Saturday, September 23, 2017

मध्यप्रदेश के चुनावी दंगल में इस बार भी दो ही दल!

- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश की राजनीति में बरसों से दो ही पार्टियों के बीच चुनावी मुकाबला होता रहा है। यहाँ कभी क्षैत्रीय पार्टी या तीसरे मोर्चा के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। पिछले करीब दो दशकों में कोई ग़ैर-कांग्रेसी या ग़ैर-भाजपा पार्टियां मिलकर भी कभी 20 से ज़्यादा सीटें नहीं ला पाई! जबकि, पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में कई ताकतवर क्षैत्रीय पार्टियों के कारण कई बार साझा सरकारें बन चुकी हैं! मध्यप्रदेश में कोई क्षेत्रीय पार्टी क्यों नहीं पनप सकी, इसका कारण यहाँ क्षेत्रीय पार्टियों की कमान किसी भरोसेमंद और अलग पहचान रखने वाले नेता के हाथ में न होना! इसके अलावा भौगोलिक स्थिति के साथ जातिगत समीकरणों को भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है। जबकि, यहाँ 70 के दशक में संविद सरकार जैसा असफल प्रयोग हो चुका है। अभी भी ऐसे कोई आसार नजर नहीं आते, कि मध्यप्रदेश में किसी क्षैत्रीय पार्टी को अपना प्रभाव दिखाने और सरकार बनाने का मौका मिल सकता है! 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी लगता नहीं कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा की और पार्टी अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराने में सफल होगी। 

