- हेमंत पाल
सिनेमा का परदा सच्चाई से बहुत दूर होता है। इस परदे पर दिखाई देती छवियां सच नहीं, छलावा होती हैं। जो सच्चाई से दूर भ्रम का आभामंडल खड़ा करके एक कहानी रचती हैं। ख़ास बात ये कि परदे की इन छद्म छवियों को गढ़ने वाले भी हमारे और आपके जीवन से ही आते है। कहानी की मांग के मुताबिक कुछ देर के लिए ये कथानक के उस पात्र में उतरते हैं और किरदार को जीवंतता देते हैं। दर्शक उस वास्तविक कलाकार को नहीं जानता, बल्कि उसके उस काल्पनिक रूप को याद रखता है, जो उसने परदे पर देखा है। वह उसे ही आदर्श मानकर आचरण करने लगता है। इस वजह से वह काल्पनिक किरदार अनजाने में ही दर्शकों के बड़े वर्ग के लिए जीवन मूल्य तय कर बैठते है! किरदार का नायकत्व दर्शक के मन, मस्तिष्क पर इस तरह छा जाता है, कि वह उसे ही अपना आदर्श मानता है, जबकि यथार्थ में ये छद्म किरदार जीवन मूल्यों को ध्वस्त भी करते हैं।
पिछले कुछ दशकों में लोगों ने इस बात को साबित किया है कि राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा का जूनून सबकी रगों में बहता है। वे कम खाएंगे, हल्का पहनेंगे पर इन तीन जुनून के लिए समय और पैसा जरूर निकालेंगे। समाज में इन तीनों क्षेत्रों के नायकों को उनकी मानवीय कमजोरियों के बावजूद सिर-माथे पर बैठाने की परंपरा का अनुसरण किया जाता रहा है। दक्षिण भारत में तो फिल्म कलाकारों और नेताओं को मंदिर बनाकर उन्हें पूजने तक की परंपरा है। दरअसल, ये अपरिपक्व मानवीय मानसिकता का ही नतीजा है। जबकि, इन मंदिरों में विराजित मूर्तियां किसी समय आर्थिक और चारित्रिक दुर्बलताओं के दाग धब्बों से लांछित होती रही होंगी! इन कथित नायकों के वास्तविक जीवन के कारनामों को नजरअंदाज करने का भाव देश के एक बड़े वर्ग की सामूहिक सोच में बदल चुका है। वे भूल जाते हैं कि इनके छद्म आवरण के पीछे का सच कुछ अलग ही है।
इस तरह की सोच का परिणाम ये हुआ कि अपराधिक और बदनाम पृष्ठभूमि के लोग नेतृत्व की भूमिका निभाने लगे। आज कोई क्रिकेट खिलाड़ी मैच फिक्सिंग फँस जाता है, तो वो शर्मिंदा नहीं होता, लांछित भी नहीं किया जाता, बल्कि अपनी लोकप्रियता को भुनाने का नया रास्ता खोज लेता है। वह टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा बन जाता है। असलियत में उसे नकारा जाना चाहिए था, पर वह दर्शकों में लोकप्रिय हो जाता है। कुछ साल पहले एक टीवी चैनल के 'कास्टिंग काउच' पर किए स्टिंग ऑपरेशन से कई फिल्मकारों के चेहरों पर से नकाब उतरा था। लेकिन, उससे क्या हुआ, कुछ भी तो नहीं! उजागर उसे फिल्म जगत के नामचीन चेहरे आज भी वहीं जमे हैं। उनके करियर पर इस घटना ने कोई बड़ा असर ही नहीं डाला! क्योंकि, दर्शकों ने उन्हें नकारने की कोशिश ही नहीं की। उनके वास्तविक कारनामों को भी परदे का किरदार ही समझा गया!
अभी तक के अनुभवों से एक सच तो साफ़ नजर आता है कि हमारे समाज के एक बड़े समूह की याददाश्त बहुत कमजोर है। वे सच को भी अनदेखा करने की अपनी आदत से मजबूर है। बात सिर्फ परदे, क्रिकेट या राजनीति की दुनिया तक ही सीमित नहीं है। अपनी करनी से सजा के इंतजार में जेलों कैद धर्म गुरुओं के अनुयायी भी कम नहीं हुए! ऐसे नेताओं की साख भी नहीं घटी, जिन पर करोड़ों के घोटालों के आरोप हैं।
जबकि, इसके विपरीत हॉलीवुड फिल्मों के दर्शक नायकत्व से प्रभावित नहीं होते! वे मनोरंजक कहानी के मुरीद होते हैं न कि उस कहानी के किरदार निभाने वाले कलाकारों से! वहाँ यौन उत्पीड़न के मामलों के बाद नामचीन हार्वे विन्स्टीन, बिल कॉस्बी और केविन स्पेसी को जिस तरह बहिष्कृत करके जेल भेजा गया वो इस बात का संकेत है कि हॉलीवुड में पूजने की कोई परंपरा नहीं है! लेकिन, ऐसे उदाहरण हमारे यहाँ कभी क्यों दिखाई देते! हाल ही में उजागर हुए महिला शोषण के 'मीटू' मामले में उठाए सवालों ने कई महिलाओं को अपनी पीड़ा व्यक्त करने की हिम्मत दी है। इसी का नतीजा है कि परदे पर सकारात्मक भूमिका निभाने वाले आलोक नाथ, कलाकार नाना पाटेकर, नामी पत्रकार एमजे अकबर, निर्माता-निर्देशक सुभाष घई, गायक कैलाश खेर, संगीतकार अन्नू मलिक और निर्माता विकास बहल जैसे कुछ नाम सतह पर आए।
यह तूफ़ान आकर थम भी गया। तात्कालिक प्रतिक्रिया अच्छी हुई, पर धीरे-धीरे उठे गुबार की धूल थम गई! चौंकाने वाले जो भी खुलासे हुए, उनकी काट ढूंढ ली गई! कुछ ऐसे भी आरोप जरूर सामने आए, जिनके सच होने में संदेह भी हुआ, पर सबकुछ गलत नहीं था और न है! इसके बाद भी फ़िल्मी दुनिया खामोश है। जो लोग हर मामले में प्रतिक्रिया व्यक्त करने से नहीं चूकते और जिनकी बातों को गंभीरता से लिया जाता है, वे भी इन दागदार लोगों के बारे में बोलने से बचते रहे! दरअसल, यही परदे का सच भी है। जो परदे पर जिस तरह के किरदार अदा करता है, उसकी वही छवि बन जाती है और जीवनभर वो उसी पहचान को भुनाता भी है। ये सब इसलिए कि सिनेमा अँधेरे का मनोरंजन है, तो यहाँ उजालों की क्या जरुरत?
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