- हेमंत पाल
इस सम्मेलन को विपक्ष की एकता जैसा कोई प्रपंच समझना फिलहाल जल्दबाजी होगी! मंच पर भले ही कांग्रेस, जनता दल-यू, सीपीआई और एनसीपी समेत 9 पार्टियों के नेता थे, पर सबकी अपनी अलग विचारधारा, प्रतिबद्धताएं और दूरियां स्पष्ट नजर आई। मुद्दे की बात तो ये थी कि कांग्रेस ही मंच पर अधूरी दिखी! कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव तो मंच पर थे, पर कांग्रेस के दो गुटों ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ का प्रतिनिधित्व नदारद था। यदि कांग्रेस जैसी पार्टी ही अपने पूरे स्वरुप में मौजूद नहीं है, तो कैसे मान लें कि वो इस विपक्षी एकता के प्रति गंभीर है! इस सम्मेलन में सबसे ज्यादा कार्यकर्ता भी कांग्रेस के ही थे और दावे से कहा जा सकता है कि उनमें भी ज्यादातर दिग्विजय सिंह के समर्थक थे।
इस 'सांझी विरासत सम्मेलन' में सांझी बात सिर्फ ये थी कि ये सभी पार्टियाँ पिछले तीन सालों में कभी न कभी भाजपा से बुरी तरह आहत हुई हैं। कांग्रेस को जो नुकसान हुआ, वो किसी से छुपा नहीं है। जबकि, बिहार में पिछले दिनों जो घटा उसने जनता दल (यू) कमर तोड़ दी। इसके पीछे भी भाजपा ही रही। इसीलिए ये राजनीतिक फार्मूला भी शरद यादव ने ही निकाला, जो बिहार में महागठबंधन से नितीश कुमार के बाहर निकल जाने और भाजपा के साथ सरकार बनाने से प्रभावित हुए हैं। यही कारण है कि शरद यादव भाजपा के विरोध में सभी विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर लाने की कोशिश में लगे हैं। प्रयास किया जा रहा है कि इंदौर के बाद ऐसे राजनीतिक जमावड़े और भी शहरों में हों।
इस पूरे आयोजन में विपक्ष को एक करने जैसी कोई पहल नजर नहीं आई! मंच पर मौजूद सभी नेताओं ने भाजपा को कोसने के अलावा कोई नया रास्ता बनाने की बात नहीं की! दिग्विजय सिंह ने भाजपा और संघ से निपटने के लिए विपक्ष को बचाने की जरुरत का बखान किया। उनका कहना था कि गांधीजी की हत्या करने वाली विचारधारा विविधता में एकता के सिद्धांत को खंडित कर रही है। उनका ये भी कहना था कि विपक्ष की एकता की ये सांझी विरासत अब रुकना नहीं चाहिए। शरद यादव ने भाजपा की धर्म आधारित राजनीति को कोसते हुए कहा कि देश में आस्था के नाम पर हत्याओं का दौर चल रहा है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मंच से इसका विरोध जरूर करते हैं, पर हिंसा तब भी नहीं रूकती! माकपा के सीताराम येचुरी चुनावी राजनीति से ज्यादा विपक्ष की सांझी विरासत को बचाने के पक्षधर दिखे।
कहने को भले ही ये देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों का जमघट था, पर दिखावा कुछ ज्यादा ही था। मंच एक था, पर बंटा हुआ। इस आयोजन का एजेंडा संघ और भाजपा के खिलाफ एक साझा गठजोड़ बनाना था, पर ये महज भाषणों तक सीमित होकर रह गया। मंच से जो एक स्वर निकलना था वो भी नदारद ही रहा। ऐसे में दावे से नहीं कहा जा सकता कि इस 'सांझी विरासत' से विपक्ष कुछ हांसिल भी कर पाएगा! इसका सबसे बड़ा कारण नेताओं का अहंकार समझा जा सकता है। बॉडी लैंग्वेज के नजरिए से देखा जाए तो सभी नेताओं में जो सामंजस्य दिखाई देना था, उसका अभाव रहा। जो इस सम्मेलन के मूल मकसद से अलग था। आनंद शर्मा के भाषण के दौरान दिग्विजय सिंह का मोबाइल में व्यस्त होना और सम्मेलन के बीच से सीताराम येचुरी का उठकर चले जाना अच्छा संदेश नहीं माना जा सकता। जिस गर्मजोशी और भाजपा पर आक्रमण की उम्मीद की गई थी, वो किसी भी नेता के भाषण नहीं आई! लगा कि सबकुछ बहुत औपचारिक सा था।
