Monday, January 14, 2019

इन फिल्मों ने दिखाई औरत की ताकत!


- हेमंत पाल 

    फिल्मों का ट्रेंड धीरे-धीरे बदल रहा है। सिनेमा देखने वाली दर्शकों की नई पीढ़ी की रूचि रोमांटिक या बदला लेने जैसी फिल्मों में नहीं है। उसे चाहिए नए ज़माने की नई सोच वाली ऐसी कहानियां जो वास्तविकता के नजदीक हो और सबसे ख़ास बात ये कि जीवन से जुडी हुई लगें! फिल्म का हीरो तिलस्मी पात्र न लगे जिसके लिए दुनिया का हर काम आसान हो! यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड में महिला केंद्रित फिल्मों की लहर आ गई! इन फिल्मों को देखकर महिलाएं गर्व महसूस करती हैं। साथ ही फिल्मों से प्रेरणा लेकर खुद के लिए लड़ने को भी तैयार रहती हैं। हाल के वर्षों में ऐसी कई फिल्में आईं जो महिला केंद्रित होने के बावजूद सुपरहिट रहीं। यही कारण है कि बीते 5 सालों में फिल्मों का नायकत्व वाला ट्रेंड बदल गया है। विषय वस्तु के स्तर पर, कलाकारों के स्तर पर और फिल्म निर्माण के स्तर पर होने वाला ये बदलाव साफ नजर आ रहा है। देखा जाए तो ये नया प्रयोग तो नहीं है, पहले भी ऐसा होता रहा है,पर महज बदलाव के लिए! अब लगातार ऐसी ही फिल्मों का आना ये दर्शाता है कि दर्शकों के मूड को फिल्मकारों ने भी भांप लिया है।   
    यदि बदलाव के दौर की शुरूआत की बात की जाए तो 2013 में आई फिल्म 'लंच बॉक्स' पहली ऐसी फिल्म थी जिसने दर्शकों को 'कुछ नया' दिया था। इसके बाद 'क्वीन' और 'तनु वेड्स मनु' ने दर्शकों का टेस्ट बदला। लेकिन, पिछले दो सालों में सिनेमा के चरित्र में जबर्दस्त बदलाव दिखाई दिया। छठे दशक सिनेमा में कुछ सामाजिक यथार्थ दिखाने की कोशिश राज कपूर और विमल रॉय ने भी की थी। वो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का दौर था, लेकिन यहीं से फिल्मकारों ने परदे पर सच दिखाने का साहस किया था। आज छः दशक बाद भी तकनीक बदली, कथानक में नए प्रयोग होने लगे और सिनेमा का कैनवास बड़ा हो गया! लेकिन, इन फिल्मों ने हाशिये पर पड़े जीवन के तत्वों को बड़ी सूक्ष्मता एवं गहराई के साथ पकड़ा है। इन फिल्मों को दर्शकों ने भी सराहा और समीक्षकों ने भी! एक ध्यान देने वाली बात ये भी कि इन सभी फिल्मों में नारी शक्ति को लेकर अलग से कुछ कहने की कोशिश की गई है। पहले भी नारी केंद्रित मदर इंडिया, बैंडिट क्वीन, लज्जा, डोर, अस्तित्व, अर्थ, कहानी, नीरजा, इंग्लिश-विंग्लिश में अभिनेत्रियां अपने अभिनय का जौहर दिखा चुकी हैं।
   जरा ध्यान दीजिए कुछ ऐसी फिल्मों पर जिसमें महिला पात्रों को अलग रंग दिया गया है। हाल ही में आई 'बधाई हो' जिसने भी देखी, उसने इसके नयेपन और महिला चरित्र को सराहा है। इससे पहले किसने ऐसे कथानक पर फिल्म बनाने की हिम्मत की थी? स्त्री, सुई-धागा और 'मंटो' के नयेपन को लेकर भी विचार किया जाना चाहिए। इससे पहले आई फिल्म 'अलीगढ़' के अलावा 'टॉयलेट : एक प्रेमकथा,पैडमैन तथा 'न्यूटन' भी ऐसी ही फिल्में थीं। 'टॉयलेट' मुख्यतः 'स्वच्छ भारत अभियान' से प्रभावित थी और 'पैडमेन' महिलाओं से जुड़ी एक परंपरागत समस्या से! इन सभी फिल्मों में जो बात कॉमन थी, वह है नारी शक्ति और उसके अधिकारों की स्वीकृति। 'सुई-धागा' में नारी की उद्यमिता क्षमता और उसका जुझारूपन झलकता है। यह फिल्म मल्टीनेशनल के सामने स्वदेशी को प्रोत्साहित करती नजर आती है। ख़ास बात ये कि इस आंदोलन की पताका नारी के हाथ में है। 
  'पद्मावत' में रानी पद्मावती की भूमिका में दीपिका पादुकोण ने न केवल सौंदर्य, बल्कि हिम्मत और वीरता का भी प्रदर्शन किया। आलिया भट्ट ने 'राजी' में अपनी अदाकारी से दर्शकों को चौंका दिया था। यह फिल्म साल की बेहतरीन फिल्मों में शामिल की गई। दमदार कहानी और आलिया के अभिनय के लिए इसे हमेशा याद किया जाएगा। 'वीरे दी वेडिंग' एक ऐसी फिल्म रही, जिसमें चार एक्ट्रेस मुख्य भूमिका में थीं। इस फिल्म ने उन लोगों का मुंह बंद कर दिया,  जो मानते थे कि महिलाएं अपने दम पर फिल्में नहीं चला सकती हैं। रानी मुखर्जी की 'हिचकी' भी पसंद की गई। ये एक ऐसी टीचर की कहानी थी, जिसे बिगड़े हुए बच्चों को पढ़ाना था। सबसे जरुरी है इस तरह की फिल्मों की प्रासंगिकता को समझा जाना। 'मंटो' में भी मुख्यतः 'नारी की निरीहता' व्यक्त हुई है. हालांकि, इसका मुख्य स्वर एक रचनाकार के असहमत होने के अधिकार का स्वर है, जिसकी राजनीतिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि में जमकर चर्चा हो रही है। मुख्य बात यह कि फिल्मों के कथानक में आए इस बदलाव को दर्शकों ने भी सराहा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि इसे आगे और बढ़ने का मौका मिलेगा। 
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