Tuesday, January 8, 2019

हार के कारण ढूंढने के बजाए भाजपा आत्मचिंतन करे!


- हेमंत पाल
 
   विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी में नीम सन्नाटा है। शिवराजसिंह चौहान के अलावा कोई नेता ज्यादा बोल नहीं रहा! लेकिन, ये सन्नाटा सतही है। क्योंकि, जो शांति दिखाई दे रही है, वो ऊपरी है! पार्टी के अंदर डेढ़ दशक की सत्ता खोने का गुस्सा खदबदा रहा है। चौथी बार सरकार बनाने के मंसूबे पूरे न होना पार्टी के नेताओं के गले नहीं उतर रहा! उन्हें लग रहा है कि सारी स्थितियां अनुकूल होते हुए भी कांग्रेस उनसे आगे कैसे निकल गई? यही कारण है कि भाजपा के बड़े नेता हार के उन कारणों को तलाशने में लगे हैं, जो उनके सीटों की गिनती में पिछड़ने का कारण बना! क्योंकि, यदि मतदाताओं की मानसिकता ऐसी ही बनी रही तो 5 महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। लेकिन, यदि भाजपा अपनी हार के कारणों को ईमानदारी से तलाशे तो उन्हें सच्चाई का पता लग जाएगा। भाजपा ने चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया और अपनी जीत के अतिआत्मविश्वास में मनमानी करती रही! भाजपा ने मतदाताओं की मनःस्थिति को भी नहीं समझा, जो नेताओं से अहम् से नाराज थी। 
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   चुनाव में जीत का आत्मविश्वास होना जरुरी है, लेकिन अतिआत्मविश्वास नहीं रखा जाना चाहिए जो कि भारतीय जनता पार्टी ने रखा! यही कारण है कि पार्टी के नेताओं को हार हजम नहीं हो रही! वे हार के कारणों को खोजना में लगे हैं। इस बार के विधानसभा चुनाव में न तो कोई आँधी थी और न लहर! 2003 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी नाम का जो हव्वा खड़ा हुआ था, वो भी ठंडा पड़ गया था! यही कारण था कि अबकी बार मतदाता को सोचने, समझने और सही फैसला करने का मौका मिला। भाजपा की स्थिति बेहतर थी, पर एकतरफा बिल्कुल नहीं! यही कारण था कि भाजपा किनारे पर आकर डूबी! भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं से लगाकर प्रदेश तक के नेताओं को समझ नहीं आ रहा कि फोटो-फिनिश में कांग्रेस उनसे आगे कैसे निकल गई? जबकि, कोई नेता इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं कर रहा कि भाजपा सरकार के दर्जनभर मंत्री चुनाव क्यों हारे? जो 5 साल सरकार चलाते रहे, वे ही अपना जनाधार खो चुके थे। 
   मध्यप्रदेश में भाजपा की हार के बड़े कारणों में प्रमुख कारण भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की मध्यप्रदेश को समझ न पाना भी रहा! उत्तरप्रदेश की तरह मध्यप्रदेश में कभी कोई चुनाव हिंदू-मुस्लिम या सवर्ण-दलित के आधार पर नहीं लड़े गए। जबकि, यहाँ इस बार उत्तरप्रदेश का फॉर्मूला अपनाया गया। हिन्दू-मुस्लिम की बातों से तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ा, पर सवर्ण और दलितों में दरार डालकर चुनाव जीतने का पार्टी का फार्मूला यहाँ भाजपा को धोखा दे गया! 'कोई माई का लाल आरक्षण ख़त्म नहीं कर सकता' जैसे जुमले भारी पड़ गए। सुप्रीम कोर्ट में दलित एक्ट का फैसला पलटकर उसे और ज्यादा कठोरता से लागू करने की कोशिश की गई। भाजपा को इसकी बड़ी कीमत चुकाना पड़ी। इस कारण भाजपा के पारंपरिक सवर्ण वोटर उससे खिसक गए और उन्होंने कांग्रेस को भी वोट न देकर 'नोटा' का पेट भरा! यदि भाजपा ने ऐसा नहीं किया होता, तो शायद नोटा वाले वोट उसे मिलते। मध्यप्रदेश के मतदाता ने हर उस पार्टी को नकारा है, जिसने शब्दों के तीखे बाण चलाए हो, और इस बार भाजपा को जो नुकसान हुआ उसमें एक बड़ा कारण ये भी है। 
   संगठन की कमजोरी भी भाजपा की विफलता का कारण बनी। कप्तान सिंह सोलंकी, अनिल माधव दवे, माखन सिंह और अरविंद मेनन जैसे कुशल  रणनीतिकारों के मुकाबले सुहास भगत का ठंडा रवैया भी पार्टी की हार में योगदान बना। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की नेतृत्व क्षमता पर शुरू से ही सवाल उठाते जाते रहे थे। ये आशंका सही साबित हुई! वे प्रदेश के जिस महाकौशल क्षेत्र का नेतृत्व करते हैं, वहीं से भाजपा पिछड़ गई। जबकि, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान पर भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ सेबोटेज के आरोप लगे।
