Friday, June 23, 2017

अफसरशाही और मनमानी की भेंट चढ़ गई 'जन सुनवाई'


  लोक सेवा गारंटी अधिनियम-2010 मध्यप्रदेश सरकार द्वारा पारित एक विधेयक है। इसके अनुसार लोक सेवकों को निर्धारित समय सीमा में काम को पूरा करना होता है। ऐसा नहीं करने पर जवाबदेही तय कर उन पर जुर्माना तक लगाया जाता है। जब ये विधेयक पारित हुआ तब इसे अभूतपूर्व विधेयक माना गया था। कहा गया कि इसके परिणाम भी अभूतपूर्व ही होंगे। समय से काम होगें, भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति नियंत्रित होगी। कार्यों के संचालन में देरी करने पर जुर्माने के प्रावधान से अनावश्यक विलम्ब की प्रवृत्ति भी रूकेगी। कार्यों में पारदर्शिता आएगी! समय सीमा में कार्य होने से प्रकरण निश्चित अवधि में ही निपटेंगे! अनावश्यक प्रलोभन की प्रवृत्ति रूकेगी। भ्रष्टाचारी तत्वों पर भी रोक लगेगी। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! आज जनता की शिकायतें न तो जन सुनवाई में गंभीरता से सुनी जाती है न 'मुख्यमंत्री हेल्प लाइन' में की गई शिकायतों का निराकरण होता है। अफसरशाही ने सरकार के सारे दिशा निर्देशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। आखिर 'जन सुनवाई' में एक अफसर दूसरे अफसर की शिकायतें क्यों सुनें? यही कारण है कि या तो मामलों पर लीपा-पोती की जा रही है या आवेदन रद्दी की टोकरी में डाले जा रहे हैं।      
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- हेमंत पाल 
    प्रदेश में अफसरशाही किस तरह राजशाही बनती जा रही है, जनसुनवाई और मुख्यमंत्री हेल्प लाइन को लेकर होने वाली लापरवाही उसी का नमूना है। वैसे भी अफसरराज को लेकर प्रदेश लम्बे समय से बदनाम है। जनता तो अफसरों से परेशान होती ही रहती है, मंत्री और यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी अपनी पीड़ा सुना चुके हैं। भोपाल में पिछले साल हुई संघ की समन्वय बैठक में भी प्रदेश के अफसर ही निशाने पर रहे थे। भाजपा के अधिकांश सांसदों ,मंत्रियों और नेताओं ने अफसरशाही पर खुले आम भ्रष्ट आचरण के आरोप लगाए थे। पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने तो साफ़ कहा था कि मुख्यमंत्री और मंत्री के ईमानदार होने से कुछ नहीं होता, प्रदेश में अधिकारी महाभ्रष्ट हैं! ब्यूरोक्रेसी में नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार फैला है। हर काम का परसेंटेज लिया जा रहा है। यहीं पार्टी के सांसद और मत्रियों की पीड़ा भी संघ पदाधिकारियों के सामने आ गई। कुछ नेताओं ने तो यहाँ तक कहा कि हालात काबू में नहीं आए तो अगले चुनाव में पार्टी की लुटिया डूब जाएगी। सिविल सर्विस-डे के मौके पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी अफसरशाही को लेकर अपनी पीड़ा बयां कर चुके हैं। बातों बातों में वे बता गए कि क्या मंत्री और क्या मुख्यमंत्री, अफसरशाही अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझती। वो बस मनमानी किया करती है। उन्होंने अफसरों को घमंडी तक कहा।
     जन सुनवाई तो पूरी तरह महज औपचारिकता बनकर रह गई। इंदौर के कलेक्टर कार्यालय में हाल ही में जन सुनवाई के दौरान दो अलग-अलग मामलों में दो लोगों ने खुदकुशी करने की कोशिश की। एक ने खुद पर केरोसिन उंडेल लिया और दूसरे व्यक्ति ने एसिड पीकर जान देने की कोशिश की! इन दोनों का आरोप है कि वे कई बार जन सुनवाई में आ चुके हैं। अफसरों को अपने मामले की शिकायत भी कर चुके पर कोई निराकरण करने को तैयार नहीं! एक ने तो कहा कि जब संबंधित अफसर से आग्रह किया तो उन्होंने जवाब दिया कि हमने क्या हर शिकायत सुनने का ठेका ले रखा है क्या? घटना के बाद एक अफसर ने तैनात सुरक्षाकर्मियों को फटकार लगाई। अफसर को भी आपत्ति महज इस बात पर थी कि केरोसिन लेकर कोई आदमी जन सुनवाई में कैसे आ गया? 
  बीते साल दिसंबर में भी इंदौर कलेक्टर कार्यालय में कलेक्टर की जन सुनवाई में न्याय नहीं मिलने का आरोप लगाते हुए एक युवक ने आत्मदाह की चेतावनी दी थी। एक प्रॉपर्टी ब्रोकर को पुलिस ने प्रताडि़त कर किसी अन्य व्यक्ति को 7 लाख रुपए दिलवा दिए। उसने कलेक्टर को पत्र लिखकर जानकारी भी दी। जन सुनवाई में भी आवेदन दिया, लेकिन अफसर किसी की कब सुनते हैं। इसके चलते उन्होंने कलेक्टर कार्यालय के सामने आत्मदाह करने की बात कही थी। इंदौर के ही रीगल चौराहे पर पिछले साल एक कॉटन व्यापारी रवींद्र जोशी ने इसी अफसरशाही से परेशान होकर आत्मदाह तक कर लिया था। उनका आरोप था कि कोलकाता की एक निजी कंपनी ने करोड़ों का माल लेकर रुपए नहीं चुकाए। पुलिस व प्रशासन के सामने वे शिकायत करते-करते थक गए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई थी। एक मस्टरकर्मी ने भी कुछ लोगों द्वारा अवैध वसूली से परेशान होकर आत्मदाह कर लिया था। उनका भी आरोप था कि उन्होंने कई बार इसकी शिकायत की, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।
  ये सिर्फ इंदौर की घटना नहीं है। हर जिले में जन सुनवाई के दौरान कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हुई है। अब तो लोगों का ऐसी जन सुनवाई पर से भरोसा ही उठने लगा। यही कारण है कि अब शिकायतकर्ताओं की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। एक ही समस्या के निराकरण के लिए लोगों को बार-बार चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। जबकि, औपचारिकता के लिए भोपाल से हर बार आदेश दिए जाते रहते हैं कि समस्याओं का निराकरण समय सीमा में किया जाए! जमीनों के सीमांकन और नामांतरण के प्रकरणों पर तो विशेष ध्यान देने के निर्देश लगभग हर बैठक में दिए जाते हैं इसके बावजूद लोगों को भटकना पड़ता है। 
   विदिशा में एक किसान परिवार तो जन सुनवाई में सल्फास की तीन डिब्बियां लेकर पहुंचा था। किसान के परिजनों का कहना था कि उनकी 60 बीघा जमीन पर गांव के कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा है। परिवार जनसुनवाई में तीन-चार बार गुहार लगा चुका है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। प्रशासन उनकी नहीं सुन रहा! किसान की पत्नी का कहना है कि हमारी मदद प्रशासन नहीं करता है तो हम पूरे परिवार के साथ सल्फास खाकर आत्महत्या कर लेंगे। हमारे पास कुछ नहीं बचा, इसलिए एक ही रास्ता है कि हम जहर खा लें। गुना में भी कलेक्टर की जनसुनवाई में शिकायत लेकर पहुंची महिला ने जहर खाकर अपनी जान देने की कोशिश की थी। ये महिला दो साल से वह अपने प्लॉट पर कब्जे के लिए शिकायत कर रही थी, लेकिन सुनवाई नहीं होने पर उसने यह जानलेवा कदम उठाया। इस जिले में पहले भी एक महिला ने ख़ुदकुशी की कोशिश की थी। 
  ये तो वो घटनाएं हैं जिनमें परेशान लोगों ने मौत को गले लगाने की कोशिश की है। लेकिन, हरदा के एक बुजुर्ग किसान ने जनसुनवाई कार्रवाई से असंतुष्ट होकर विरोध का गांधीवादी रवैया अपनाया। परेशान होकर इस किसान ने अफसरों का ध्यान खींचने के लिए जन सुनवाई में डांस किया था। किसान का कहना था कि उसने कई बार गुहार लगाई पर सुनवाई नहीं हुई। इसके बाद किसान को यह कदम उठाना पड़ा। उसने डांस करके अफसरों को खुश करने की कोशिश की कि शायद अब वे उसकी समस्या का हल निकालेंगे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई '181 सीएम हेल्पलाइन' में भी शिकायतों का समाधान नहीं हो रहा। लोगों का कहना है कि हेल्पलाइन नंबर 181 पर शिकायत दर्ज कराने के महीनों तक कोई सुनवाई नहीं होती। हजाराें शिकायतें लंबित पड़ी हैं। जबकि, लोकसेवा गारंटी में सबकी जिम्मेदारी निर्धारित है। लेकिन, अफसरों को कभी ये डर नहीं रहता कि उनका कोई कुछ बिगाड़ सकता है। जाति प्रमाण पत्र और आय प्रमाण पत्र जैसे मामलों में अभी भी लेन-देन होने की शिकायतें कम नहीं हुई है। ऐसे में कैसे कोई मान ले कि प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की सरकार है? चारों तरफ अफसरों का बोलबाला है तो ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि मध्यप्रदेश में अफसरराज है! 
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Sunday, June 18, 2017

सवाल सिनेमा घरों में राष्ट्रगान का!


- हेमंत पाल 

  केरल के थालास्सेरी जिले के ब्रेनन कॉलेज में जारी हुई एक मैगजीन को लेकर विवाद पैदा हो गया! 'पैलेट' नाम से छपी इस मैगजीन के 12-13 वें पेज पर एक स्कैच को प्रकाशित किया गया, जिसमें दो लोगों को अनैतिक आग्रह करते दर्शाया गया जबकि थियेटर में राष्ट्रगान बजता दिखाया जा रहा है। आरोप लगा कि मैगजीन में इस स्कैच को राष्ट्रगान का अपमान करने के नियत से शामिल किया है। जबकि, स्टूडेंट यूनियन का कहना है कि मैगजीन में केवल समकालीन मुद्दों पर चर्चा की गई है। राष्ट्रगान बजाने और उसके सम्मान में खड़े होने की परंपरा कहां से आ गई! क्या संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है कि लोगों को राष्ट्रगान के सम्मान में खड़ा होना ही चाहिए? इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हर सिनेमाहाल में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाया जाएगा और मौजूद दर्शकों को खड़ा होना होगा!
  राष्ट्रगान के सम्मान और अपमान को लेकर कई बार सवाल उठते रहे हैं। कोई पीड़ित होता है तो कई प्रताड़ित। भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों में भी सिनेमा हाल और थिएटरों में राष्ट्रगान बजाने की प्रथा है। देश में आजादी के कुछ समय बाद तक यह प्रथा सिनेमा हॉल में लागू थी। फिल्म समाप्त होने के तत्काल बाद परदे पर झंडा लहराता था और नेपथ्य में राष्ट्रगान बजता! लेकिन, फिल्म समाप्त होने के बाद ऐसी प्रथा होने के कारण लोग घर जाने की जल्दी में रुकना पसंद नहीं करते थे। एक प्रकार से राष्ट्रगान के समय लोग सिनेमा हॉल से बाहर जाने लगते! यह राष्ट्रगान के अपमान के समान था। कुछ आपत्तियों करीब चार दशक पहले यह प्रथा बंद कर दी गई थी। लेकिन, पिछले साल दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रगान संबंध में नया आदेश एक जनहित याचिका पर आया! इसे मध्यप्रदेश के सेवानिवृत्त इंजीनियर श्यामनारायण चौकसे ने दायर किया था। पिछले 16 साल से लड़ाई लड़ रहे 76 साल के चौकसे के लिए यह फैसला न सिर्फ़ खुशियों भरा था, बल्कि काफ़ी भावनात्मक था। 
  वास्तव में तो चीन के आक्रमण के बाद सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने की परम्परा आरंभ हुई थी। फिर सरकार ने ही एक आदेश जारी किया जिसके बाद सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजाए जाने को रोका गया। सरकार का यह आदेश इसी वजह से आया था कि कई लोगों ने शिकायत की थी कि सिनेमा घरों में राष्ट्रगान का अपमान होता है। सिनेमा घरों में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाए जाने से कई विवाद भी हुए। कोई इससे राष्ट्रगान के अपमान की बात कहता। कोई न बजाने से अपमान की बात कहता है। कोई कहता है कि इससे देश में राष्ट्रभक्ति की भावना बढ़ेगी। कोई कहता है कि ऐसा करने से देश का भी अपमान होता है। यही वजह है कि सिनेमा घरों में राष्ट्रगान बजते वक़्त जब कोई खड़ा नहीं हुआ, तब विवाद हो गया। कभी किसी दिव्यांग के खड़े न होने से भी विवाद हुए।  
  देखा जाए तो सिनेमाहाल में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाए जाने से पहले किसी को एतराज नहीं है। लेकिन, अतिवादिता के चलते अकसर विवाद की स्थितियां निर्मित होती है। वैसे तो राष्ट्रगान के दौरान खड़े होना अच्छा है। लेकिन, कभी विकलांगता या गर्भवती महिला या अति बुजुर्ग द्वारा अचानक उठने मे समस्या होती है जिसे कुछ लोग राष्ट्रगान का अपमान कर मारपीट या गालीगलौच पर उतर आते है। बाद में सरकार ने स्पष्ट किया कि विकलांगों या असहायों को इस दौरान खड़े होने की अनिवार्यता नहीं है। ऐसा भी होता है कि सिनेमा घरों में बैठी भीड़ बिना कारण जाने विवाद पैदा करने लगती है, जिससे इसके विरोध जैसी हालत निर्मित होती है। इसके बावजूद यदि कोई मैगज़ीन राष्ट्रगान पर अपमानजनक प्रतिक्रिया व्यक्त करे तो मुद्दा सोच का है। 
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Saturday, June 17, 2017

