- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ के बारे में राजनीतिक जुमला है कि सत्ता की तिजोरी का ताला यहीं से खुलता है। क्योंकि, ये इलाका संघ का गढ़ रहा है। लेकिन, इस बार विधानसभा चुनाव में सब उलट गया। 15 साल की सत्ता के बाद भाजपा बाहर हो गई! कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ की भाजपा के कब्जे वाली कई सीटें छीनकर उसे बड़ा झटका दिया। इस वजह से लोकसभा चुनाव से पहले संघ सक्रिय हो गया है। चिंतन के बहाने संघ प्रमुख मोहन भागवत का इंदौर में चार दिन का प्रवास इसी रणनीति का हिस्सा है। पिछले लोकसभा चुनाव में मालवा-निमाड़ की सभी 8 सीटें भाजपा ने जीती थीं। लेकिन, बाद में झाबुआ-रतलाम सीट उपचुनाव में कांग्रेस ने छीन ली थी। लेकिन, विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सारे समीकरण बदल दिए! मोहन भागवत ने संघ के आनुषंगिक संगठनों और उनसे जुड़े विभागों से कहा है कि स्वयंसेवक राष्ट्रीय मुद्दे और चुनौतियों को लेकर जनता के बीच जाएं, ताकि केंद्र सरकार के खिलाफ एंटी-इन्कमबेंसी और स्थानीय मुद्दे बेअसर हों!
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मध्य प्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका भाजपा और संघ की मज़बूत ज़मीन माना जाता है। लेकिन, विधानसभा चुनाव में संघ की ये ज़मीन उसके हाथ से खिसक गई। यही वजह है कि संघ और भाजपा दोनों इलाके को लेकर चिंतित है। यही कारण है कि संघ ने अपना ध्यान मालवा-निमाड़ पर फोकस कर दिया। इसकी शुरुआत संघ प्रमुख मोहन भागवत के चार दिन के इंदौर दौरे से हो चुकी है। मालवा-निमाड़ क्षेत्र में 8 लोकसभा सीटें हैं! इंदौर के अलावा, उज्जैन, मंदसौर, रतलाम-झाबुआ, धार, खरगोन, खंडवा और देवास-शाजापुर सीटें है। भाजपा को धार, खरगोन, खंडवा और देवास-शाजापुर सीटों पर उलटफेर की आशंका है। जबकि, झाबुआ-रतलाम सीट कांग्रेस के पास है। इसी नुकसान को थामने के लिए संघ और उसके आनुषंगिक संगठन मैदान संभाले हैं। वहीं विधानसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित कांग्रेस भी भाजपा की कमजोर सीटों पर पूरी ताकत लगा रही है।
विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज़्यादा नुक़सान मालवा-निमाड़ में हुआ! क्षेत्र में विधानसभा की 66 में भाजपा सिर्फ 27 सीटें ही जीत सकी! जबकि 2013 में 57 सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा था। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत का सबसे ज्यादा फोकस इसी इलाके पर है। मध्यप्रदेश का यह इलाका बरसों से संघ, हिंदू महासभा और संघ का मज़बूत गढ़ माना जाता है। किन्तु, विधानसभा चुनाव में ये ज़मीन उसके हाथ से निकल गई! मालवा-निमाड़ में तो भाजपा ने पिछले चुनाव के मुकाबले 30 सीटें गँवाई ही, 8 लोकसभा चुनाव से उसका मज़बूत गढ़ रहे इंदौर संसदीय क्षेत्र की भी 8 में से 4 सीटें भाजपा के हाथ से निकल गई! संघ और भाजपा दोनों इस उलटफेर से मालवा-निमाड़ में अपना राजनीतिक आधार बढ़ाने को लेकर चिंतित हैं। संघ प्रमुख मोहन भागवत के चार दिन के इंदौर दौरे ने संकेत भी दे दिया।
भागवत का ये दौरा लोकसभा चुनाव को देखते हुए काफी अहम माना गया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में कई टिकट संघ कोटे से तय होंगे। क्योंकि, विधानसभा चुनाव में जो हुआ संघ उसे दोहराना नहीं चाहता! संघ का मानना है कि विधानसभा चुनाव में उसके निर्देश नहीं माने गए और मनमाने तरीके से उम्मीदवारों को टिकट दिए गए! अब संघ ऐसी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहता है। यही कारण है कि लोकसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू होने से पहले संघ प्रमुख के इस इंदौर दौरे पर सबकी निगाहें टिकी रहीं। हालांकि, संघ का कहना है कि मोहन भागवत पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत इंदौर आए है। लेकिन, उनकी सक्रियता ने कुछ और ही इशारा किया। संघ ने औपचारिक रूप मोहन भागवत की यात्रा के राजनीतिक मंतव्य पर कुछ नहीं कहा, पर निश्चित रूप से उन्होंने प्रदेश में भाजपा की हार की जमीनी समीक्षा की है। क्योंकि, मालवा-निमाड़ का आदिवासी क्षेत्र इस बार कांग्रेस के पक्ष में रहा!
