लोक सेवा गारंटी अधिनियम-2010 मध्यप्रदेश सरकार द्वारा पारित एक विधेयक है। इसके अनुसार लोक सेवकों को निर्धारित समय सीमा में काम को पूरा करना होता है। ऐसा नहीं करने पर जवाबदेही तय कर उन पर जुर्माना तक लगाया जाता है। जब ये विधेयक पारित हुआ तब इसे अभूतपूर्व विधेयक माना गया था। कहा गया कि इसके परिणाम भी अभूतपूर्व ही होंगे। समय से काम होगें, भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति नियंत्रित होगी। कार्यों के संचालन में देरी करने पर जुर्माने के प्रावधान से अनावश्यक विलम्ब की प्रवृत्ति भी रूकेगी। कार्यों में पारदर्शिता आएगी! समय सीमा में कार्य होने से प्रकरण निश्चित अवधि में ही निपटेंगे! अनावश्यक प्रलोभन की प्रवृत्ति रूकेगी। भ्रष्टाचारी तत्वों पर भी रोक लगेगी। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! आज जनता की शिकायतें न तो जन सुनवाई में गंभीरता से सुनी जाती है न 'मुख्यमंत्री हेल्प लाइन' में की गई शिकायतों का निराकरण होता है। अफसरशाही ने सरकार के सारे दिशा निर्देशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। आखिर 'जन सुनवाई' में एक अफसर दूसरे अफसर की शिकायतें क्यों सुनें? यही कारण है कि या तो मामलों पर लीपा-पोती की जा रही है या आवेदन रद्दी की टोकरी में डाले जा रहे हैं।
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- हेमंत पाल
प्रदेश में अफसरशाही किस तरह राजशाही बनती जा रही है, जनसुनवाई और मुख्यमंत्री हेल्प लाइन को लेकर होने वाली लापरवाही उसी का नमूना है। वैसे भी अफसरराज को लेकर प्रदेश लम्बे समय से बदनाम है। जनता तो अफसरों से परेशान होती ही रहती है, मंत्री और यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी अपनी पीड़ा सुना चुके हैं। भोपाल में पिछले साल हुई संघ की समन्वय बैठक में भी प्रदेश के अफसर ही निशाने पर रहे थे। भाजपा के अधिकांश सांसदों ,मंत्रियों और नेताओं ने अफसरशाही पर खुले आम भ्रष्ट आचरण के आरोप लगाए थे। पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने तो साफ़ कहा था कि मुख्यमंत्री और मंत्री के ईमानदार होने से कुछ नहीं होता, प्रदेश में अधिकारी महाभ्रष्ट हैं! ब्यूरोक्रेसी में नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार फैला है। हर काम का परसेंटेज लिया जा रहा है। यहीं पार्टी के सांसद और मत्रियों की पीड़ा भी संघ पदाधिकारियों के सामने आ गई। कुछ नेताओं ने तो यहाँ तक कहा कि हालात काबू में नहीं आए तो अगले चुनाव में पार्टी की लुटिया डूब जाएगी। सिविल सर्विस-डे के मौके पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी अफसरशाही को लेकर अपनी पीड़ा बयां कर चुके हैं। बातों बातों में वे बता गए कि क्या मंत्री और क्या मुख्यमंत्री, अफसरशाही अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती। वो बस मनमानी किया करती है। उन्होंने अफसरों को घमंडी तक कहा।
जन सुनवाई तो पूरी तरह महज औपचारिकता बनकर रह गई। इंदौर के कलेक्टर कार्यालय में हाल ही में जन सुनवाई के दौरान दो अलग-अलग मामलों में दो लोगों ने खुदकुशी करने की कोशिश की। एक ने खुद पर केरोसिन उंडेल लिया और दूसरे व्यक्ति ने एसिड पीकर जान देने की कोशिश की! इन दोनों का आरोप है कि वे कई बार जन सुनवाई में आ चुके हैं। अफसरों को अपने मामले की शिकायत भी कर चुके पर कोई निराकरण करने को तैयार नहीं! एक ने तो कहा कि जब संबंधित अफसर से आग्रह किया तो उन्होंने जवाब दिया कि हमने क्या हर शिकायत सुनने का ठेका ले रखा है क्या? घटना के बाद एक अफसर ने तैनात सुरक्षाकर्मियों को फटकार लगाई। अफसर को भी आपत्ति महज इस बात पर थी कि केरोसिन लेकर कोई आदमी जन सुनवाई में कैसे आ गया?