सुलझने की कोशिश में ही ज्यादा उलझी सरकार!


    राजनीति कभी-कभी अचानक ऐसे करवट बदलती है कि सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। ये मध्यप्रदेश में पिछले दिनों जो कुछ घटा उसे देख और समझकर समझा जा सकता है। ये सारी घटनाएं राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए केस स्टडी भी हो सकती है। राज्य सरकार जिस किसान आंदोलन को अदना सा संकट समझ रही थी, उस आंदोलन की विकरालता ने सरकार की चूलें हिला दी! जो भाजपा सरकार संवेदनशीलता मामले में तेरह साल में जनता के दिल में जगह बना चुकी थी उसे जनता ने सबसे ज्यादा असंवेदनशील समझने में तेरह मिनट नहीं लगाए! दस दिन के इस किसान आंदोलन में क्या कुछ नहीं घटा! इसमें किसी मसाला फिल्म की तरह एडवेंचर भी था, एक्शन भी, ड्रामा भी, थ्रिल भी और इमोशन भी! लेकिन, फिल्म का अंत इतना नाटकीय होगा ये किसी ने सोचा नहीं था। जो कांग्रेस तेरह साल से प्रदेश की राजनीति में गेस्ट एपीयरेन्स जैसे रोल में थी, उसका रोल अहम बनकर उभर आया। इतने पर भी अभी सरकार की उलझन खत्म नहीं हुई! मामले को सुलझाने की कोशिश में सरकार जिस तरह उलझती गई, उसने प्रदेश की भाजपा राजनीति को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। 
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 - हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश में जिस तरह का घटनाक्रम घटा वो पूरी तरह अनपेक्षित था। किसानों का सामान्य समझा जाने वाला आंदोलन इतना उग्र हो जाएगा! उसकी उग्रता सरकार को हिला देगी, ये शायद कभी सोचा नहीं गया होगा! ये भी उसी अनपेक्षित पटकथा का हिस्सा रहा कि हाशिये पर पड़ी कांग्रेस अचानक लाइम लाइट में आ गई। तेरह साल तक सफल मुख्यमंत्री कहे जाने वाले शिवराज सिंह चौहान सबके निशाने पर थे। जो मीडिया और सोशल मीडिया भाजपा और प्रदेश सरकार के गुणगान करते थकता था, वहाँ नकारात्मकता की बाढ़ आ गई! सरकार के सारे मीडिया मैनेजर इस बदलाव को मैनेज करने में फेल हो गए! वे समझ ही नहीं सके कि सरकार विरोधी ख़बरों और कमेंट्स कहाँ से बरस पड़े? सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात ये समझी जाना चाहिए कि जिन्हें सरकार और भाजपा का सपोर्टर माना जाता था वो सारे मीडियामेन गायब नजर आए!  
  ध्यान देने वाली बात है कि ये तात्कालिक घटना पर लोगों की सहज प्रतिक्रिया थी या पहले से लोगों के दिलों में भरे गुस्से का निस्तार था? क्योंकि, जो हुआ उसमें किसानों के साथ आम लोगों की मानसिकता को समझने में भी सरकार फेल ही रही! एक मुद्दे को सहेजने की कोशिश में सरकार से बार-बार गलतियां हुई! किसान सिर्फ किसान थे, ये सोच भी कहीं न कहीं गलत साबित हुई! मंदसौर की घटना के बाद भी सरकार ने जो फैसले लिए वो भी ऐसे नहीं थे, जो मसले का निराकरण करते दिखाई दिए! शुरूआती तीन दिन कथित किसान आंदोलनकारियों ने बहुत नुकसान किया! मीडिया में जो छपा उससे ये संदेश गया कि नुकसान करने वाले आंदोलनकारी भाजपा से जुड़े लोग हैं। उनके गले में डले केशरिया दुपट्टे इसकी चुगली कर रहे थे। लोगों का इस सबसे ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस पर ठीकरा क्या फोड़ा, सरकार के सामने नई मुसीबत खड़ी हो गई! कांग्रेस को आंदोलन से जोड़ने से कांग्रेस खलनायक बनने के बजाए हीरो बन गई! भाजपा जैसी पार्टी इसका पूर्वानुमान नहीं लगा सकी, ये समझने वाली बात है!      
   कांग्रेस जो एक दशक से नेपथ्य में चली गई थी, अचानक सामने आ गई! जिस किसान आंदोलन से उसका कोई वास्ता नहीं था, वो मुद्दा उसके हाथ आ गया और उसने उसका पूरा फ़ायदा उठाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी! राहुल गाँधी का मंदसौर आने की कोशिश करने की भाजपाई सोशल मीडिया मैनेजर जितनी भी खिल्ली उड़ाने की कोशिश करें, पर सच ये है कि कांग्रेस को राहुल के इस कदम से जो सहानुभूति मिलना थी, वो तो मिल गई! इसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बचा खुचा मैदान मार लिया! विदेश से अचानक भारत आकर सिंधिया ने मुद्दे को जिस तरह हेंडल किया, वो इस बात संकेत भी है कि पार्टी ने सिंधिया को मध्यप्रदेश की कोई बड़ी जिम्मेदारी देने का फैसला किया है। उन्हें मंदसौर जाने से रोकने की सरकारी कोशिशों से भी गलत संदेश गया है। इससे ये लगा कि सरकार कुछ छुपाना चाहती है। इसके बाद मुख्यमंत्री के 27 घंटे के उपवास का जवाब देने के लिए सिंधिया का 72 घंटे का सत्याग्रह कहीं ज्यादा कामयाब रहा, इस सच को साबित करने जरुरत शायद नहीं है।    
  जो कांग्रेस अभी तक तीन-चार क्षत्रपों में बंटकर आपस में ही तलवार भांज रही थी, वो अचानक राजनीतिक अस्त्र-शास्त्रों से लेस सेना की शक्ल में सामने आ गई! कांग्रेसी नेताओं के चेहरे अचानक चमक उठे! जिस पार्टी के पास अगले चुनाव में उतरने के लिए कोई मुद्दा नहीं था! शिवराज सिंह को चुनौती देने का मौका नहीं मिल रहा था, उस कांग्रेस ने बराबरी की लड़ाई की तैयारी कर ली! इसी सब का नतीजा है कि शुरू के तीन दिन जिस किसान आंदोलन में केशरिया दुपट्टे नजर आ रहे थे, वहां बाद में कांग्रेस का तिरंगा कैसे लहराने लगा? भाजपा और सरकार के लिए ये सोच और चिंतन का विषय है कि उससे कहाँ, कब और कैसी गलती हुई? क्योंकि, ये तो सर्वमान्य सत्य है कि यदि कांग्रेस को आंदोलन से जुड़ा नहीं बताया जाता तो ये पार्टी कहीं आसपास भी नहीं थी! लेकिन, भाजपा को हुए इस खामियाजे की भरपाई कैसे हो ये लाख टेक का सवाल है!
  किसानों को साधने की कोशिश में कांग्रेस को तो सरकार ने संजीवनी बूटी दे ही दी, उधर व्यापारियों को भी नाराज कर दिया! समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के मुद्दे पर मुख्यमंत्री ने व्यापारियों पर आपराधिक मामले दर्ज करने की धमकी क्या दी, एक नया बवाल खड़ा गया! अफसर भी सकते में आ गए कि मुख्यमंत्री की इस बात का क्या मतलब निकाला जाए? क्योंकि, समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद सरकार की जिम्मेदारी है न कि व्यापारियों की! मुख्यमंत्री की इस धमकी से नाराज व्यापारी भी अब सड़क पर आ गए! अब भाजपा और पार्टी के लिए सही रास्ता तो ये होगा कि वो किसान आंदोलन के संदर्भ में आत्मलोचन करे कि उसे क्या नहीं करना था जो उसने किया? उपवास करने के मुख्यमंत्री का फैसले को भी इसी संदर्भ परखा जाना चाहिए! क्योंकि, सवाल उठ रहे हैं कि उपवास किया क्यों गया और उसे खत्म क्यों किया? इस उपवास की उपलब्धि क्या रही? इस सारे झमेले के बाद भाजपा के लिए आगे की राह आसान नहीं है। बेहतर होगा कि संभलकर चला जाए, क्योंकि सुलझने की कोशिश में जितना उलझना था वो सब हो चुका! 
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Sunday, June 11, 2017

