Tuesday, January 8, 2019

समाज पर सवालों के पुरोधा मृणाल!


- हेमंत पाल

   भारतीय सिनेमा को वैश्विक फलक पर शुरुआती पहचान दिलाने वाली तिकड़ी सत्यजीत रे, ऋत्विक घटिक और मृणाल सेन में से मृणाल सेन को प्रयोगात्मक फिल्म बनाने वाले फिल्मकार के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन, कम ही लोग जानते हैं कि भारतीय सिनेमा में समानांतर सिनेमा के इस पुरोधा को सिनेमा से ज्यादा साहित्य सुहाता था। भौतिक शास्त्र की पढाई और मेडिकल रिप्रेजेंटिव के करियर के बावजूद मृणाल दा ने साहित्य को अपना साथी बनाया। साहित्य की तरफ उनका झुकाव कुछ ऐसा था, जिसे खालिस साहित्य प्रेम नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, उन्होंने काल्पनिक साहित्य के बजाए यर्थाथवादी और सौंदर्यवादी साहित्य से प्रेम किया।
  इसी दौरान उनके हाथ रूडोल्फ अर्नहाइम की पुस्तक 'फिल्म एज आर्ट' लगी! इसे पढ़ते-पढ़ते वे सिनेमा के सौंदर्य से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने एक के बाद एक सिनेमा पर उपलब्ध दुनियाभर की पुस्तकें पढ़ डाली। यह अपने आपमें अजीब सा विरोधाभास है कि बांग्ला सिनेमा की इस त्रिमूर्ति का फिल्मों में प्रवेश अलग-अलग माध्यमों से हुआ। तीनों की विचारधाराओं में कभी मेल नहीं रहा। फिर भी तीनों एक-दूसरे के लिए सम्मान का भाव रखते थे। ऋत्विक घटक थिएटर से आए थे, लिहाजा उनके सिनेमा में थिएटर की लाउडनेस ज्यादा दिखाई देती है। सत्यजीत रे एक जमींदार परिवार से आए थे, इस कारण उनके सिनेमा मे सामंतवादी ठसक नजर आती है। लेकिन, इन दोनों से इतर मृणाल सेन के सिनेमा में सौंदर्यबोध के दर्शन होते हैं। यह बात अलग है कि      साम्यवादी प्रभाव के चलते सामाजिक आक्रोश भी उनकी फिल्मों में एक अनिवार्य घटक की तरह मौजूद रहा है।
    ऐसी बात भी नहीं है कि मृणाल सेन आरंभ से ही अपने आपको सिनेमा में स्थापित करने की कोशिश में लगे रहे! उनकी सिनेयात्रा संघर्ष से भरपूर रही है। उनकी पहली फिल्म रात 'भोरे घोर' असफल रही। लेकिन, इस फिल्म की असफलता ने उन्हें इस विधा का गंभीर छात्र जरूर बना दिया। इसके बाद मृणाल सेन ने फिल्म विधा को बहुत गंभीरता से लेते हुए इसे पूरे मनोयोग से सीखना शुरू किया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1959 में प्रदर्शित 'आकाशेर नीचे' ने उन्हें न केवल सफलता के शिखर पर स्थापित कर दिया, बल्कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी दिलाई! 
  1969 में आई फिल्म 'भुवन सोम' के साथ दुनियाभर में मृणाल सेन के सिनेमा की धूम मच गई। दर्शकों के साथ ही दुनियाभर के आलोचकों ने इस फिल्म की तारीफ की। यदि किसी ने तारीफ नहीं की, तो सत्यजित रे ने! उन्होंने इस फिल्म को औसत बताया और कहा कि यह बस एक ब्यूरोक्रेट के गाँव की लड़की का साथ पाकर हृदय परिवर्तन हो जाने की साधारण कहानीभर हैं। जबकि, 'भुवन सोम'  में दो बातें खास थीं। पहली ये कि मृणाल सेन ने यह फिल्म हिंदी में बनाई थी और दूसरी, उन्होंने कहानी को सौराष्ट्र (गुजरात) में फिल्माया था।
   मृणाल सेन के लिए भाषा बाधा नहीं, बल्कि प्रसार का जरिया थी। उन्होंने बांग्ला के साथ ही हिंदी, ओड़िया और तमिल में भी फिल्में बनाईं। इतना ही नहीं तीनों की फिल्मों के बैकड्रॉप में बंगाल ही ज्यादातर मौजूद रहा। लेकिन, अपनी फिल्मों में सबसे ज्यादा बंगाल से बाहर फिल्माने वाले भी मृणाल सेन ही थे। वे किसी भी चीज से खुद को बोझिल नहीं रखते थे। अपनी फिल्म मेकिंग के साथ भी उन्होंने बहुत से प्रयोग किए। 'भुवन सोम' में मोंटाज, जम्पकट और कार्टून का जबरदस्त प्रयोग करके दर्शकों को चौंका दिया था। बाद में उनके आलोचक सत्यजीत ने 'शतरंज के खिलाड़ी' में यही प्रयोग दोहराया था।
   मृणाल सेन ने कुछ बेहतरीन एक्टर्स की खोज भी की। जिसमें मिथुन चक्रवर्ती, अंजन दत्त, ममता शंकर, श्रीला मजूमदार और माधबी मुखर्जी आदि हैं। इसके अलावा उन्होंने स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के साथ भी कई फ़िल्में बनाई! तीन बार 'बेस्ट एक्टर' का नेशनल अवॉर्ड जीतने वाले मिथुन चक्रवर्ती को मृणाल सेन ने अपनी 1977 की फिल्म 'मृगया' में लांच किया था। मिथुन को पहला राष्ट्रीय पुरस्कार भी इसी फिल्म के लिए मिला था। 
  जहां आज तक तमाम फिल्मकार मनोरंजन और मसाले को फिल्मों का अहम हिस्सा मानकर इसे दोहराते रहे हैं, मृणालसेन की फिल्में समाज के सामने सामाजिक स्थितियों से जुडे कुछ सवालों को विचारणीय अंदाज में रखते थे। उदाहरण के लिए 'मृगया' के नायक को नरभक्षी शेर के शिकार के लिए ईनाम मिलता है! जबकि, नर पिशाच को मारने पर उसे सजा मिलती है? इन्हीं सवालों को उन्होंने हर बार अलग-अलग फिल्मों में रखने का बेहद ईमानदारी प्रयास किया। लेकिन, अब ऐसे सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे।
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