की जड़ें काफी गहरी है। सिमी मालवा, निमाड़ को अपने लिए सबसे सुरक्षित इलाका समझता है इसकी बहुत सी वजह है। ये जिले प्रदेश के सीमावर्ती हैं, इसलिए यहाँ से भागने के रास्ते आसान हैं। इंदौर व्यावसायिक और औद्योगिक क्षेत्र है इसलिए यहाँ बाहरी लोगों तादाद ज्यादा है। उनके बीच पहचान छुपाकर रहना आसान है। इन्हीं के बीच सिमी ने अपने मजबूत स्लीपर सेल बना लिए हैं। सांप्रदायिक अशांति फैलाने की कई कोशिशें भी पिछले कुछ दिनों में सिमी के सदस्यों ने की है।
  प्रदेश में खंडवा को सिमी की जन्मस्थली माना जाता है। लेकिन, कुछ सालों से ये इंदौर और धार जिले के पीथमपुर में सबसे ज्यादा सक्रिय देखे जा रहे हैं। धार के भोजशाला मामले में भी सिमी ने कई बार परदे के पीछे से सक्रियता दिखाई! पिछले साल धार जिले के कई इलाकों में बसंत पंचमी से पहले सांप्रदायिक तनाव भड़का था! पुलिस ने अधिकांश स्थानों पर पाया भी था कि इनमें स्थानीय लोग शामिल नहीं थे! यदि ऐसा था तो वे बाहरी लोग कौन थे, ये सवाल अनुत्तरित है? सिमी की मालवा और निमाड़ में मौजूदगी के कई बार सबूत मिले! अभी दशहरे के अगले दिन भी धार जिले समेत प्रदेश के कई इलाकों में तनाव भड़का था, जिसे समय रहते दबा तो दिया गया, पर इसके पीछे भी सिमी का हाथ होने की बात भी कही गई! सवाल उठता है कि आखिर प्रदेश के आधा दर्जन शहरों में एक जैसी घटनाएं क्यों घटी? इन सभी वारदातों में समानता होने के पीछे कोई न कोई कारण तो होगा ही!
     प्रदेश के मालवा, निमाड़ इलाके में सिमी की गतिविधियों के कई ठिकाने हैं। करीब 16 साल पहले महिदपुर के रहने वाले सफदर नागौरी ने इंदौर में युवाओं की रैली निकालकर अपनी ताकत दिखाने की पहली कोशिश की थी। इसमें 4 हज़ार से ज्यादा मुस्लिम युवा शामिल हुए थे। इस रैली में नागौरी ने भड़काऊ सांप्रदायिक भाषण दिया, तब उसके खिलाफ पहली बार मामला भी यहीं दर्ज हुआ था! लेकिन, इस रैली के बाद सिमी की गतिविधियां बढ़ी। उनके गोपनीय समर्थक और मददगार भी बढे! दायरा बढ़ा तो इंदौर, उज्जैन, धार, खंडवा और खरगोन में सिमी के स्लीपर सेल भी तैयार हुए! स्लीपर सेल का आशय उन सिमी समर्थकों से है, जो अपनी पहचान छुपाकर इस संगठन के लिए सक्रियता से काम करते हैं।
  इंदौर में सिमी की मौजूदगी और उनके समर्थकों का सबसे बड़ा सबूत पिछले साल 8 दिसम्बर को मिला था। उस दिन अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष कमलेश तिवारी द्वारा पैगंबर हजरत मोहम्मद पर दिए गए बयान के विरोध में इंदौर के मुस्लिम समाज को ज्ञापन देना था। रैली निकालने या रास्ता जाम करने की कोई सूचना नहीं थी। लेकिन, ईदगाह मैदान से युवक अचानक उग्र हो उठे और रीगल चौराहा पहुँच गए। पहले तो उन्होंने वाहनों को रोककर चौराहे की सारी सड़कें जाम कर दी। इसके बाद एक शो-रूम में तोड़फोड़ की और बाहर खड़े कई वाहनों के साथ तोड़फोड़ की! स्थिति इतनी ख़राब हो गई थी कि काबू पाने के लिए 10 थानों की फोर्स बुलाना पड़ी। उस दिन सुबह मुस्लिम समाज के लगभग 15 हजार लोग छोटी ग्वालटोली ईदगाह पर जमा हुए थे। यहां तकरीर के बाद उन्होंने हिन्दू महासभा के नेता कमलेश तिवारी के खिलाफ एसडीएम को ज्ञापन सौंपा।