बीते साल दिसंबर में भी इंदौर कलेक्टर कार्यालय में कलेक्टर की जन सुनवाई में न्याय नहीं मिलने का आरोप लगाते हुए एक युवक ने आत्मदाह की चेतावनी दी थी। एक प्रॉपर्टी ब्रोकर को पुलिस ने प्रताडि़त कर किसी अन्य व्यक्ति को 7 लाख रुपए दिलवा दिए। उसने कलेक्टर को पत्र लिखकर जानकारी भी दी। जन सुनवाई में भी आवेदन दिया, लेकिन अफसर किसी की कब सुनते हैं। इसके चलते उन्होंने कलेक्टर कार्यालय के सामने आत्मदाह करने की बात कही थी। इंदौर के ही रीगल चौराहे पर पिछले साल एक कॉटन व्यापारी रवींद्र जोशी ने इसी अफसरशाही से परेशान होकर आत्मदाह तक कर लिया था। उनका आरोप था कि कोलकाता की एक निजी कंपनी ने करोड़ों का माल लेकर रुपए नहीं चुकाए। पुलिस व प्रशासन के सामने वे शिकायत करते-करते थक गए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई थी। एक मस्टरकर्मी ने भी कुछ लोगों द्वारा अवैध वसूली से परेशान होकर आत्मदाह कर लिया था। उनका भी आरोप था कि उन्होंने कई बार इसकी शिकायत की, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।
ये सिर्फ इंदौर की घटना नहीं है। हर जिले में जन सुनवाई के दौरान कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हुई है। अब तो लोगों का ऐसी जन सुनवाई पर से भरोसा ही उठने लगा। यही कारण है कि अब शिकायतकर्ताओं की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। एक ही समस्या के निराकरण के लिए लोगों को बार-बार चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। जबकि, औपचारिकता के लिए भोपाल से हर बार आदेश दिए जाते रहते हैं कि समस्याओं का निराकरण समय सीमा में किया जाए! जमीनों के सीमांकन और नामांतरण के प्रकरणों पर तो विशेष ध्यान देने के निर्देश लगभग हर बैठक में दिए जाते हैं इसके बावजूद लोगों को भटकना पड़ता है।
विदिशा में एक किसान परिवार तो जन सुनवाई में सल्फास की तीन डिब्बियां लेकर पहुंचा था। किसान के परिजनों का कहना था कि उनकी 60 बीघा जमीन पर गांव के कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा है। परिवार जनसुनवाई में तीन-चार बार गुहार लगा चुका है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। प्रशासन उनकी नहीं सुन रहा! किसान की पत्नी का कहना है कि हमारी मदद प्रशासन नहीं करता है तो हम पूरे परिवार के साथ सल्फास खाकर आत्महत्या कर लेंगे। हमारे पास कुछ नहीं बचा, इसलिए एक ही रास्ता है कि हम जहर खा लें। गुना में भी कलेक्टर की जनसुनवाई में शिकायत लेकर पहुंची महिला ने जहर खाकर अपनी जान देने की कोशिश की थी। ये महिला दो साल से वह अपने प्लॉट पर कब्जे के लिए शिकायत कर रही थी, लेकिन सुनवाई नहीं होने पर उसने यह जानलेवा कदम उठाया। इस जिले में पहले भी एक महिला ने ख़ुदकुशी की कोशिश की थी।
ये तो वो घटनाएं हैं जिनमें परेशान लोगों ने मौत को गले लगाने की कोशिश की है। लेकिन, हरदा के एक बुजुर्ग किसान ने जनसुनवाई कार्रवाई से असंतुष्ट होकर विरोध का गांधीवादी रवैया अपनाया। परेशान होकर इस किसान ने अफसरों का ध्यान खींचने के लिए जन सुनवाई में डांस किया था। किसान का कहना था कि उसने कई बार गुहार लगाई पर सुनवाई नहीं हुई। इसके बाद किसान को यह कदम उठाना पड़ा। उसने डांस करके अफसरों को खुश करने की कोशिश की कि शायद अब वे उसकी समस्या का हल निकालेंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई '181 सीएम हेल्पलाइन' में भी शिकायतों का समाधान नहीं हो रहा। लोगों का कहना है कि हेल्पलाइन नंबर 181 पर शिकायत दर्ज कराने के महीनों तक कोई सुनवाई नहीं होती। हजाराें शिकायतें लंबित पड़ी हैं। जबकि, लोकसेवा गारंटी में सबकी जिम्मेदारी निर्धारित है। लेकिन, अफसरों को कभी ये डर नहीं रहता कि उनका कोई कुछ बिगाड़ सकता है। जाति प्रमाण पत्र और आय प्रमाण पत्र जैसे मामलों में अभी भी लेन-देन होने की शिकायतें कम नहीं हुई है। ऐसे में कैसे कोई मान ले कि प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की सरकार है? चारों तरफ अफसरों का बोलबाला है तो ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि मध्यप्रदेश में अफसरराज है!
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