राजनीतिक आयोजनों सफलता का सबसे बड़ा मापदंड वहां उमड़ने वाली भीड़ है। लेकिन, यहाँ आयोजन स्थल का बड़ा हिस्सा खाली ही रहा! इस सच्चाई को भी छुपाने की कोशिश करते हुए कहा गया कि वास्तव में ये वैचारिक चिंतन था कोई राजनीतिक रैली नहीं जिसमें भीड़ इकट्ठा करके अपना प्रभाव दिखाया जाए। लेकिन, लोग आज इतने जागरूक हैं कि वे इस तरह की भरमाने वाली बातों में नहीं आते! उन्हें पता है कि 9 पार्टियों के नेताओं के एक मंच पर आने के बाद भी कार्यकर्ताओं का अभाव क्या इशारा करता है। फिर यदि ये सिर्फ वैचारिक चिंतन ही था तो सार्वजनिक मंच की भी जरुरत क्यों पड़ी? किसी बंद कमरे में बैठकर भी चिंतन करके रणनीति बनाई जा सकती थी। तब शायद ये सभी नेता कोई गंभीर वैचारिक मंथन कर पाते जो विपक्ष की एकता को ज्यादा मजबूती देता। शरद यादव की ये कोशिश कितनी सफल हो पाती है, इस बारे में दावे से इसलिए नहीं कहा जा सकता कि जो खुद अपनी पार्टी को संवारकर नहीं रख सके वे विपक्ष को कैसे समेट सकेंगे! शरद यादव के लिए मेंढक तौलना शायद आसान हो, पर अलग-अलग सोच वाले इतने सारे नेताओं को एकसाथ रख पाना शायद मुमकिन नहीं होगा।
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चुनाव की नजदीकी अकसर राजनीतिक पार्टियों को आत्मचिंतन या गठजोड़ बनाने के लिए मजबूर करती है। ऐसे समय में सभी पार्टियों के नेता कुछ हद तक अपना अहम् छोड़कर राजनीतिक फायदे और नुकसान का आकलन करने लगते हैं। कारण कि यदि उन्हें भी अपना वजूद कायम रखना है तो पार्टी का झंडा तो ऊँचा रखना ही पड़ेगा! समर्थकों के साथ कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाकर ये भी दिखाना पड़ेगा कि वे बड़े नेता हैं और राजनीति की धुरी उनके आसपास ही घूमती है। इंदौर में 'सांझी विरासत सम्मेलन' के बहाने गैर-भाजपा पार्टियों का एक मंच पर आना कुछ इसी तरह की कोशिश थी। ये आयोजन कांग्रेस समेत ये उन छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं का जमघट था, जिन्हें भाजपा ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है! लेकिन, एक मंच पर आकर भी अलग-अलग पार्टियों के नेताओं के दिल नहीं मिले! न तो कार्यकर्ताओं ने इसे स्वीकार किया न जनता ने, जिनके लिए ये कोशिश की गई थी।
गैर-भाजपा पार्टियों को अपनी राजनीतिक एकता दर्शाने के लिए 'सांझी विरासत' जैसा सम्मेलन करने की जरुरत क्यों पड़ी, सबसे बड़ा सवाल तो यही है! यदि बिहार में नीतिश कुमार पाला बदलकर भाजपा की ढपली नहीं बजाते, तो क्या शरद यादव इस तरह का कोई प्रयास करते? शरद यादव ने भले ही अपनी राजनीति छात्र नेता के रूप में की हो, पर राष्ट्रीय राजनीति में उन्हें सामंजस्य बैठाकर साथ चलने वाला नेता कभी नहीं माना गया! वे हद दर्जे के चिड़चिड़े और एकालाप वाले नेता रहे हैं। नीतिश कुमार के उनसे अलग होने का कारण भी इस सबसे अलग नहीं है। वे राजनीतिक परिस्थितियों को समझे बगैर अपनी मर्जी थोपने के लिए जाने जाते हैं। इंदौर में हुए 'सांझी विरासत सम्मेलन' के सूत्रधार वे ही थे। कहा जा रहा है कि अब इस तरह के सम्मेलन देशभर में होंगे। लेकिन, ये निष्कर्ष सामने नहीं आया कि एक मंच पर इकट्ठा हुए ये नेता क्या चुनाव में भी साथ में दिखाई देंगे या अलग-अलग राग अलापेंगे?इस सम्मेलन को विपक्ष की एकता जैसा कोई प्रपंच समझना फिलहाल जल्दबाजी होगी! मंच पर भले ही कांग्रेस, जनता दल-यू, सीपीआई और एनसीपी समेत 9 पार्टियों के नेता थे, पर सबकी अपनी अलग विचारधारा, प्रतिबद्धताएं और दूरियां स्पष्ट नजर आई। मुद्दे की बात तो ये थी कि कांग्रेस ही मंच पर अधूरी दिखी! कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव तो मंच पर थे, पर कांग्रेस के दो गुटों ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ का प्रतिनिधित्व नदारद था। यदि कांग्रेस जैसी पार्टी ही अपने पूरे स्वरुप में मौजूद नहीं है, तो कैसे मान लें कि वो इस विपक्षी एकता के प्रति गंभीर है! इस सम्मेलन में सबसे ज्यादा कार्यकर्ता भी कांग्रेस के ही थे और दावे से कहा जा सकता है कि उनमें भी ज्यादातर दिग्विजय सिंह के समर्थक थे।