  पार्टी इस बात को साफ़-साफ़ नहीं स्वीकारेगी, पर भाजपा में इस बात पर भी गहरी आपत्ति है कि शिवराजसिंह चौहान ने चुनाव के सारे सूत्र अपने हाथ रखे। टिकट बंटवारे से चुनाव प्रचार तक के काम में उन्होंने किसी नेता को नहीं जोड़ा! शिवराजसिंह का पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं के प्रति उपेक्षा भाव भी भाजपाइयों को खला! इसका नतीजा ये हुआ कि कार्यकर्ता पार्टी के प्रति वफादार न होकर शिवराज की भक्ति में लगा रहा। भाजपा को अपने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर उनको साथ रखना भारी पड़ा। देखा जाता है कि भाजपा चुनाव जीतते ही अपने जमीनी कार्यकर्ताओं को भूल जाती है। जो उसके लिए नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, उन्हें किनारे कर दिया गया। अमूमन ये रवैया कांग्रेसियों में अपने आका के प्रति होता है, जो इस बार भाजपा में नजर आया। भाजपा ने इस बार का विधानसभा चुनाव पुरी तरह कांग्रेसी अंदाज में लड़ा!
   मध्यप्रदेश में 7 सीटों पर गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई उम्मीदवार जीते। इनमे दो सीटें बहुजन समाज पार्टी, एक सीट समाजवादी पार्टी और 4 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं। इन 7 में से 6 सीटों पर भाजपा दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस का दूर तक पता नहीं था। इन सात सीटों में से चार सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस के बागी नेताओं ने जीत दर्ज की। मध्यप्रदेश में 14 सीटों पर कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही और पांच सीटों पर तो इससे भी बुरा प्रदर्शन रहा। वहीं भाजपा सिर्फ 7 सीटों में तीसरे स्थान पर रही और सिर्फ एक सीट पर वो चौथे नंबर पर थी। मध्यप्रदेश में कई सीटों पर कांटे की टक्कर थी! 10 सीटों पर मार्जिन एक हज़ार वोट से भी कम था। कांग्रेस ने इनमें से 7 सीट जीतीं और भाजपा ने तीन। दो सीटों पर तो विजेता और उपविजेता में 500 से भी कम वोट का अंतर था और कांग्रेस ने ये दोनों सीटें जीतीं।
  मध्यप्रदेश में भाजपा को मिली सीटें देखकर नहीं लगता कि यहाँ सत्ता विरोधी लहर प्रबल थी। लेकिन, किसान आंदोलन कुछ हद तक चुनाव नतीजों पर प्रभाव डालने में सफल रहा! किसान आंदोलन के दौरान लाठियां चलवाना भी शिवराज सिंह को महंगा पड़ गया। कांग्रेस ने चुनावी वादों में फसल का दाम दुगुना करना और कर्ज माफी की बात की, इसमें वो सफल भी रही। कांग्रेस के वादे का असर ये हुआ कि घोषणा के बाद से ही किसानों ने अपना अनाज बेचना रोक दिया और सरकार बदलने तक का इंतजार करने लगे। कई मतदाता इससे नाराज़ होकर 'नोटा' की तरफ मुड़ गए। नोटा की वजह से 11 सीटों पर भाजपा का खेल बिगड़ा। ग्रामीण इलाकों और खासकर आरक्षित सीटों पर भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। इस बार लोगों में नाराजी के कारण कई जगह 'नोटा' में हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट नोटा में पड़े! ख़ास बात ये कि नोटा को ज्यादा वोट मिलने का असर भाजपा पर पड़ा।
   गुजरात और कर्नाटक में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए खतरे की घंटी थे। लेकिन, पार्टी ने इसे हल्के में लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस का इतिहास देश को सुनाते रहे। जबकि, गुजरात और कर्णाटक से मिले चुनाव नतीजों पर आत्ममंथन करके भाजपा आगे बढ़ती, तो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हालात कुछ और होते! तीन राज्यों में पार्टी की हार लोकसभा चुनाव से पहले खतरे की बड़ी घंटी है। कांग्रेस क्यों जीती का प्रलाप करने के बजाए, भाजपा को इस बात पर आत्ममंथन करना चाहिए कि हम क्यों हारे? क्योंकि, यदि लोकसभा चुनाव में भी भाजपा मतदाताओं की नजर से उतरी तो फिर संभालना मुश्किल होगा! 
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