- हेमंत पाल
देश के पाॅंच राज्यों में विधानसभा चुनाव पूरे होते ही पक्ष और विपक्ष की तरफ से परस्पर जीत और हार के दावे किए जाने लगे हैं। इस बार बाजी कौन मारेगा, यह तो नतीजों से ही पता चलेगा। लेकिन, हार-जीत के इन कयासों ने बॉलीवुड की फिल्म 'हार-जीत' की बरबस याद ताजा कर दी। नेताओं की हार-जीत का फैसला भले ही पांच साल में एक बार होता हो, लेकिन बालीवुड में हर शुक्रवार फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही तनाव बढ़ता है! इसे बॉलीवुड में फ्राइडे-फीयर भी कहा जाता है, जो निर्माता, निर्देशक से लेकर कलाकारों और प्रदर्शकों सभी के चेहरे पर दिखाई देने लगता है। वैसे भी हार-जीत सिनेमा जगत का सबसे प्रिय विषय है, जो कमोबेश सभी फिल्मों में किसी न किसी रूप में दिखाई दे ही जाता है।
आम फिल्में यही संदेश देती है कि बुराई पर हमेशा अच्छाई की जीत होती है। फिल्मों में अच्छाई का प्रतिनिधित्व हीरो-हीरोइन करते हैं, तो बुराई के प्रतीक का ठेका अकसर खलनायक और खलनायिकाओं को दिया जाता रहा है। शायद ही ऐसी कोई फिल्म होगी, जो नायक और खलनायक या 'हार' और 'जीत' के फॉर्मूले के बिना बनी और चली हो! बहरहाल, हिन्दी फिल्मों में हार-जीत का यह सिलसिला फिल्म के शीर्षक से लेकर गानों और विषयवस्तु तक में फैला है। वैसे देखा जाए तो हार और जीत का चोली दामन का साथ है। ऐसी शायद ही कोई फिल्म होगी, जिसका शीर्षक केवल 'हार' पर आधारित होगा!
जब भी फिल्मों में हार की बात हुई है, जीत ने हमेशा उसका दामन थाम रखा है। अलबत्ता 'जीत' पर भी कई फिल्में बन चुकी है। 1949 में मोहन सिन्हा ने 'जीत' शीर्षक से फिल्म बनाई थी, जिसमें देव आनंद, सुरैया, कन्हैयालाल, भगवान और मदनपुरी की मुख्य भूमिकाएं थी। 1972 में निर्माता, निर्देशक ए सुब्बाराव ने फिर 'जीत' शीर्षक से फिल्म का निर्माण किया। इसमें रणधीर कपूर और बबीता ने पहली बार साथ मे काम किया था। बबीता ही नहीं उनकी बेटी करिश्मा ने भी 'जीत' नाम की फिल्म में काम किया था। 1996 में राज कंवर के निर्देशन में बनी साजिद नडियादवाला की फिल्म 'जीत' में करिश्मा कपूर के साथ सनी देओल थे।
'जीत' की तरह ही 'हार-जीत' शीर्षक से भी एक से ज्यादा फिल्में बनी! 1972 में रेहाना सुल्तान और राधा सलूजा अभिनीत फिल्म 'हार-जीत' में दोनों अपने हीरो अनिल धवन को पाने के लिए एक दूसरे के आमने-सामने आती हैं। इसके बाद 1990 में फराह और कबीर बेदी की फिल्म 'हार-जीत' आई थी, जो प्रेम कहानी कम और थ्रिलर फिल्म ज्यादा थी। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि 'जीत' फिल्म जितनी बार भी बनी, सफल रही! जबकि 'हार-जीत' जब भी बनी हमेशा असफल ही रही। शीर्षक में हार का होना तो इसका कारण नहीं है? इसके अलावा प्यार की जीत, जो जीता वो सिकंदर जैसी फिल्मों में 'जीत' को शामिल किया गया था।
फिल्म के शीर्षक ही नही हिन्दी फिल्मों के गानों में भी 'हार-जीत' का कई बार उल्लेख होता है। महबूब की फिल्म 'अंदाज' में राज कपूर के सामने गाते हुए दिलीप कुमार जब कहते हैं 'आज किसी की हार हुई है आज किसी की जीत गाओ खुशी के गीत' तो पता चलता है कि वह जीत के घोड़े पर सवार होकर राजकपूर को उनकी हार के लिए चिढ़ा रहे हैं। जबकि, आखिर में नर्गिस को जीतने में राजकपूर ही कामयाब होते हैं। राजेश खन्ना और मुमताज की फिल्म 'अपना देश' में राजनीतिक हार जीत पर आधारित गीत 'सुन चम्पा सुन तारा कोई जीता कोई हारा' खूब चला था। जीतने की आस को सजीव करता गीत 'जीत ही लेंगे बाजी हम तुम' आज भी लोकप्रियता की दौड़ में किसी से पीछे नहीं है। जबकि, आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में प्रमुख राजनीतिक दलों की हार-जीत की बराबरी का दावा करने वाला मीडिया वास्तव में राजकपूर की फिल्म 'दीवाना' के गीत 'तुम्हारी भी जय जय हमारी भी जय जय न तुम हारे न हम हारे' को गुनगुनाता ज्यादा दिखाई दे रहा है।
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