- हेमंत पाल
राजनीति और मतभेद का चोली-दामन का साथ है। बिना मतभेद न कभी किसी की राजनीति चली है न चलेगी! इंदौर भी उससे अलहदा नहीं है। यहाँ भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में आंतरिक एकता और सामंजस्य का भारी अभाव है। ये स्थिति पार्टी तक सीमित रहती तो ठीक था, पर ये मतभेद धीरे-धीरे मनभेद की शक्ल में सड़क पर दिखाई देने लगते हैं। सत्ता में बैठी भाजपा के नेताओं में मतभेदों की अपनी मज़बूरी है, पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस में एकता की बहुत जरुरत है। फिर भी इन नेताओं में न तो आपसी सामंजस्य है और न इस बात की कोई संभावना ही नजर आ रही! भाजपा के नेताओं में मतभेद होने का सबसे बड़ा कारण अपना वर्चस्व बनाए रखना है। जिस तरह कांग्रेस गुटबाजी का दर्द झेल रही है, वही पीड़ा भाजपा में भी है। फर्क सिर्फ इतना कि कांग्रेस के विवाद जल्दी सड़क पर आ जाते हैं, जबकि भाजपा नेताओं की तनातनी की ख़बरें देर से रिसकर बाहर आती है। इंदौर की राजनीति का असर दूरगामी होता है इसलिए इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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इंदौर में 'ताई' यानी सांसद सुमित्रा महाजन और 'भाई' यानी कैलाश विजयवर्गीय के बीच तनातनी के किस्से बहुत पुराने हैं। ऐसे कई प्रसंग हैं, जब इन दोनों के बीच राजनीतिक छापामारी की जंग चली। ये जंग अभी बंद नहीं हुई, जो चल रहा है उसे युद्धविराम माना जा सकता है। लेकिन, अब इंदौर की भाजपा राजनीति में गुटबाजी और मतभेदों की नई कथा का वाचन होने लगा। इस कथा के प्रमुख पात्र हैं सांसद सुमित्रा महाजन और महापौर मालिनी गौड़! राजनीतिक अनुभव में क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक और इंदौर नगर निगम की महापौर मालिनी गौड़ और सांसद सुमित्रा महाजन में कोई साम्य नहीं है। लगातार 8 बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष महाजन उस कुर्सी पर हैं, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उन्हें सम्मान देना पड़ता है। लेकिन, स्वच्छता के मामले में इंदौर के देश में नम्बर होने से महापौर के तौर पर मालिनी गौड़ का रुतबा बढ़ गया। दिल्ली में भी उनका सिक्का चलने लगा। उनके बढ़ते क़दमों की आहट से सबसे ज्यादा प्रभावित यदि कोई हुआ तो वो सांसद महाजन ही हैं। क्योंकि, मालिनी गौड़ को अगले लोकसभा चुनाव में सांसद की कुर्सी का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। सुमित्रा महाजन ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही घोषणा कर दी थी कि वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी।
इन दोनों के बीच दूरियां इसलिए भी बढ़ी कि महापौर को मुख्यमंत्री खेमे का नेता समझा जाता है। लेकिन, दोनों महिला नेत्रियों के बीच तलवारें तब निकली जब देश में 'स्वच्छ इंदौर' का तमगा पाने के बाद होने वाले एक कार्यक्रम को लेकर दोनों ने अड़ंगेबाजी की। महापौर ने मुख्यमंत्री को स्वच्छ इंदौर पर आयोजित कार्यक्रम 'प्रणाम इंदौर' के लिए 17 मई आमंत्रित किया था। लेकिन, कार्यक्रम सांसद सुमित्रा महाजन ने निरस्त करवा दिया। इस कार्यक्रम के जरिए मालिनी गौड़ ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने अपनी ताकत दिखाने की पूरी तैयारी कर ली थी। जबकि, सांसद सुमित्रा महाजन ने तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू से बात करके उन्हें 5 जून को इंदौर आमंत्रित कर लिया था। सुमित्रा महाजन की योजना अपने इस कार्यक्रम में महापौर, निगम आयुक्त और उनकी पूरी टीम का सम्मान करना था। लेकिन, महापौर ने उनकी प्लानिंग बिगाड़ दी। स्थिति यहाँ तक आ गई कि मुख्यमंत्री को दखल देना पड़ा। अंततः नई तारीख तय की गई, लेकिन, जिस दिन कार्यक्रम होना तय हुआ था, उस दिन घनघोर बारिश हुई और कार्यक्रम नहीं हो पाया। यही कारण है कि इन सारे समीकरणों के बीच मालिनी गौड़ और सुमित्रा महाजन के बीच तालमेल गड़बड़ा गया।
इसके अलावा मतभेदों की एक इबारत सालभर पहले महापौर मालिनी गौड़ और क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला के बीच भी लिखी जा चुकी है। अभी भी ये मसला सुलझा नहीं है और इस पुराण का पाठ जारी है। नगर निगम के एक उपायुक्त के साथ क्षेत्र क्रमांक 2 के एक पार्षद समर्थक की मारपीट के बाद ये विवाद शुरू हुआ था। बाद में रमेश मेंदोला द्वारा महापौर को लिखे गए इस पत्र की वजह से यह विवाद और ज्यादा बढ़ा! इसमें ऐसा कुछ लिख दिया गया था, जो स्पष्ट करता था कि दोनों नेताओं के बीच किस तरह तलवारें खिंची हैं। पत्र पाने के बाद महापौर ने रमेश मेंदोला को जता भी दिया था कि शहर की जिम्मेदारी मुझ पर है, उन पर नहीं! यहाँ तक कहा था कि वे होते कौन हैं, ये सब बातें बोलने वाले। इसके अलावा क्षेत्र क्रमांक 1 के विधायक सुदर्शन गुप्ता और क्षेत्र क्रमांक 2 के नेताओं के बीच मतभेद जगजाहिर हैं और इसके पीछे प्रसंगों के कई अध्याय हैं।
अब बात की जाए इंदौर में कांग्रेस की थकी और चुकी राजनीति की! शहर में आज कांग्रेस की राजनीति का कोई नामलेवा नहीं बचा, फिर भी नेताओं का अहम् और मतभेदों के अध्याय कम नहीं हुए। अब तो हालत ये हो गई कि इंदौर में सारे कार्यकर्ता नेता बन गए। कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम में लगी कुर्सियों का भरना तक मुश्किल हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पीढ़ियां बदल जाने और एलईडी के ज़माने में भी पार्टी फ्यूज बल्बों से अपना घर रोशन करने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि दिमाग पर जोर डालने पर भी इंदौर की राजनीति में 5 ऐसे नेता याद नहीं आते जो नई पीढ़ी से उभरे हों! आज भी पार्टी ने तीन दशक पुराने नेताओं को ही कांग्रेस का कर्णधार बना रखा हैं। ये खुद तो कुछ कर नहीं पाते, नए नेताओं को भी उभरने नहीं देते!
कांग्रेस ने तो इंदौर में 'मिशन-2018' की जिम्मेदारी महेश जोशी को सौंपी है। उन्होंने भोपाल में संगठन कार्यालय पर अपना काम भी शुरू कर दिया है। महेश जोशी ने पिछले चुनाव के बाद सक्रिय राजनीति से अपने आपको मुक्त कर लिया था और पैतृक गांव कुशलगढ़ में जा बसे थे। उन्हें वापस बुलाकर पार्टी ने काम सौंपा है। वे इंदौर समेत प्रदेश स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोडऩे का काम कर रहे हैं। लेकिन, वे ये काम ठीक से कर सकेंगे, इसमें शक है। क्योंकि, अब उनकी कोड़ा फटकार राजनीति का दौर नहीं रहा। वे जिस लहजे में बात करते हैं, वो आज की पीढ़ी के नेताओं को सुनने की आदत नहीं है। उनकी संगठन क्षमता पर किसी को शक नहीं है और पार्टी के सभी बड़े नेता उनके कायल रहे हैं। लेकिन, वे राजनीति की बदलती धारा के मुताबिक खुद को बदल नहीं सके! यही कारण है कि उनके सक्रिय होते ही उनके विरोध के मोर्चे भी उभर गए!
