Saturday, June 17, 2017

सुलझने की कोशिश में ही ज्यादा उलझी सरकार!


    राजनीति कभी-कभी अचानक ऐसे करवट बदलती है कि सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। ये मध्यप्रदेश में पिछले दिनों जो कुछ घटा उसे देख और समझकर समझा जा सकता है। ये सारी घटनाएं राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए केस स्टडी भी हो सकती है। राज्य सरकार जिस किसान आंदोलन को अदना सा संकट समझ रही थी, उस आंदोलन की विकरालता ने सरकार की चूलें हिला दी! जो भाजपा सरकार संवेदनशीलता मामले में तेरह साल में जनता के दिल में जगह बना चुकी थी उसे जनता ने सबसे ज्यादा असंवेदनशील समझने में तेरह मिनट नहीं लगाए! दस दिन के इस किसान आंदोलन में क्या कुछ नहीं घटा! इसमें किसी मसाला फिल्म की तरह एडवेंचर भी था, एक्शन भी, ड्रामा भी, थ्रिल भी और इमोशन भी! लेकिन, फिल्म का अंत इतना नाटकीय होगा ये किसी ने सोचा नहीं था। जो कांग्रेस तेरह साल से प्रदेश की राजनीति में गेस्ट एपीयरेन्स जैसे रोल में थी, उसका रोल अहम बनकर उभर आया। इतने पर भी अभी सरकार की उलझन खत्म नहीं हुई! मामले को सुलझाने की कोशिश में सरकार जिस तरह उलझती गई, उसने प्रदेश की भाजपा राजनीति को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। 
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 - हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश में जिस तरह का घटनाक्रम घटा वो पूरी तरह अनपेक्षित था। किसानों का सामान्य समझा जाने वाला आंदोलन इतना उग्र हो जाएगा! उसकी उग्रता सरकार को हिला देगी, ये शायद कभी सोचा नहीं गया होगा! ये भी उसी अनपेक्षित पटकथा का हिस्सा रहा कि हाशिये पर पड़ी कांग्रेस अचानक लाइम लाइट में आ गई। तेरह साल तक सफल मुख्यमंत्री कहे जाने वाले शिवराज सिंह चौहान सबके निशाने पर थे। जो मीडिया और सोशल मीडिया भाजपा और प्रदेश सरकार के गुणगान करते थकता था, वहाँ नकारात्मकता की बाढ़ आ गई! सरकार के सारे मीडिया मैनेजर इस बदलाव को मैनेज करने में फेल हो गए! वे समझ ही नहीं सके कि सरकार विरोधी ख़बरों और कमेंट्स कहाँ से बरस पड़े? सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात ये समझी जाना चाहिए कि जिन्हें सरकार और भाजपा का सपोर्टर माना जाता था वो सारे मीडियामेन गायब नजर आए!  
  ध्यान देने वाली बात है कि ये तात्कालिक घटना पर लोगों की सहज प्रतिक्रिया थी या पहले से लोगों के दिलों में भरे गुस्से का निस्तार था? क्योंकि, जो हुआ उसमें किसानों के साथ आम लोगों की मानसिकता को समझने में भी सरकार फेल ही रही! एक मुद्दे को सहेजने की कोशिश में सरकार से बार-बार गलतियां हुई! किसान सिर्फ किसान थे, ये सोच भी कहीं न कहीं गलत साबित हुई! मंदसौर की घटना के बाद भी सरकार ने जो फैसले लिए वो भी ऐसे नहीं थे, जो मसले का निराकरण करते दिखाई दिए! शुरूआती तीन दिन कथित किसान आंदोलनकारियों ने बहुत नुकसान किया! मीडिया में जो छपा उससे ये संदेश गया कि नुकसान करने वाले आंदोलनकारी भाजपा से जुड़े लोग हैं। उनके गले में डले केशरिया दुपट्टे इसकी चुगली कर रहे थे। लोगों का इस सबसे ध्यान हटाने के लिए कांग्रेस पर ठीकरा क्या फोड़ा, सरकार के सामने नई मुसीबत खड़ी हो गई! कांग्रेस को आंदोलन से जोड़ने से कांग्रेस खलनायक बनने के बजाए हीरो बन गई! भाजपा जैसी पार्टी इसका पूर्वानुमान नहीं लगा सकी, ये समझने वाली बात है!      
   कांग्रेस जो एक दशक से नेपथ्य में चली गई थी, अचानक सामने आ गई! जिस किसान आंदोलन से उसका कोई वास्ता नहीं था, वो मुद्दा उसके हाथ आ गया और उसने उसका पूरा फ़ायदा उठाने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी! राहुल गाँधी का मंदसौर आने की कोशिश करने की भाजपाई सोशल मीडिया मैनेजर जितनी भी खिल्ली उड़ाने की कोशिश करें, पर सच ये है कि कांग्रेस को राहुल के इस कदम से जो सहानुभूति मिलना थी, वो तो मिल गई! इसके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बचा खुचा मैदान मार लिया! विदेश से अचानक भारत आकर सिंधिया ने मुद्दे को जिस तरह हेंडल किया, वो इस बात संकेत भी है कि पार्टी ने सिंधिया को मध्यप्रदेश की कोई बड़ी जिम्मेदारी देने का फैसला किया है। उन्हें मंदसौर जाने से रोकने की सरकारी कोशिशों से भी गलत संदेश गया है। इससे ये लगा कि सरकार कुछ छुपाना चाहती है। इसके बाद मुख्यमंत्री के 27 घंटे के उपवास का जवाब देने के लिए सिंधिया का 72 घंटे का सत्याग्रह कहीं ज्यादा कामयाब रहा, इस सच को साबित करने जरुरत शायद नहीं है।    
  जो कांग्रेस अभी तक तीन-चार क्षत्रपों में बंटकर आपस में ही तलवार भांज रही थी, वो अचानक राजनीतिक अस्त्र-शास्त्रों से लेस सेना की शक्ल में सामने आ गई! कांग्रेसी नेताओं के चेहरे अचानक चमक उठे! जिस पार्टी के पास अगले चुनाव में उतरने के लिए कोई मुद्दा नहीं था! शिवराज सिंह को चुनौती देने का मौका नहीं मिल रहा था, उस कांग्रेस ने बराबरी की लड़ाई की तैयारी कर ली! इसी सब का नतीजा है कि शुरू के तीन दिन जिस किसान आंदोलन में केशरिया दुपट्टे नजर आ रहे थे, वहां बाद में कांग्रेस का तिरंगा कैसे लहराने लगा? भाजपा और सरकार के लिए ये सोच और चिंतन का विषय है कि उससे कहाँ, कब और कैसी गलती हुई? क्योंकि, ये तो सर्वमान्य सत्य है कि यदि कांग्रेस को आंदोलन से जुड़ा नहीं बताया जाता तो ये पार्टी कहीं आसपास भी नहीं थी! लेकिन, भाजपा को हुए इस खामियाजे की भरपाई कैसे हो ये लाख टेक का सवाल है!
  किसानों को साधने की कोशिश में कांग्रेस को तो सरकार ने संजीवनी बूटी दे ही दी, उधर व्यापारियों को भी नाराज कर दिया! समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के मुद्दे पर मुख्यमंत्री ने व्यापारियों पर आपराधिक मामले दर्ज करने की धमकी क्या दी, एक नया बवाल खड़ा गया! अफसर भी सकते में आ गए कि मुख्यमंत्री की इस बात का क्या मतलब निकाला जाए? क्योंकि, समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद सरकार की जिम्मेदारी है न कि व्यापारियों की! मुख्यमंत्री की इस धमकी से नाराज व्यापारी भी अब सड़क पर आ गए! अब भाजपा और पार्टी के लिए सही रास्ता तो ये होगा कि वो किसान आंदोलन के संदर्भ में आत्मलोचन करे कि उसे क्या नहीं करना था जो उसने किया? उपवास करने के मुख्यमंत्री का फैसले को भी इसी संदर्भ परखा जाना चाहिए! क्योंकि, सवाल उठ रहे हैं कि उपवास किया क्यों गया और उसे खत्म क्यों किया? इस उपवास की उपलब्धि क्या रही? इस सारे झमेले के बाद भाजपा के लिए आगे की राह आसान नहीं है। बेहतर होगा कि संभलकर चला जाए, क्योंकि सुलझने की कोशिश में जितना उलझना था वो सब हो चुका! 
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