  रैली के बाद रीगल चौराहा जाम करने का कोई प्लान नहीं था, पर भीड़ का एक हिस्सा अचानक रीगल तिराहे की ओर बढ़ा। सड़क पर इतने लोग जमा हो जाएंगे और इस तरह बवाल मचाएंगे इस बात का पुलिस प्रशासन को कोई अंदाजा नही था। लोगों की भीड़ जहां से निकली वहां चक्का जाम हो गया। यहां इन्होंने दुकानें बंद कराना शुरु कर दिया। इनका विरोध करने पर एक शो-रूम और कुछ गाड़ियों में तोड़फोड़ भी कर दी। छोटी ग्वालटोली इदगाह में इतनी भीड जमा हो गई थी कि समाज के लोग आसपास की बिल्डिंग की छत पर पहुंच गए। इसके बाद अबु रेहान फारुकी ने तकरीर की। बाद में पता चला कि इस भीड़ को भड़काने में सिमी के ही कुछ लोगों का हाथ था। देखा गया है कि सिमी की गतिविधियों पर नजर रखने को लेकर पुलिस की ख़ुफ़िया टीम अक्सर फेल हो जाती है।
 धार जिले का औद्योगिक क्षेत्र पीथमपुर सिमी का नया ठिकाना माना जा रहा है। इंदौर के नजदीक होने और औद्योगिक क्षेत्र होने से यहाँ सिमी विचारधारा वालों के लिए पहचान छुपाकर रहना आसान है। सिमी के सबसे सक्रिय सरगना सफदर नागौरी ने 2008 में इंदौर के निकट चोरल के जंगल में पीथमपुर के कमरुद्दीन के खेत में सिमी के लिए चार प्रशिक्षण कैंप लगाए थे। इसमें कई खूंखार आतंकवादी शामिल हुए थे। इन कैंपों के बाद ही इंदौर में नागौरी समेत 17 आतंकियों को पुलिस ने पकड़ा था। इनके पास से हथियार, कंप्यूटर, के अलावा तनाव फैलाने वाला आपत्तिजनक साहित्य भी बरामद हुआ था! इनके कब्जे से 60 से ज्यादा सिमकार्ड और गतिविधियों से जुड़े कागजात भी जब्त किए गए थे। इन्हें पीथमपुर और इन्दौर के माणिकबाग के नजदीक एक मकान से पकड़ा गया था। साथ में मकान मालिक हाजी गफ्फार, हाजी अबरार और मकान दिलवाने वाल अकरम को भी पकड़ा गया था। यहीं से खुलासा भी हुआ था कि सिमी का असल मकसद क्या है!
  पीथमपुर की सघन मजदूर बस्तियां और कई ग्रामीण इलाके पुलिस नजर में नहीं आते! यहाँ की औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले मजदूरों का सही रिकॉर्ड नहीं होने से भी पुलिस को परेशानी आती है। यहाँ काम करने वाले अधिकांश मजदूर बाहरी हैं, इसलिए पुलिस के लिए भी सबकी पहचान कर पाना आसान नहीं होता! मालवा और निमाड़ में सिमी की सक्रियता का एक कारण ये भी है कि ये इलाका सीमावर्ती है और यहाँ से महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान की सीमाएं ज्यादा दूर नहीं है! सारी माकूल परिस्थितियों के बावजूद भोपाल में हुई मुठभेड़ सिमी की जड़ों पर करार वार है। लेकिन, सवाल उठता है कि इसके बाद क्या सिमी के नेटवर्क पर असर पड़ेगा? इस पर नजर रखना ज्यादा जरुरी है। इसमें कोई राजनीति भी नहीं होना चाहिए! वोट बैंक लालच में सिमी के नेटवर्क और स्लीपर-सेल की अनदेखी की गई तो मालवा, निमाड़ एक बार फिर आतंक का अड्डा बन सकता है!
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