कांग्रेस का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो इंदौर में कांग्रेस को सक्रिय करने की कोशिश करता दिखाई देता हो! शहर कांग्रेस के अध्यक्ष का मसला भी उलझा हुआ है। कांग्रेस तभी दिखाई देती है, जब कोई बड़ा नेता इंदौर आता है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा भी तभी अवतरित होती हैं, जब बड़ा मंच सजता है। राऊ के विधायक जीतू पटवारी ही अकेले नेता हैं, जो हर फटे में टांग अड़ाने माहिर माने जाते हैं। लेकिन, उनकी गतिविधियां सेल्फ प्रमोशनल एक्टिविटी ज्यादा लगती है। कई कांग्रेसी नेता तो भाजपा के आभामंडल से प्रभावित होकर अंदर से भाजपाई ही हो गए! इसके अलावा जिन्हें कांग्रेसी नेता कहा जाए वे सिर्फ बयानबाजी और नकली आंदोलन से खुद को जिंदा रखने की कोशिश तक सीमित हैं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है।
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राजनीति और मतभेद का चोली-दामन का साथ है। बिना मतभेद न कभी किसी की राजनीति चली है न चलेगी! इंदौर भी उससे अलहदा नहीं है। यहाँ भी कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में आंतरिक एकता और सामंजस्य का भारी अभाव है। ये स्थिति पार्टी तक सीमित रहती तो ठीक था, पर ये मतभेद धीरे-धीरे मनभेद की शक्ल में सड़क पर दिखाई देने लगते हैं। सत्ता में बैठी भाजपा के नेताओं में मतभेदों की अपनी मज़बूरी है, पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस में एकता की बहुत जरुरत है। फिर भी इन नेताओं में न तो आपसी सामंजस्य है और न इस बात की कोई संभावना ही नजर आ रही! भाजपा के नेताओं में मतभेद होने का सबसे बड़ा कारण अपना वर्चस्व बनाए रखना है। जिस तरह कांग्रेस गुटबाजी का दर्द झेल रही है, वही पीड़ा भाजपा में भी है। फर्क सिर्फ इतना कि कांग्रेस के विवाद जल्दी सड़क पर आ जाते हैं, जबकि भाजपा नेताओं की तनातनी की ख़बरें देर से रिसकर बाहर आती है। इंदौर की राजनीति का असर दूरगामी होता है इसलिए इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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इंदौर में 'ताई' यानी सांसद सुमित्रा महाजन और 'भाई' यानी कैलाश विजयवर्गीय के बीच तनातनी के किस्से बहुत पुराने हैं। ऐसे कई प्रसंग हैं, जब इन दोनों के बीच राजनीतिक छापामारी की जंग चली। ये जंग अभी बंद नहीं हुई, जो चल रहा है उसे युद्धविराम माना जा सकता है। लेकिन, अब इंदौर की भाजपा राजनीति में गुटबाजी और मतभेदों की नई कथा का वाचन होने लगा। इस कथा के प्रमुख पात्र हैं सांसद सुमित्रा महाजन और महापौर मालिनी गौड़! राजनीतिक अनुभव में क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक और इंदौर नगर निगम की महापौर मालिनी गौड़ और सांसद सुमित्रा महाजन में कोई साम्य नहीं है। लगातार 8 बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष महाजन उस कुर्सी पर हैं, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उन्हें सम्मान देना पड़ता है। लेकिन, स्वच्छता के मामले में इंदौर के देश में नम्बर होने से महापौर के तौर पर मालिनी गौड़ का रुतबा बढ़ गया। दिल्ली में भी उनका सिक्का चलने लगा। उनके बढ़ते क़दमों की आहट से सबसे ज्यादा प्रभावित यदि कोई हुआ तो वो सांसद महाजन ही हैं। क्योंकि, मालिनी गौड़ को अगले लोकसभा चुनाव में सांसद की कुर्सी का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। सुमित्रा महाजन ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही घोषणा कर दी थी कि वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी।
इन दोनों के बीच दूरियां इसलिए भी बढ़ी कि महापौर को मुख्यमंत्री खेमे का नेता समझा जाता है। लेकिन, दोनों महिला नेत्रियों के बीच तलवारें तब निकली जब देश में 'स्वच्छ इंदौर' का तमगा पाने के बाद होने वाले एक कार्यक्रम को लेकर दोनों ने अड़ंगेबाजी की। महापौर ने मुख्यमंत्री को स्वच्छ इंदौर पर आयोजित कार्यक्रम 'प्रणाम इंदौर' के लिए 17 मई आमंत्रित किया था। लेकिन, कार्यक्रम सांसद सुमित्रा महाजन ने निरस्त करवा दिया। इस कार्यक्रम के जरिए मालिनी गौड़ ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने अपनी ताकत दिखाने की पूरी तैयारी कर ली थी। जबकि, सांसद सुमित्रा महाजन ने तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू से बात करके उन्हें 5 जून को इंदौर आमंत्रित कर लिया था। सुमित्रा महाजन की योजना अपने इस कार्यक्रम में महापौर, निगम आयुक्त और उनकी पूरी टीम का सम्मान करना था। लेकिन, महापौर ने उनकी प्लानिंग बिगाड़ दी। स्थिति यहाँ तक आ गई कि मुख्यमंत्री को दखल देना पड़ा। अंततः नई तारीख तय की गई, लेकिन, जिस दिन कार्यक्रम होना तय हुआ था, उस दिन घनघोर बारिश हुई और कार्यक्रम नहीं हो पाया। यही कारण है कि इन सारे समीकरणों के बीच मालिनी गौड़ और सुमित्रा महाजन के बीच तालमेल गड़बड़ा गया।