फिल्मों में भी किसान की पीड़ा अनंत

- हेमंत पाल 
 
इन दिनों चारों तरफ किसान-आंदोलन का हल्ला गूंज रहा है। देश का पेट भरने वाला किसान आज खुद भूखा है। उसे अपनी मेहनत की सही कीमत नहीं मिल रही। लेकिन, किसान की ये पीड़ा आज की नहीं है। हिंदी सिनेमा ने बरसों पहले ही किसान के इस दर्द को पहचान लिया था। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ के जरिए देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग ‘जमीन चले जाने पर किसानों का सत्यानाश हो जाता है।' ये बात भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों की पीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता है। ये पहली भारतीय फिल्म थी, जो 'कॉन फिल्म समारोह' में पुरस्कृत हुई थी।
    सिनेमा में बाजारीकरण की सबसे ज्यादा मार किसानों पर ही पड़ी है। शहरों को ध्यान में रखकर ही फिल्में बनाई जा रही या फिर ऐसी फिल्में बन रही जिनका कोई मकसद ही नहीं होता। जहाँ तक किसानों पर फ़िल्में बनाने की बात है तो बिमल रॉय, गुरु दत्त, महबूब खान और वी शांताराम जैसे फिल्मकारों ने गांव और किसानों पर ही ज्यादा फिल्में बनाई है। आजादी से पहले और उसके बाद लम्बे समय तक सिनेमा में गाँव की समस्याएं और किसान का दर्द प्रमुख विषय बना रहा। कई फिल्में इस दौर में बनीं। ‘हीरा मोती’ में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! ‘गोदान’ के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। गंगा-जमुना, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान से ‘लगान’ तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही।
  अब तो किसान का दर्द भी मसाला बन गया! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में किसानों को केंद्रीय पात्र बनाकर कई फ़िल्में बनी। लेकिन, किसान को समृद्ध कम ही बताया गया। वास्तविक किसान की तरह फ़िल्मी भी साहूकार के कर्ज में डूबा रहा। अपना कर्ज वसूलने के लिए साहूकार के गुंडे कभी किसान की खड़ी फसल में आग लगा देते तो कभी उसकी बेटी को उठा ले जाते थे। यही पटकथा लम्बे समय घुमा फिराकर दिखाई जाती रही!
   किसानों पर बनी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' के बाद महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ को मील का पत्थर माना जाता है। इसमें एक विधवा औरत के अपनी जमीन के लिए संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी फिल्माई गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द  दुनिया को दिखाया। आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘लगान’ में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। ‘मदर इंडिया’ के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी। आशय यह कि वास्तविक किसान और फिल्मीं किसान दोनों ही आजादी के सात दशक बाद भी उबर नहीं सके हैं।  
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Friday, June 9, 2017

क्यों चलती है कोई फिल्म?