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    मध्यप्रदेश में सत्ता की चाभी हमेशा ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इर्दगिर्द ही घूमती रही है। 1956 के बाद पहली बार सत्ता कांग्रेस के हाथ से आपातकाल के बाद 1977 में फिसली थी! 2003 से पहले तक राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकारें तो बनीं, पर पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई! 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि लगातार दूसरी बार सत्ता में भी आई! प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर-कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर बाकी गैर-कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई! इसलिए कि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का दामन थाम लिया।
   प्रदेश में कोई तीसरी पार्टी मतदाताओं के दिल में अपनी पैठ क्यों नहीं बना सकी? इस सवाल का एक जवाब ये भी माना जा सकता है कि जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी क्षेत्रीय पार्टी ने अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, पार्टी की कमान किसी ऐसे नेता के हाथ में रही जिसकी प्रदेश स्तर पर कोई अलग पहचान नहीं थी! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमान जिसे भी दी गई, उन्हें अपने इलाके से बाहर कोई जानता भी नहीं था! उमा भारती जरूर अकेली ऐसी नेता थी, जिसने 'भारतीय जनशक्ति पार्टी' अपने दम पर खड़ी की थी। लेकिन, उसके पीछे भाजपा को नुकसान पहुँचाना पहला मकसद था, न कि तीसरी ताकत बनने की कोई मंशा थी! अपनी पहचान को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत बनने का जो काम दक्षिणी राज्यों हुआ है, ऐसा कहीं और नहीं! करूणानिधि, जयललिता, एमजी रामचंद्रन, चिरंजीवी जैसे नेताओं के पीछे अपनी फ़िल्मी इमेज थी! इन लोगों ने अपने फैन्स को वोटरों में बदल देने का चमत्कार किया! उत्तरप्रदेश में यही काम मुलायमसिंह यादव और मायावती ने जातीय नेता बनकर किया! ठाकुरों और ब्राह्मणों को अपना दम दिखाने के लिए मुलायमसिंह यादव ने ओबीसी और मायावती ने निचली जातियों को समेटकर सत्ता पर कब्ज़ा किया! जबकि, मध्यप्रदेश में कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती!
    मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के अलावा और दलित वर्ग का वोट बैंक भी है! इस बात को ध्यान में रखकर ही आपातकाल के दौरान मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार और जबलपुर से सांसद रह चुके जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज की थी! लेकिन, बाद में उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई! क्योंकि, प्रदेश में समाजवादी तो है, किंतु उनके पास सक्षम नेतृत्व की कमी है! वहीं, कांग्रेस व भाजपा के अलावा अन्य किसी पार्टी के पास न तो असरदार संगठन है न मुखिया! प्रदेश में समाजवादियों की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों (तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था) में से 230 पर कब्जा जमाया था! इनमें जीतने वाले लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 85 के चुनाव गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने अलग-अलग झंडे थामकर चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन पार्टियों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हांसिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
  उत्तर प्रदेश में अपने जातीय समीकरणों के कारण राजनीतिक ताकत बनकर उभरी 'बहुजन समाज पार्टी' ने मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत के रूप में लोकसभा सीट जीतकर अपना खाता 1991 में एक सामान्य सीट से खोला! बसपा के भीम सिंह ने रीवा से कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों को हराकर लोकसभा में दाख़िला लिया था। इस प्रदर्शन में इज़ाफ़ा करते हुए 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने मध्यप्रदेश से दो सीटें जीत ली थीं। रीवा से बुद्धसेन पटेल ने चुनाव जीता, जबकि सतना से बसपा के सुखलाल कुशवाहा ने बाज़ी मारी। सुखलाल कुशवाहा के प्रदर्शन को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि हारने वालों में प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह और भाजपा के वीरेंद्र कुमार सकलेचा शामिल थे। इसके बाद बसपा ने प्रदेश में जनाधार बढ़ाने की कोशिशें की! इस दौरान बसपा पर यह आरोप भी लगा कि उसने कांग्रेस और भाजपा दोनों से सौदेबाजी करके कई स्थानों पर उम्मीदवार तक नहीं लड़ाए। इसके बाद भी बसपा का असर कम नहीं हुआ!
   इसके बाद उम्मीद की जाने लगी थी कि भविष्य के चुनाव में बुंदेलखंड और विंध्य प्रदेश की कुछ सीटों पर बसपा उम्मीदवार अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहेंगे! दलित मतदाता तो पार्टी से तो प्रभावित थे, लेकिन असरदार प्रत्याशी न होने से बड़ा चमत्कार नहीं हो सका! 2008 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 14. 05 प्रतिशत वोट के साथ 7 सीटें जीती थी! मूलतः उत्तरप्रदेश से उभरी ये पार्टी मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाके में अपना असर जरूर रखती है! लेकिन, पार्टी का ग्राफ अपने गृह प्रदेश में ही लगातार गिरता गया! उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी से हारने के बाद मायावती की इस पार्टी का आधार कमजोर हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा को 20% वोट तो मिले पर उसका एक भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हुआ!
    बसपा ने मध्यप्रदेश में भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातीय समीकरणों की 'सामाजिक समरसता' की मुहिम चलाई थी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे इलाकों बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल इलाके में मायावती का असर भी रहा है। इन इलाकों के अगड़े तबकों के नेता लंबे समय तक मायावती की चौखट पर हाजिरी बजाते रहे हैं। लेकिन, कभी लगा नहीं कि मायावती की बसपा मध्यप्रदेश में कोई राजनीतिक चमत्कार कर सकती है। मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी एक बार 8 विधानसभा सीटें जीतकर सदन में तीसरे नंबर पर थी। लेकिन, जल्दी ही उसके चार विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। समाजवादी पार्टी का 'यादव फार्मूला' जो उत्तरप्रदेश में कामयाब रहा, वो मध्यप्रदेश में नहीं चल सकता! इसका कारण ये भी है की अभी मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति का जहर लोगों के दिमाग तक नहीं चढ़ा है। आदिवासियों के नाम पर बनी 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' भी कमाल नहीं कर सकी! जबकि, आरक्षण विरोध लेकर बनी 'समानता दल' भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करके गायब हो गई।
  2003 में भाजपा को आसमान फाड़ बहुमत से सत्ता में लाने वाली उमा भारती भी क्षैत्रीय पार्टी बनाकर अपनी जातिवादी ताकत दिखाने का एक असफल प्रयोग कर चुकी है। उमा भारती ने 2008 में भारतीय जनशक्ति पार्टी (भाजश) बनाकर भाजपा को चुनौती दी थी! लोधी समाज की नेता होने के नाते उन्होंने असर भी दिखाया, पर वे भाजपा को अपनी जड़ों से हिलाने में सफल नहीं हो सकीं! प्रदेश की 89 सीटों पर लोधी समाज का असर है। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामकृष्ण कुसमारिया, जंयत मलैया, बृजेन्द्रसिंह, हरिशंकर खटीक, मुश्किल से अपनी सीट बचा सके थे। चंदला क्षेत्र से तो भाजपा के एक पूर्व मंत्री मात्र 958 मतों से जीते थे। इसी तरह टीकमगढ़, बड़ामलहरा और राजनगर में भाजपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का कारण भाजश प्रत्याशी ही थे। हालांकि, उमा भारती को भी टीकमगढ़ से हार का मुंह देखना पड़ा था। उमा की भाजश ने बड़ामलहरा, खरगापुर में जीत हांसिल की, वहीं टीकमगढ, जतारा, चंदला में उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। इसी तरह बंडा, महाराजपुर में भाजपा की हार का कारण भी भाजश को माना गया। सागर संभाग में भाजश को 12.37 प्रतिशत मत मिले थे, जिसमें छतरपुर जिले में 14.09, दमोह में 6.65, पन्ना में 18.24, सागर में 9.30 एवं टीकमगढ़ जिले में 16.66 प्रतिशत मिले थे।
  लोधी समाज की संख्या के आधार पर इनके चुनावी समीकरणों को उलटफेर करने के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्यप्रदेश में 89 विधानसभा क्षेत्रों पर इस समाज का असर है। लोधी समाज के प्रदेश में करीब 80 लाख मतदाता हैं। बालाघाट में सर्वाधिक संख्या लेाधी समाज की है, जो चुनावी हार-जीत में महत्वपूर्ण होते हैं। बुंदेलखंड की अधिकांश सीटों पर भी इस समाज का खास असर है। समाज की इस ताकत के बावजूद उमा भारती की मध्यप्रदेश में क्षैत्रीय पार्टी बनाकर राज करने की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई! इस बार लगा था कि 'आम आदमी पार्टी' कुछ कमाल करेगी, पर ऐसा नहीं होता दिखाई देता। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी उत्तरप्रदेश में अपनी खस्ता हालत होने के बाद मध्यप्रदेश में कहीं जोरदार ढंग से दिखाई देंगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है।  
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