इसके अलावा मतभेदों की एक इबारत सालभर पहले महापौर मालिनी गौड़ और क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला के बीच भी लिखी जा चुकी है। अभी भी ये मसला सुलझा नहीं है और इस पुराण का पाठ जारी है। नगर निगम के एक उपायुक्त के साथ क्षेत्र क्रमांक 2 के एक पार्षद समर्थक की मारपीट के बाद ये विवाद शुरू हुआ था। बाद में रमेश मेंदोला द्वारा महापौर को लिखे गए इस पत्र की वजह से यह विवाद और ज्यादा बढ़ा! इसमें ऐसा कुछ लिख दिया गया था, जो स्पष्ट करता था कि दोनों नेताओं के बीच किस तरह तलवारें खिंची हैं। पत्र पाने के बाद महापौर ने रमेश मेंदोला को जता भी दिया था कि शहर की जिम्मेदारी मुझ पर है, उन पर नहीं! यहाँ तक कहा था कि वे होते कौन हैं, ये सब बातें बोलने वाले। इसके अलावा क्षेत्र क्रमांक 1 के विधायक सुदर्शन गुप्ता और क्षेत्र क्रमांक 2 के नेताओं के बीच मतभेद जगजाहिर हैं और इसके पीछे प्रसंगों के कई अध्याय हैं।
अब बात की जाए इंदौर में कांग्रेस की थकी और चुकी राजनीति की! शहर में आज कांग्रेस की राजनीति का कोई नामलेवा नहीं बचा, फिर भी नेताओं का अहम् और मतभेदों के अध्याय कम नहीं हुए। अब तो हालत ये हो गई कि इंदौर में सारे कार्यकर्ता नेता बन गए। कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम में लगी कुर्सियों का भरना तक मुश्किल हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि पीढ़ियां बदल जाने और एलईडी के ज़माने में भी पार्टी फ्यूज बल्बों से अपना घर रोशन करने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि दिमाग पर जोर डालने पर भी इंदौर की राजनीति में 5 ऐसे नेता याद नहीं आते जो नई पीढ़ी से उभरे हों! आज भी पार्टी ने तीन दशक पुराने नेताओं को ही कांग्रेस का कर्णधार बना रखा हैं। ये खुद तो कुछ कर नहीं पाते, नए नेताओं को भी उभरने नहीं देते!
कांग्रेस ने तो इंदौर में 'मिशन-2018' की जिम्मेदारी महेश जोशी को सौंपी है। उन्होंने भोपाल में संगठन कार्यालय पर अपना काम भी शुरू कर दिया है। महेश जोशी ने पिछले चुनाव के बाद सक्रिय राजनीति से अपने आपको मुक्त कर लिया था और पैतृक गांव कुशलगढ़ में जा बसे थे। उन्हें वापस बुलाकर पार्टी ने काम सौंपा है। वे इंदौर समेत प्रदेश स्तर पर कार्यकर्ताओं को जोडऩे का काम कर रहे हैं। लेकिन, वे ये काम ठीक से कर सकेंगे, इसमें शक है। क्योंकि, अब उनकी कोड़ा फटकार राजनीति का दौर नहीं रहा। वे जिस लहजे में बात करते हैं, वो आज की पीढ़ी के नेताओं को सुनने की आदत नहीं है। उनकी संगठन क्षमता पर किसी को शक नहीं है और पार्टी के सभी बड़े नेता उनके कायल रहे हैं। लेकिन, वे राजनीति की बदलती धारा के मुताबिक खुद को बदल नहीं सके! यही कारण है कि उनके सक्रिय होते ही उनके विरोध के मोर्चे भी उभर गए!
कांग्रेस का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो इंदौर में कांग्रेस को सक्रिय करने की कोशिश करता दिखाई देता हो! शहर कांग्रेस के अध्यक्ष का मसला भी उलझा हुआ है। कांग्रेस तभी दिखाई देती है, जब कोई बड़ा नेता इंदौर आता है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शोभा ओझा भी तभी अवतरित होती हैं, जब बड़ा मंच सजता है। राऊ के विधायक जीतू पटवारी ही अकेले नेता हैं, जो हर फटे में टांग अड़ाने माहिर माने जाते हैं। लेकिन, उनकी गतिविधियां सेल्फ प्रमोशनल एक्टिविटी ज्यादा लगती है। कई कांग्रेसी नेता तो भाजपा के आभामंडल से प्रभावित होकर अंदर से भाजपाई ही हो गए! इसके अलावा जिन्हें कांग्रेसी नेता कहा जाए वे सिर्फ बयानबाजी और नकली आंदोलन से खुद को जिंदा रखने की कोशिश तक सीमित हैं। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है।
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