इस 'सांझी विरासत सम्मेलन' में सांझी बात सिर्फ ये थी कि ये सभी पार्टियाँ पिछले तीन सालों में कभी न कभी भाजपा से बुरी तरह आहत हुई हैं। कांग्रेस को जो नुकसान हुआ, वो किसी से छुपा नहीं है। जबकि, बिहार में पिछले दिनों जो घटा उसने जनता दल (यू) कमर तोड़ दी। इसके पीछे भी भाजपा ही रही। इसीलिए ये राजनीतिक फार्मूला भी शरद यादव ने ही निकाला, जो बिहार में महागठबंधन से नितीश कुमार के बाहर निकल जाने और भाजपा के साथ सरकार बनाने से प्रभावित हुए हैं। यही कारण है कि शरद यादव भाजपा के विरोध में सभी विपक्षी पार्टियों को एक मंच पर लाने की कोशिश में लगे हैं। प्रयास किया जा रहा है कि इंदौर के बाद ऐसे राजनीतिक जमावड़े और भी शहरों में हों।
इस पूरे आयोजन में विपक्ष को एक करने जैसी कोई पहल नजर नहीं आई! मंच पर मौजूद सभी नेताओं ने भाजपा को कोसने के अलावा कोई नया रास्ता बनाने की बात नहीं की! दिग्विजय सिंह ने भाजपा और संघ से निपटने के लिए विपक्ष को बचाने की जरुरत का बखान किया। उनका कहना था कि गांधीजी की हत्या करने वाली विचारधारा विविधता में एकता के सिद्धांत को खंडित कर रही है। उनका ये भी कहना था कि विपक्ष की एकता की ये सांझी विरासत अब रुकना नहीं चाहिए। शरद यादव ने भाजपा की धर्म आधारित राजनीति को कोसते हुए कहा कि देश में आस्था के नाम पर हत्याओं का दौर चल रहा है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मंच से इसका विरोध जरूर करते हैं, पर हिंसा तब भी नहीं रूकती! माकपा के सीताराम येचुरी चुनावी राजनीति से ज्यादा विपक्ष की सांझी विरासत को बचाने के पक्षधर दिखे।
कहने को भले ही ये देश के सभी प्रमुख विपक्षी दलों का जमघट था, पर दिखावा कुछ ज्यादा ही था। मंच एक था, पर बंटा हुआ। इस आयोजन का एजेंडा संघ और भाजपा के खिलाफ एक साझा गठजोड़ बनाना था, पर ये महज भाषणों तक सीमित होकर रह गया। मंच से जो एक स्वर निकलना था वो भी नदारद ही रहा। ऐसे में दावे से नहीं कहा जा सकता कि इस 'सांझी विरासत' से विपक्ष कुछ हांसिल भी कर पाएगा! इसका सबसे बड़ा कारण नेताओं का अहंकार समझा जा सकता है। बॉडी लैंग्वेज के नजरिए से देखा जाए तो सभी नेताओं में जो सामंजस्य दिखाई देना था, उसका अभाव रहा। जो इस सम्मेलन के मूल मकसद से अलग था। आनंद शर्मा के भाषण के दौरान दिग्विजय सिंह का मोबाइल में व्यस्त होना और सम्मेलन के बीच से सीताराम येचुरी का उठकर चले जाना अच्छा संदेश नहीं माना जा सकता। जिस गर्मजोशी और भाजपा पर आक्रमण की उम्मीद की गई थी, वो किसी भी नेता के भाषण नहीं आई! लगा कि सबकुछ बहुत औपचारिक सा था।
राजनीतिक आयोजनों सफलता का सबसे बड़ा मापदंड वहां उमड़ने वाली भीड़ है। लेकिन, यहाँ आयोजन स्थल का बड़ा हिस्सा खाली ही रहा! इस सच्चाई को भी छुपाने की कोशिश करते हुए कहा गया कि वास्तव में ये वैचारिक चिंतन था कोई राजनीतिक रैली नहीं जिसमें भीड़ इकट्ठा करके अपना प्रभाव दिखाया जाए। लेकिन, लोग आज इतने जागरूक हैं कि वे इस तरह की भरमाने वाली बातों में नहीं आते! उन्हें पता है कि 9 पार्टियों के नेताओं के एक मंच पर आने के बाद भी कार्यकर्ताओं का अभाव क्या इशारा करता है। फिर यदि ये सिर्फ वैचारिक चिंतन ही था तो सार्वजनिक मंच की भी जरुरत क्यों पड़ी? किसी बंद कमरे में बैठकर भी चिंतन करके रणनीति बनाई जा सकती थी। तब शायद ये सभी नेता कोई गंभीर वैचारिक मंथन कर पाते जो विपक्ष की एकता को ज्यादा मजबूती देता। शरद यादव की ये कोशिश कितनी सफल हो पाती है, इस बारे में दावे से इसलिए नहीं कहा जा सकता कि जो खुद अपनी पार्टी को संवारकर नहीं रख सके वे विपक्ष को कैसे समेट सकेंगे! शरद यादव के लिए मेंढक तौलना शायद आसान हो, पर अलग-अलग सोच वाले इतने सारे नेताओं को एकसाथ रख पाना शायद मुमकिन नहीं होगा।
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