- हेमंत पाल

  फिल्म इंडस्ट्री का ये सबसे अहम् और चिर सवाल है कि आखिर कोई फिल्म हिट कैसे होती है? एक फिल्म हिट हो जाती है और दूसरी फ्लॉप! इंडस्ट्री में हिट और फ्लॉप का अभी तक न तो कोई निर्धारित फार्मूला है और न कोई इसका कारण ही समझ पाया! फिल्मकारों के लिए दर्शकों की पसंद और नापसंद आज भी एक अबूझ पहेली है। फिल्म की कहानी अच्छी हो तो क्या फिल्म चलेगी, क्या गीत-संगीत से दर्शक आकर्षित होते हैं, संवाद की फिल्म में क्या अहमियत है या फिर जमकर एक्शन हो तो दर्शक खिंचे चले आएंगे? यदि किसी फिल्म में ये सब हों तो क्या फिल्म के हिट होने की गारंटी है? लेकिन, किसी के पास कोई जवाब नहीं है! 
  फिल्म के जानकारों का कहना है कि दर्शकों का बड़ा वर्ग संवादों को ज्यादा महत्व नहीं देता। उनका तर्क है कि फिल्म सिर्फ संवादों से नहीं चलती, कई और कारणों से अच्छी बनती हैं। अगर निर्देशन की बात की जाए तो शांताराम, सोहराब मोदी, केदार शर्मा, नितिन बोस, राज कपूर, चेतन आनंद, विमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, यश चोपड़ा और सुभाष घई जैसे कई बड़े निर्देशकों की फिल्में पिटी हैं। 1950 के दशक में माना जाता था कि मधुर गीत-संगीत फिल्म को चलाता है। लेकिन, ऐसी दर्जनों मिसाल हैं जब फिल्म का गीत-संगीत लोकप्रिय हो गया, पर फिल्म नहीं चली। 

  बड़े सितारों के भरोसे फिल्म को खींचने की कवायद भी कई बार मात खा चुकी है। इंडस्ट्री में ऐसा कोई स्टार नहीं है, जिसके करियर में कोई फ्लॉप न हो! अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान से लगाकर राजेंद्र कुमार तक की फ़िल्में फ्लॉप हो चुकी है, जिसे जुबली कुमार कहा जाता था। वास्तव में किसी फिल्म की सफलता के कई कारण होते हैं। उनका समानुपातिक तालमेल ही फिल्म को सफल बनाता है। कहानी तो किसी भी फिल्म की जान होती है और उसमें रंग भरती है कसी हुई पटकथा। फिर नंबर आता है गीत-संगीत का। इन सबके बाद निर्देशक की रचनात्मकता से संपूर्ण फिल्म बनती है। लेकिन, ऐसा व्यवस्थित तालमेल कम ही बनता है। यही कारण है कि कभी गीत फिल्म का सहारा बन जाते हैं तो कभी एक्शन से नैया पार लगती है। लेकिन, कभी किसी एक्टर की संवाद अदायगी फिल्म की पहचान बन जाए तो वह सालों तक उसकी याद ताजा रखता है।

 आजादी से पहले तो कुछ फिल्में सिर्फ ओजपूर्ण संवादों की वजह से ही चर्चित हुईं। सोहराब मोदी की ‘पुकार’ व ‘सिकंदर’ इसकी मिसाल हैं। इन फिल्मों के संवादों में गजब की आग थी। केदार शर्मा की ‘चित्रलेखा’ में पाप और पुण्य की व्याख्या करने वाले संवाद चुटीले थे। बीआर चोपड़ा की ‘कानून’ व ‘इंसाफ का तराजू’ में संवादों से ही कानून व्यवस्था की बखिया उधेड़ी गई थी। लेकिन कई फिल्मों की पहचान ही उनका एक संवाद बन गई। शोले और मुग़ल-ए-आजम को आज संवादों की वजह से ही याद किया जाता है।  
  कुछ फिल्मों के साथ कोई ऐसी घटना जुड़ जाती है जो फिल्म की सफलता का कारण बनती है। ‘मुगल-ए-आजम’ को उसके कांच से बने वैभवशाली शीश महल और उसमें फिल्माए गए रंगीत गीत ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ से याद किया जाता है। ‘मदर इंडिया’ में आग में घिरी नरगिस को सुनील दत्त का बचाना ही यादगार घटना बन गया। ‘कुली’ को इसलिए याद किया जाता है, क्योंकि उसकी शूटिंग के दौरान पुनीत इस्सर का घूंसा लगने से अमिताभ बच्चन घायल हो गए थे। उनकी आंत फटना इतनी बड़ी घटना बन गई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपना विदेशी दौरा स्थगित कर स्वदेश लौटना पड़ा था। फिल्म में वो दृश्य रोककर बताया जाता था कि इस दृश्य में अमिताभ को चोट लगी थी। 
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इंदौर में सफाई का सेहरा बाँधने में सड़क छाप राजनीति!


- हेमंत पाल 

इंदौर के देश में सफाई में नंबर-1 होने पर मनाए जाने वाले जश्न ने शहर की भाजपा राजनीति को उलझा दिया। सांसद सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' इसका श्रेय लेने के लिए अपने अराजनीतिक सलाहकारों की जेबी संस्था के बैनर पर कार्यक्रम करवाना चाहती थी! लेकिन, एनवक्त पर मामला बिगड़ गया और 'ताई' को पीछे हटना पड़ा! शहर में हर कोई ये सवाल करता नजर आ रहा है कि नगर निगम और जिला प्रशासन की उपलब्धि का सेहरा कोई निजी संस्था अपने सर पर क्यों बांधना चाहती है? वो भी ऐसी संस्था जिसका अपना कोई राजनीतिक और सामाजिक वजूद नहीं है! अब ये कार्यक्रम बड़े स्तर पर सरकार खुद कर रही है। इस एक घटना ने शहर में भाजपा की राजनीति के समीकरणों को भी उलट-पलट दिया। मुख्यमंत्री से निकटता ने महापौर मालिनी गौड़ उर्फ़ 'भाभी' के नंबर तो बढ़ा दिए। लेकिन, 'ताई' को राजनीति के अखाड़े में पटखनी खाना पड़ी। वो भी सिर्फ इसलिए कि उनकी राजनीतिक सलाहकार मंडली ऐसे लोगों की है जो समीकरणों को संतुलित करना तक नहीं जानते।  