मालवा-निमाड़ के वनवासी बंधुओं के बीच संघ की स्वीकार्यता और भाजपा का प्रभाव कम होने से संघ कुछ ज्यादा ही चिंतित है। बताया जाता है कि संघ लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस गढ़ को और अधिक मज़बूत बनाने की मंशा से अपने सभी आनुषंगिक संगठनों से विचार विमर्श करके आगे की रणनीति तय करेगा। इंदौर के बाद संघ की दृष्टि से महत्वपूर्ण मध्यभारत और महाकौशल प्रांत की बैठक होना है। मार्च में ग्वालियर में होने जा रही प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी देशभर के करीब 15 सौ छोटे, बड़े अधिकारियों की मौजूदगी में लोकसभा चुनाव को लेकर विचार-विमर्श किया जाएगा। इंदौर की ये यात्रा इन्हीं तैयारियों का हिस्सा है।
संघ के सूत्रों के मुताबिक संघ ये भी तय करेगा कि इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाए! जिससे सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच पहुँचाया जा सके। संघ की इस सक्रियता का सबसे बड़ा कारण ये भी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव 2014 की तरह आसान नहीं है। तब भाजपा के सामने नाकाम कांग्रेस थी और देश नरेंद्र मोदी के नाम पर सहमत दिखाई दिया था। लेकिन, अब हालात वैसे नहीं हैं। पाँच साल सरकार चलने के बाद मोदी-सरकार की खामियों को भी जनता ने परखा है। देश में आर्थिक सुधारों से लेकर मोदी-सरकार ने कई महत्वपूर्ण काम किए हैं। किंतु, इस बार विपक्ष की संभावित एकजुटता के चलते संघ को भाजपा की चुनावी वैतरणी पार लगाने के लिए मैदान में उतरना जरुरी हो गया है। मालवा-निमाड़ की 8 सीटों को लेकर संघ की क्या रणनीति रहती है, फिलहाल सबकी नजरें इसी पर टिकी हैं।
मध्यप्रदेश में भाजपा अपनी मजबूती कितना भी दिखावा कर ले, पर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिस तरह बढ़त मिली है, उससे भाजपा की 12 लोकसभा सीटें खतरे में हैं। ग्वालियर के सांसद नरेंद्रसिंह तोमर के अलावा अनूप मिश्रा, फग्गन सिंह कुलस्ते, भागीरथ प्रसाद, प्रहलाद पटेल, रोडमल नागर, सुमित्रा महाजन और सावित्री ठाकुर के लिए अपनी सीटें बचाना आसान नहीं है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी जबलपुर सीट पर घिरे हुए नजर आ रहे हैं। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की खंडवा सीट भी मुश्किल में है। यहाँ कांग्रेस 26,294 वोटों से आगे है। धार लोकसभा सीट 2014 के चुनाव में भाजपा की सावित्री ठाकुर ने जीती थी। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास 6 सीट थीं, अब इस संसदीय क्षेत्र में इतनी ही सीटें कांग्रेस के पास है। इस लोकसभा सीट पर कांग्रेस की बढ़त 2,20,070 वोट है। यही स्थिति राजगढ़ लोकसभा सीट की है, जहाँ भाजपा के रोडमल नागर की हालत खस्ता है। यहाँ भी कांग्रेस 1,85,010 वोटों से आगे है। इंदौर से सुमित्रा महाजन ने 2014 का लोकसभा चुनाव साढ़े 4 लाख वोट से जीता था। अब वोटों का अंतर घटकर 95,380 वोट रह गया!
विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को मिली हार ने उसे संघ की शरण में जाने को मजबूर कर दिया। एक समय था जब इन तीनों राज्यों में संघ की स्थिति काफ़ी मजबूत मानी जाती थी। ऐसे में इस हार के बाद भाजपा को न चाहते हुए भी संघ के दिखाए रास्ते पर चलने और स्वयंसेवकों की फ़ौज को चुनाव में आगे रखना पड़ेगा। क्योंकि, भाजपा के 15 साल के राज में फैली अराजकता के कारण पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता घर बैठ गए थे। भाजपा की सरकार में पार्टी चंद नेताओं के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई थी। लेकिन, अब संगठन की पूरी कमान संघ ने अपने हाथों में ले ली है। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में भाजपा के प्रदेश संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल किया जा सकता है। संभावना है कि संघ की प्रतिनिधिसभा की बैठक में संघ एवं भाजपा संगठन के पदाधिकारियों के दायित्वों को भी बदला जा सकता है।
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