Tuesday, June 5, 2018

अब सार्थक हुई, समानांतर सिनेमा की अवधारणा

- हेमंत  पाल 

    सिनेमा और समाज के बीच एक अदृश्य सा संबंध है, जो समय-समय पर उजागर और लुप्त होता रहा है। यही कारण है कि हर पाँच-दस साल में सिनेमा की मुख्यधारा में एक नई धारा जुड़ती जाती है, जिसे कभी आधुनिक सिनेमा, कभी आर्ट या कला फिल्म या कभी समानांतर सिनेमा का नाम दिया जाता रहा है। सत्तर के दशक में सिनेमा की एक नई धारा पैदा हुई थी जिसे मृणाल सेन, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी और गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने पोषित किया। इसे कला फिल्म या समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया। लेकिन, यदि गौर किया जाए तो इन फिल्मों में ऐसा कुछ कलात्मक नहीं था, जिसे कला फिल्म माना जा सके। न ये मुख्यधारा के समानांतर चलने वाला उसकी बराबरी कर सकने वाला सिनेमा था जिसे समानांतर सिनेमा का खिताब दिया जा सके। दरअसल, यह एक कम बजट में बनने वाली क्षेत्रीय भाषाओं, क्षेत्रीय समाज सा सीमित और शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला सिनेमा था, जिसे समानांतर सिनेमा कहकर प्रचारित किया गया।
   उस दौर के सिनेमा ने भले ही समानांतर सिनेमा की योग्यता हांसिल न की हो, लेकिन हाल के दिनों हमारे यहां जिस तरह की फिल्में बनने लगी है, वह निश्चित ही इसे समानांतर फिल्मों का ओहदा दिलवाने में इसलिए कामयाब है। क्योंकि, यह मुख्यधारा की फिल्मों से हटकर होते हुए भी किसी भी पैमाने में उससे कमतर नहीं है! इन फिल्मों का बजट से लेकर सितारे मुख्यधारा की फिल्मों की तरह होते हैं। उतने ही भव्य पैमाने पर ये बाॅक्स आफिस पर पैसा कूटने वाली दूसरी मुख्यधारा की फिल्मों के समानांतर चलते हुए उन्हें टक्कर देती है। इस लिहाज से यह बकायदा समानांतर सिनेमा होने की काबिलियत भी रखती है।
   सत्तर की दशक के तथाकथित समानांतर सिनेमा के प्रवर्तकों में कुछ गिने चुने नाम थे, जो पापुलर सिनेमा को नापसंद कर उसे कुछ अजीब सा सिनेमा बनाते थे !जो केवल समीक्षकों तक ही सीमित रहता था। आम जनता तक इस दर्जे की फिल्में पहुँच ही नहीं पाती थी। यदि उन्हें सिनेमाघर नसीब भी होता, तो इनकी दौड़ मैटनी शो से आगे नहीं लग पाती थी। हालांकि, इस दौर मे बासु चटर्जी जैसे फिल्मकारों ने हास्य का पुट देकर कुछ सफल फिल्में जरूर बनाई, फिर भी यह लोकप्रिय सिनेमा के समानांतर न होकर सीमित दायरे मेे कैद होकर ही रह गईं। 
  जाॅन अब्राहम की फिल्म 'परमाणु' ऐसी ही फिल्म है, जो बड़े बजट के साथ भव्य कैनवस पर उतारी गई मुख्यधारा की फिल्मों के विषय से हटकर अनछुए विषय पर निर्मित फिल्म है। ये मुख्यधारा के सिनेमा के समानांतर चलते हुए दर्शकों की भीड और बाॅक्स ऑफिस दोनों पर पैसा बटोर रही है। आज कमर्शियल फिल्मों के कलाकार इसी तरह की फिल्मों से जुड़ने लगे है। अनुष्का शर्मा ने 'एनएच-10' जैसी फिल्म दी, तो आलिया भटट ने 'राजी' जैसी फिल्मों में भूमिका कर मुख्यधारा से हटकर समानांतर सिनेमा को एक नई दिशा दी। इन फिल्मों की खासियत यह है कि यह किसी शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व न कर सभी वर्ग के दर्शकों का प्रतिनिधित्व करती है। यही कारण है कि बेबी, सुल्तान, रूस्तम, अब तक छप्पन, ए वेडनेस-डे , नीरजा, एयरलिफ्ट, स्पेशल-26 , पैडमेन और दंगल जैसी फिल्में बनाने का साहस करने वाले फिल्मकार बाॅक्स आफिस पर घुटने नहीं टेकते!
इन फिल्मों में उन विषयों को शामिल किया जाता रहा है जो हमारे आसपास की घटनाओं से पैदा होता है चाहे फिर वह तलवार दम्पत्ति की जेल यंत्रणा पर आधारित तलवार या मनमोहन सिंह जैसे नेता पर आधारित एक्सीडेंटल पीएम ही क्यों न हो । आज इस सिनेमा का कैमरा राजनेताओं के आफिसों में ताकझाक कर राजनीति चालबाजियों को पर्दे पर उतारने मे कोताही नही बरतता है। भले ही प्रदर्शन से पहले उन्हें सेेंसर बोर्ड की कुर्सी पर बैठे चमचों से जुझना पड़े। लेकिन, दर्शकों से समर्थन और न्यायप्रणाली के समर्थन और सहयोग से इस तरह की फिल्में सिनेमाघरों तक पहुँचने और वहाँ से दर्शकों के दिलों तक पहुँचकर समानांतर सिनेमा की अवधारणा को सार्थक कर रही हैं।
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