- हेमंत पाल
इन दिनों चारों तरफ किसान-आंदोलन का हल्ला गूंज रहा है। देश का पेट भरने वाला किसान आज खुद भूखा है। उसे अपनी मेहनत की सही कीमत नहीं मिल रही। लेकिन, किसान की ये पीड़ा आज की नहीं है। हिंदी सिनेमा ने बरसों पहले ही किसान के इस दर्द को पहचान लिया था। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ के जरिए देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग ‘जमीन चले जाने पर किसानों का सत्यानाश हो जाता है।' ये बात भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों की पीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता है। ये पहली भारतीय फिल्म थी, जो 'कॉन फिल्म समारोह' में पुरस्कृत हुई थी।
सिनेमा में बाजारीकरण की सबसे ज्यादा मार किसानों पर ही पड़ी है। शहरों को ध्यान में रखकर ही फिल्में बनाई जा रही या फिर ऐसी फिल्में बन रही जिनका कोई मकसद ही नहीं होता। जहाँ तक किसानों पर फ़िल्में बनाने की बात है तो बिमल रॉय, गुरु दत्त, महबूब खान और वी शांताराम जैसे फिल्मकारों ने गांव और किसानों पर ही ज्यादा फिल्में बनाई है। आजादी से पहले और उसके बाद लम्बे समय तक सिनेमा में गाँव की समस्याएं और किसान का दर्द प्रमुख विषय बना रहा। कई फिल्में इस दौर में बनीं। ‘हीरा मोती’ में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! ‘गोदान’ के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। गंगा-जमुना, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान से ‘लगान’ तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही।
अब तो किसान का दर्द भी मसाला बन गया! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में किसानों को केंद्रीय पात्र बनाकर कई फ़िल्में बनी। लेकिन, किसान को समृद्ध कम ही बताया गया। वास्तविक किसान की तरह फ़िल्मी भी साहूकार के कर्ज में डूबा रहा। अपना कर्ज वसूलने के लिए साहूकार के गुंडे कभी किसान की खड़ी फसल में आग लगा देते तो कभी उसकी बेटी को उठा ले जाते थे। यही पटकथा लम्बे समय घुमा फिराकर दिखाई जाती रही!
किसानों पर बनी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' के बाद महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ को मील का पत्थर माना जाता है। इसमें एक विधवा औरत के अपनी जमीन के लिए संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी फिल्माई गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द दुनिया को दिखाया। आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘लगान’ में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। ‘मदर इंडिया’ के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी। आशय यह कि वास्तविक किसान और फिल्मीं किसान दोनों ही आजादी के सात दशक बाद भी उबर नहीं सके हैं।
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इन दिनों चारों तरफ किसान-आंदोलन का हल्ला गूंज रहा है। देश का पेट भरने वाला किसान आज खुद भूखा है। उसे अपनी मेहनत की सही कीमत नहीं मिल रही। लेकिन, किसान की ये पीड़ा आज की नहीं है। हिंदी सिनेमा ने बरसों पहले ही किसान के इस दर्द को पहचान लिया था। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ के जरिए देश में किसानों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया। फिल्म में अभिनेता बलराज साहनी का डायलॉग ‘जमीन चले जाने पर किसानों का सत्यानाश हो जाता है।' ये बात भूमि अधिग्रहण की मार झेल रहे किसानों की पीड़ा को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करता है। ये पहली भारतीय फिल्म थी, जो 'कॉन फिल्म समारोह' में पुरस्कृत हुई थी।
सिनेमा में बाजारीकरण की सबसे ज्यादा मार किसानों पर ही पड़ी है। शहरों को ध्यान में रखकर ही फिल्में बनाई जा रही या फिर ऐसी फिल्में बन रही जिनका कोई मकसद ही नहीं होता। जहाँ तक किसानों पर फ़िल्में बनाने की बात है तो बिमल रॉय, गुरु दत्त, महबूब खान और वी शांताराम जैसे फिल्मकारों ने गांव और किसानों पर ही ज्यादा फिल्में बनाई है। आजादी से पहले और उसके बाद लम्बे समय तक सिनेमा में गाँव की समस्याएं और किसान का दर्द प्रमुख विषय बना रहा। कई फिल्में इस दौर में बनीं। ‘हीरा मोती’ में फिल्मकार ने सामंती शोषण के इसी चक्र के खिलाफ आवाज उठाई थी। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘किसान कन्या’ पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘धरती के लाल’ बनाई! ‘गोदान’ के बाद यदि किसानों की व्यथा कहीं अपने भयावह रूप में सामने आई, तो वह इस फिल्म में देखने को मिली थी। गंगा-जमुना, मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, उपकार, खानदान से ‘लगान’ तक सिनेमा में किसान की जिंदगी फिल्माई जाती रही।
अब तो किसान का दर्द भी मसाला बन गया! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में किसानों को केंद्रीय पात्र बनाकर कई फ़िल्में बनी। लेकिन, किसान को समृद्ध कम ही बताया गया। वास्तविक किसान की तरह फ़िल्मी भी साहूकार के कर्ज में डूबा रहा। अपना कर्ज वसूलने के लिए साहूकार के गुंडे कभी किसान की खड़ी फसल में आग लगा देते तो कभी उसकी बेटी को उठा ले जाते थे। यही पटकथा लम्बे समय घुमा फिराकर दिखाई जाती रही!
किसानों पर बनी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' के बाद महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ को मील का पत्थर माना जाता है। इसमें एक विधवा औरत के अपनी जमीन के लिए संघर्ष और त्रासदी की महागाथा थी। फिल्म में गाँव की महाजनी सभ्यता की क्रूरता और अत्याचार से लड़ती औरत की मार्मिक कहानी फिल्माई गई थी। बाबूराव पेंटर की ‘साहूकारी पाश’ भी इसी तरह की ग्रामीण फिल्म थी! सत्यजित रे ने ‘पाथेर पांचाली’ बनाकर गांव और किसान के दर्द दुनिया को दिखाया। आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘लगान’ में विक्टोरिया युग के औपनिवेशिक भारत में जारी लगान प्रथा का कथानक था। इसके माध्यम से आशुतोष ने गुलाम भारत में लगान व्यवस्था से त्रस्त किसान की विवशता का चित्रण करने की कोशिश की थी। ‘मदर इंडिया’ के बाद यह फिल्म ऑस्कर अवार्ड के लिए भारत से विदेशी फिल्म श्रेणी में भी नामित की गई थी। आशय यह कि वास्तविक किसान और फिल्मीं किसान दोनों ही आजादी के सात दशक बाद भी उबर नहीं सके हैं।
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