   सफाई के मामले में इंदौर देश में नम्बर-वन रहा! ये हर इंदौरवासी के लिए ख़ुशी की बात है। लेकिन, इसका श्रेय कौन ले, ये फकत राजनीति है। भाजपा के बड़े नेता इस उपलब्धि का सेहरा अपने सर बांधना चाहते हैं। जबकि, सीधे-सीधे तो ये तमगा नगर निगम और महापौर के अलावा किसी और को दिया जा सकता! इसके अलावा कोई इस सफलता का हिस्सेदार है तो वो हैं यहाँ के सफाई कर्मचारी! लेकिन, सांसद सुमित्रा महाजन ने भी इसमें भी अपनी हिस्सेदारी बांटना चाही। उनके समर्थकों की जेबी संस्था 'महानगर विकास परिषद्' ने इंदौर के सफाई में अव्वल होने की घोषणा के साथ ही एलान कर दिया था कि उनकी संस्था नगर निगम और सफाई कर्मियों का सम्मान करेगी! सवाल उठता है कि सम्मान करने का श्रेय किसी निजी संस्था को क्यों मिले? हास्यास्पद बात ये भी है कि स्वयं सुमित्रा महाजन ने भी अपने बयान में शहर में साफ़-सफाई की शुरुआत दिवाली पर उनकी संस्था द्वारा किए गए धार्मिक स्थलों की साफ़ सफाई को माना!   
  नेताओं में इसका श्रेय लेने की होड़ ने राजनीति को मजाक बनाकर रख दिया। मुख्यमंत्री कहने पर नगर निगम ने सफाई कर्मियों के सम्मान में 17 मई को होने वाला 'प्रणाम-इंदौर' कार्यक्रम निरस्त कर दिया। क्योंकि, इसमें सांसद सुमित्रा महाजन को तवज्जो नहीं दी गई थी। जैसे ही कार्यक्रम निरस्त होने की घोषणा हुई 'महानगर विकास परिषद' ने बयान जारी करके कार्यक्रम 5 जून को करने का एलान कर दिया। जबकि, सच्चाई ये है कि नगर निगम से इस संस्था की कार्यक्रम को लेकर कोई बात भी तब तक नहीं हुई थी। ये सब इसलिए कि 'ताई' नहीं चाहती कि इंदौर के नंबर-वन बनने के तमगे से वे कहीं भी वंचित जाएँ। नगर निगम 17 मई से पहले भी दो कार्यक्रम बना चुका था, जिसमें शिवराजसिंह चौहान को आना था, पर वे भी निरस्त हो गए। नगर निगम ने प्रस्तावित आयोजन में सुमित्रा महाजन को आमंत्रित तक नहीं किया था और न आमंत्रण पत्र में उनका नाम था। 'ताई' ने इसपर आपत्ति ली तो मुख्यमंत्री को कार्यक्रम ही निरस्त करना पड़ा। ये सारा विवाद जब दिल्ली पहुंचा तो नगरीय विकास मंत्री वैंकैया नायडू ने मोर्चा संभाला।
   सवाल ये उठता है कि सफाई के मामले में इंदौर के नंबर-वन बनने पीछे नगर निगम और जिला प्रशासन की मेहनत है तो 'महानगर विकास परिषद' जैसी जेबी संस्था सबका सम्मान करने वाली कौन होती है? वो भी नगर निगम से बिना पूछे कार्यक्रम करने और सम्मानित करने वाली? 'महानगर विकास परिषद' ने अपनी मर्जी से नगर निगम के साथ साझा कार्यक्रम क्या जारी किया, शहर की भाजपा राजनीति मानो भूचाल आ गया! बताते हैं कि जब महापौर के जरिए बात मुख्यमंत्री तक पहुंची तो सारा माजरा ही पलट गया। क्योंकि, इधर सुमित्रा महाजन की टीम और उधर महापौर के लोग एक दूसरे की बयानबाजी दिल्ली तक पहुंचा रहे थे। इस वजह से शहर में पार्टी और बड़े नेताओं की खिल्ली उड़ने लगी थी। अंततः तय हुआ कि इंदौर के सफाई में नंबर-वन बनने का जश्न न तो महानगर विकास परिषद् करेगी और न अकेली नगर निगम! अब ये कार्यक्रम राज्य सरकार कर रही है और इसमें शहरी विकास मंत्री वैंकैया नायडू को बुलाया गया है। दरअसल, 'ताई' और महापौर के बीच शीतयुद्ध की शुरुआत तो तभी हो गई थी, जब सोशल मीडिया में महापौर मालिनी गौड़ को इंदौर का अगला सांसद उम्मीदवार बनाए जाने की आवाज उठी थी। 
  इंदौर से 8 बार सांसद बनने वाली सुमित्रा महाजन 'ताई' के कामकाज की शैली और राजनीतिक नुकसान फायदों को लेकर अकसर सवाल किए जाते रहे हैं। क्योंकि, उनकी छवि कभी भी सर्वमान्य जननेता की नहीं बन सकीं! वे हमेशा ही एक ख़ास सभ्रांत वर्ग की नेता बनी रहीं। लगातार 8 बार सांसद बनने के बाद भी उनके आसपास गैर-राजनीतिक लोगों का जमावड़ा ही ज्यादा होता है। इस बार सम्मान समारोह के आयोजन को लेकर जो कुछ हुआ, उसके पीछे भी राजनीतिक अपरिपक्वता स्पष्ट नजर आती है। इंदौर में सफाई के लिए जनजागरण में 'महानगर विकास परिषद' ने कितनी पहल की, ये किसी से छुपा नहीं है। इंदौर जैसे जागरूक शहर में कोई बयानबाजी करके असली नेता बन जाए ये संभव भी नहीं है। यहाँ वे ही नेता जनता के दिल में जगह बना पाते हैं, जो सड़क की राजनीति 
    इंदौर लोकसभा सीट से सुमित्रा महाजन 'ताई' 1989 से लगातार लोकसभा के चुनाव जीतती आ रही है! लेकिन, शहर के लिए कुछ करने के बारे में उनका खाता खाली ही नजर आता है। वे स्वयं लोकसभा अध्यक्ष के पद तक पहुँच गईं पर शहर को वे कुछ नहीं दे सकीं और न उनके साथ काम करने वालों को वे कोई पहचान दिला सकीं। उन्होंने जब कोशिश की, उन्हें सफलता नहीं मिली। इंदौर में जो काम कैलाश विजयवर्गीय ने अपने विधानसभा क्षेत्र और अपने कार्यकर्ताओं के लिए किया उसके मुकाबले 'ताई' की उपलब्धियां शून्य हैं। अपने बेटे को राजनीति में लाने के लिए 'ताई'  प्रयास किसी से छुपे नहीं हैं, पर वे इसमें भी कामयाब नहीं हो सकीं। उनके वर्चस्व को किसी ने कभी चुनौती नहीं दी! क्योंकि, उनके कामकाज का तरीका आक्रामक नहीं रहा। लेकिन, उन्होंने अपनी 'चौकड़ी' में किसी को घुसने भी नहीं दिया! उनकी सारी सक्रियता रेलवे को चिट्ठी-पत्री करने तक ही सीमित रही। सक्रियता से बचकर रहना 'ताई' की आदत रही है! लोग उनकी इस राजनीतिक शैली से कभी खुश नहीं रहे, पर मज़बूरी है कि सामने कोई विकल्प भी नहीं रहा! सफाई के मामले में इंदौर की उपलब्धि को अपने खाते में शामिल करने की उनकी कोशिश की जो हार हुई, वो उनके लिए एक सबक है। कमजोर सिपाहियों के भरोसे कभी किले फतह नहीं होते।       
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किसान आंदोलन की हांडी में सियासत का तड़का!

- हेमंत पाल 

   शांति का टापू कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में पिछले एक सप्ताह में जो कुछ घटा, उसने बहुत कुछ कह दिया! किसानों के आंदोलन पर सरकार ने गोलियां चलवाई। बदले में किसानों ने सड़क से गुजर रहे वाहनों को फूंक दिया और ये आंदोलन हिंसक रूप में सामने आया! इस पूरे घटनाक्रम ने करीब आधे प्रदेश को बुरी तरह प्रभावित किया। सवाल उठता है कि प्रदेश के किसान आंदोलन के लिए क्यों मजबूर हुए? पांच बार 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड जीतने वाले प्रदेश के किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य तक नहीं मिल रहा! कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या को मजबूर है। लेकिन, उनके इस आंदोलन का जो चेहरा सामने आया वो सियासी नजरिए से भाजपा के भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित है। सरकार ने इस आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में कई गलतियां की। अपात्र किसान सगठनों से बातचीत करके आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। मंदसौर में गोली चलाए जाने की घटना से पुलिस को बचाने की बयानबाजी की! किसानों को असामाजिक तत्व कहा गया। सबसे बड़ी गलती ये हुई कि आंदोलन को कांग्रेस समर्थित बताकर सरकार ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। कांग्रेस ने भी इसका पूरा राजनीतिक फ़ायदा उठाने में देर नहीं की। राहुल गांधी की मंदसौर आने की खबर ने कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया। इस आंदोलन से सरकार और भाजपा को जो  नुकसान हुआ है, उसकी जल्दी पूर्ति होना संभव नहीं लगता!

   राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो किसान आंदोलन से भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ! किसानों में ये संदेश गया कि सरकार किसानों के हित में कदम नहीं उठा रही, इसलिए उन्हें सड़क पर आना पड़ा! जिन किसानों ने दूध और सब्जी शहरों तक लाने की कोशिश की उनका नुकसान किया गया, मारा पीटा गया। ये सब करने वाले क्या किसान थे? सड़क पर दंगाइयों जैसा व्यवहार करने वाले कथित किसानों के गले में केशरिया दुप्पटों से लोगों ने समझा कि किसानों को रोकने वाले और उनका नुकसान करने वाले भाजपा के लोग हैं! हर नजरिए से ये आंदोलन भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ? पश्चिमी मध्यप्रदेश में जहाँ-जहाँ किसान आंदोलन उग्र हुआ वहां माहौल भाजपा के खिलाफ बन गया! इसे भाजपा आसानी से स्वीकार नहीं करेगी, पर सच यही है। 
  जब किसी राजनीतिक पार्टी की कोई इकाई आंदोलन करती है, तो पार्टी के नफा-नुकसान का अंदाजा भी लगाया जाता है। लेकिन, इस आंदोलन को देखकर लगता नहीं कि भाजपा समर्थित किसान संगठन या भाजपा नेताओं ने ऐसी कोई रणनीति बनाई होगी। इस आंदोलन से न तो किसान संतुष्ट हैं न आम जनता! मंदसौर में जिस तरह किसानों पर गोली चलाई गई, उसने इस आंदोलन से निपटने के प्रति सरकार के रवैये को स्पष्ट कर दिया। सबसे दुखद पहलू ये रहा कि आंदोलन कर रहे किसानों के सीने पर गोलियां दागी गईं! उस पर भी शुरूआती बयान में गृह मंत्री का ये कहना कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई, आग में घी का काम कर गया। बाद में ये बात गलत साबित हुई और सरकार को भी मानना पड़ा कि किसानों को जो गोली लगी वो सरकारी थी। 
   इस पूरी घटना का सबसे दुखद पहलू ये भी है कि मुआवजा की घोषणा करने में सरकार बहुत ज्यादा जल्दबाजी दिखाई। मंदसौर गोलीकांड में मारे गए 6 किसानों को पहले 5 लाख के मुआवजे की घोषणा की गई, फिर 10 लाख की और बाद में एक करोड़ की! मुआवजे को लेकर ऐसा पहले भी हुआ है। किसी भी घटना में दर्ज एफआईआर की स्याही सूख भी नहीं पाती और सरकार मुआवजे का एलान कर देती है। इससे एक गलत संदेश ये भी जाता है कि सरकार की नजर में हर मौत कीमत सिर्फ मुआवजा है! सरकार का ये मरहम ही दर्द बनकर उभरा! बेहतर होता कि ये काम थोड़ा रूककर किया जाता। 
   सरकार से दूसरी गलती ये हुई कि आंदोलन के पीछे किसका दिमाग है, ये पता नहीं लगा पाई। स्पष्ट था कि ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त नहीं है। इसके पीछे कोई न कोई सुनियोजित रणनीति है। जब भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने मुख्यमंत्री के साथ बातचीत के बाद आंदोलन ख़त्म करने का फैसला कर लिया था तो आंदोलन के अगुआ भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ ने इसे स्वीकार नहीं किया? जबकि, इस बातचीत के बाद सरकार ने किसानों के पक्ष में कुछ घोषणाएं भी कर दी थी! सवाल खड़ा होता है कि क्या सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि बातचीत के लिए पात्र संगठन या नेता कौन है, जिससे बातचीत करके समस्या का निराकरण किया जाए? इसे साफ़-साफ़ नौकरशाही की असफलता ही माना जाएगा कि उन्होंने मुख्यमंत्री से बातचीत के लिए अपात्र संगठन को चुना! 
  मध्यप्रदेश को पांच बार सर्वाधिक उत्पादन के लिए 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड मिल चुका है। लेकिन, कर्जे में डूबे यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। आज किसान परेशानियों से जूझ रहे हैं। उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिल रहा। बाजार में मिलने वाले बीज घटिया हैं, जो पर्याप्त उपज नहीं देते! फसल पर कीटों का हमला हो तो किसान जो कीटनाशक इस्तेमाल करता है, वो भी नकली होता है। कृषि विभाग ने घटिया बीज और नकली दवाओं की धरपकड़ के लिए दस्ते तो बना दिए, पर वे चौथ वसूली में ही ज्यादा व्यस्त नजर आते हैं। कर्ज़ लेने के बाद जब किसान उपज लेकर मंडी पहुंचता हैं तो वहां मंडीकर्मियों और व्यापारियों का काकस उसका शोषण करने से बाज नहीं आता! ऐसे में किसानों को औने-पोने दाम पर अपनी फसल बेचने पर विवश होना पड़ता है। कड़ी मेहनत के बाद भी किसान को हमेशा कर्ज़ का बोझ सताता है, तो उसके सामने आत्महत्या का ही रास्ता बचता है! कहीं न कहीं ये वो कारण हैं जिन्होंने किसानों को सड़क पर आने के लिए मजबूर किया!
   किसान आंदोलन का सबसे अहम राजनीतिक पहलू ये है कि इसने मरणासन्न कांग्रेस को फिर जिंदा कर दिया। तीन दिन बाद किसानों ने आंदोलन को उग्र किया तो सरकार सकते में आ गई! वो समझ नहीं पाई कि नेतृत्वहीन लग रहा आंदोलन इतना प्रभावी कैसे हो गया? बस यहीं सरकार से गलती हुई और आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का दावा कर दिया गया! किसानों का जो आंदोलन पहली जून से शुरु हुआ था और इसमें राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ मुख्य रूप से शामिल था। बाद में किसानों के अन्य संघठन भी जुड़ गए। तीन दिन बाद जब आंदोलन का असर दिखने लगा, तो सरकार की भी नींद टूटी! मुख्यमंत्री ने चौथे दिन भारतीय किसान संघ को समझा-बुझाकर आंदोलन खत्म करवा दिया। तब तक कांग्रेस कहीं नहीं थी। लेकिन, जब उज्जैन-वार्ता फेल हो गई और आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया तो सारा दोष कांग्रेस पर जड़ दिया गया! 
  यहाँ सरकार की राजनीतिक सोच फेल हो गई! क्योंकि, जिस आंदोलन से कांग्रेस का कोई सरोकार ही नहीं था, वो बैठे-ठाले कांग्रेस के हाथ आ गया। रातों-रात कांग्रेस ने अपने मोहरे जमाए और सूत्र अपने हाथ ले लिए। मंदसौर घटना के बाद तो जहाँ भी आंदोलन हुआ कांग्रेस का तिरंगा लहराता दिखा। जबकि, इससे पहले सड़कों पर किसानों की सब्जियाँ फैंकने, कुचलने और दूध उंडेलने वालों में केशरिया दुपट्टाधारी ही नजर आए! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान सामने आ गए। राहुल गांधी की मंदसौर आने की राजनीति ने तो मानों इस बात पर मोहर ही लगा दी कि ये आंदोलन उनका ही खड़ा किया है।   
  इस किसान आंदोलन ने मध्यप्रदेश को ऐसा दर्द दिया है, जिसका सही इलाज करने में बरसों लग जाएंगे! इस आंदोलन ने लोगों को परेशान किया। दूध और सब्जियां बाजार से गायब हो गई! लोग बूंद-बूंद दूध को तरस गए। जिसने दूध लाकर बेचने की कोशिश की, उसका नुकसान किया गया। दूध की कैन सड़क पर उंडेल दी गई! सब्जियों को कुचल दिया गया! एक तरफ लोग दूध और सब्जी के लिए परेशान है दूसरी तरफ ये सड़क पर बिखरा पड़ा है। मुद्दा ये है कि किसान कौन हैं? जो दूध, सब्जी लाकर बेचने की कोशिश कर रहे हैं वे किसान हैं या वे किसान हैं जो इन्हें फैंक रहे हैं? केशरिया दुपट्टे डालकर सडकों पर अराजकता फैलाने वाले कथित आंदोलनकारी क्या भाजपा के लोग हैं? यदि आंदोलनकारी भाजपाई हैं तो किसानों के संगठन कहाँ हैं? क्या कारण है कि किसान ही किसान खिलाफ क्यों खड़े हो गए? 
   सवाल उठता है कि यदि ये किसानों का आंदोलन है, तो बाजार में दूध और सब्जी लाने की कोशिश कौन कर रहा है? जो ला रहे हैं क्या वे किसान नहीं हैं? क्या किसानों के दो धड़े क्यों बन गए? किसानों का नुकसान करने वाले आंदोलनकारी क्या वास्तव में किसान हैं? ये सवाल इसलिए उठा क्योंकि किसान ही किसान का नुकसान तो नहीं करेंगे! लेकिन, जो आंदोलनकारी सड़क पर उत्पात मचा रहे हैं उनके गले में पड़े केशरिया दुपट्टे कुछ और ही इशारा करते हैं। शुरूआती तीन दिनों में मीडिया ने जो भी दिखाया उसे देखकर नहीं लगता कि सभी आंदोलनकारी वास्तव में किसान हैं।  
  अपनी उपज की सही कीमत न मिलने पर मध्यप्रदेश में चल रहे किसानों के विरोध से सबसे ज्यादा पश्चिमी मध्यप्रदेश प्रभावित हुआ है। यही वो इलाका है जिसे भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है! इस आंदोलन के दौरान इंदौर, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, खंडवा, मंदसौर और धार जिले भारी उत्पात हुआ। मंदसौर में जो कुछ घटा उसे सारा देश जान गया! धार जिले के सरदारपुर में तोड़फोड़, मारपीट और आगजनी की घटनाएं हुईं! उज्जैन और इंदौर में सडकों पर दूध उंडेला गया और सब्जियां कुचल डाली। धार के सरदारपुर में व्यापारियों और किसान हिंसक संघर्ष हो गया। कई वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। कई लोग घायल भी हो गए। इंदौर-भोपाल रोड अराजकता की भेंट चढ़ गया। करीब 200 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। मुद्दा ये है कि यह सब क्यों घटा? इसका जवाब कहीं न कहीं सरकार की रणनीतिक असफलता में ही छुपा है। क्योंकि, जब बातचीत के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का सबसे सही तरीका यही है जो किसानों ने अपनाया।
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