Sunday, November 13, 2016

सिनेमा, समाज और बदलाव की बयार


हेमंत पाल 

  फिल्मों पर अकसर ये आरोप लगते रहे हैं कि ये अपराध को बढ़ावा देते हैं। कई अपराधियों ने भी पकडे जाने के बाद किसी फिल्म से अपराध की प्रेरणा लेना बताया। इसका सीधा सा मतलब है कि फ़िल्में जनमानस के इतने निकट होती हैं कि दर्शक फिल्म के नायक में अपनी छवि देखने लगता है। लेकिन, ये बात सिर्फ बुराई तक ही सीमित नहीं होती! कई कालजयी फ़िल्में ऐसी भी हैं, जिन्होंने समाज में सोच बदलने में भी प्रेरक का काम किया। दर्शक जब फिल्म की कहानी से एकाकार हो जाता है, तो खुद को अपने पसंदीदा किरदार के बीच पाता है। फिर उस किरदार द्वारा अभिनीत भावनाओं से तादात्म्य बैठाकर उसी के अनुरूप आचरण करने लगता है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब फिल्मों ने समाज पर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों तरह असर डाला। कुछ फ़िल्में तो ऐसी भी आईं, जिन्होंने समाज पर गहराई तक प्रभाव डाला और बदलाव की राह बनाई!  
  महात्मा गाँधी ने भी कई संदर्भों में अपने जीवन पर ‘सत्यवादी हरिश्चन्द्र' फिल्म के असर होने का जिक्र किया था। ये असर उनके पूरे जीवनकाल में उनके व्यक्तित्व को प्रभावित करता रहा। इस फिल्म से प्रभावित होकर गाँधीजी ने जीवनभर सत्य बोलने का संकल्प लिया था। ‘दो आँखें बारह हाथ’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’ भी उन फिल्मों में शुमार है, जिसे देखकर कई अपराधियों का हृदय परिवर्तन हो गया था। फिल्म देखकर उन्होंने अपराध से तौबा ही कर ली थी। इसके बाद भी ऐसी कई फ़िल्में आईं, जिन्होंने दर्शकों को विचारधारा के स्तर पर प्रभावित किया। अभी भी ये क्रम बंद नहीं हुआ है।  
  हिन्दी में लोकजीवन से जुड़ी पहली फिल्म बनाने का श्रेय निर्माता हिमांशु रॉय तथा निर्देशक फ्रेंज ऑस्टिन को दिया जाता है, जिन्होंने 1936 में 'अछूत कन्या' बनाई! इस फिल्म में दलित की बेटी कस्तूरी (देविका रानी) का ब्राह्मण के बेटे प्रताप (अशोक कुमार) से प्यार दिखाया गया था। फिल्म में मूल प्रगतिशील विचार यह था कि ब्राह्मण अपने बेटे का विवाह दलित कन्या से करने को तैयार हो जाता है। लेकिन, बाद में अफवाह और सामाजिक कटुता का वातावरण बहुत ज्यादा कलुषित हो जाता है, जिससे ये प्रयास निष्फल हो जाता है। ऐसी ही एक फिल्म 'जीवन नैया' आई थी, जिसमें एक वेश्या की बेटी का जीवन संघर्ष था। 
  1957 में आई वी शांताराम की फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' को भी सामाजिक बदलाव प्रतीक के रूप में याद किया जाता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने कुख्यात अपराधियों को सुधारने का एक अभिनव तरीका दिखाया था। इसी धारा पर 1960 में राजकपूर ने 'जिस देश में गंगा बहती है' बनाई थी। कहा जाता है कि इस फिल्म की विचारधारा से प्रेरित होकर बाद में विनोबा भावे, वीपी सिंह तथा अन्य समाजसेवियों एवं नेताओं ने डाकुओं के आत्मसमर्पण का विचार सामने रखा। ये भी कहा जाता है कि जब किरण बेदी तिहाड़ जेल की मुखिया थी, तब उन्होंने कई खूंखार कैदियों को सुधारने के लिए वी शांताराम के ही मानवतावादी मनोविज्ञान फार्मूले आजमाए थे। 
  1953 में बिमल रॉय ने 'दो बीघा जमीन' बनाई थी, जो वास्तव में किसान के जीवन की कारुणिक गाथा थी। 'गोदान' के बाद यदि किसानों की व्यथा भयावह स्वरूप में सामने आई, तो वह इसी फिल्म में देखने को मिली। महबूब खान की 1957 में आई कालजयी फिल्म 'मदर इंडिया' को भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर कहा जाता है। इस फिल्म को 'दो बीघा जमीन' का विस्तार कहा जा सकता है। साहूकार के शोषण तले कराहते किसान परिवार की वेदना को नरगिस ने जिस संवेदना से निभाया, उससे किसान की आवाज़ सरकार तक पहुँची थी! कहा जाता है कि किसानों की हालात के इस फ़िल्मी चित्रण के बाद ही देश में हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ! राजकपूर की फिल्म 'आवारा' ने भी इस धारणा को झुठलाया था कि अपराधी तथा अच्छे लोग जन्मजात होते हैं। किसी भी व्यक्ति को अच्छा या बुरा हालात नहीं, बल्कि उसकी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि बनाती है। 'टाइम पत्रिका' ने तो इसे दुनिया की श्रेष्ठ 20 फिल्मों में स्थान दिया था। आज भी ऐसी फ़िल्में बनना बंद नहीं हुई है, बस उनका कलेवर बदल गया। जरुरत है, उन्हें इस नजरिए से देखने की! पा, कहानी, रुस्तम और पिंक जैसी फिल्मों में भी देखने के लिए बहुत कुछ है।
------------------------------------------------

No comments: