Monday, November 2, 2020

जनता की अदालत में होगा बगावत का फैसला!  

   मध्यप्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक उलटफेर के बाद अब उस फैसले पर जनता की मुहर लगने की घड़ी आ गई! इस सत्तापलट घटना को जनता ने किस नजर से देखा, अब इसका नतीजा आना है! 28 विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के सामने उम्मीदवारों के प्रश्नपत्र पहुँचने के बाद वे फेल या पास का नतीजा सुनाएंगे। वे बताएँगे कि विधायकों के दलबदल करके सरकार गिराने के कारनामे को उन्होंने सही माना या गलत! ये सिर्फ विधायकों की नहीं, सरकार की भी अग्निपरीक्षा है! मध्यप्रदेश के ये उपचुनाव पार्टियों की रणनीति का भी निर्धारण करेंगे कि भविष्य में सरकार गिराने की ऐसी कोशिशें आगे की जाना क्या सही होगा! अभी तक ऐसे कई प्रयास हो चुके हैं, जब दूसरी पार्टियों के विधायकों को भाजपा ने तोड़कर अपनी सरकार बनाई है। कभी चुनाव से पहले दलबदलुओं को अपनी पार्टी में शामिल किया गया तो कभी चुनाव के बाद एकमुश्त विद्रोह करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा किया। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश में वही प्रयोग दोहराया गया! लेकिन, अब इस फैसले का जनता की अदालत फैसला होना है!   
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हेमंत पाल

  र्नाटक के बाद देश राजनीतिक इतिहास में संभवतः ये लगातार दूसरा मौका है, जब किसी चलती सरकार हुई सरकार को उसके ही विधायकों ने पटरी से उतारकर दूसरी पार्टी को सरकार बनाने में सहयोग किया हो! कभी जो हालात कर्नाटक में बने थे, वही सब मध्यप्रदेश में हुआ! इन दोनों राज्यों में चलती सरकारों को उसके ही विद्रोही विधायकों के कारण कुर्सी छोड़नी पड़ी! कर्नाटक में विद्रोहियों की संख्या 15 थी, मध्यप्रदेश में 28 में से 25 चेहरे ऐसे ही हैं। वहाँ 15 सीटों के लिए हुए उपचुनाव में जेडीएस और कांग्रेस से भाजपा में आए 13 में से 11 विद्रोहियों ने जीत हांसिल की थी। यही कारण था कि कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार को पूर्ण बहुमत मिल गया। वहां भी 17 विधायकों ने पद छोड़कर सरकार को अल्पमत में ला दिया था। मध्यप्रदेश की कहानी भी बहुत कुछ इससे मिलती-जुलती है। फर्क सिर्फ इतना है कि मध्यप्रदेश में 22 विद्रोहियों के गुट का नेतृत्व कांग्रेस के ही एक बड़े नेता ने किया! इसके बाद भाजपा ने सरकार बनाकर कांग्रेस के तीन और विधायकों को इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया। इससे विद्रोहियों की संख्या 22 से बढ़कर 25 हो गई! तीन सीटें विधायकों के निधन से खाली हो गई और ये आंकड़ा 28 तक पहुँच गया। अब इन 28 क्षेत्रों के मतदाता इन विधायकों के विद्रोह की उत्तर पुस्तिका जांचकर उसे सही या गलत बताने का फैसला करेंगे!  
   भाजपा ने सरकार बनाने के लिए दलबदल करवाया तो कुछ हद तक कांग्रेस ने उपचुनाव जीतने के लिए 9 दलबदलुओं को टिकट दिए। इसलिए सिर्फ भाजपा पर ये लांछन नहीं है कि उसने दलबदलुओं को मैदान में उतारा! कांग्रेस ने भाजपा और समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया है। ऐसी स्थिति में 28 में से 9 विधानसभा क्षेत्रों में जिस भी उम्मीदवार की जीत दर्ज होगी, वो दरअसल दलबदलू ही होगा! इन 9 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही दल बदलकर पार्टी में आए लोगों को टिकट दिए! ये सीटें हैं सुमावली, अंबाह, ग्वालियर (पूर्व), डबरा, भांडेर, करैरा, बमोरी, सुरखी और सांवेर। भाजपा ने कांग्रेस से बगावत करके आए 25 नेताओं को टिकट दिया, तो कांग्रेस ने भाजपा छोड़कर आए 6, बसपा से आए 2 और बहुजन संघर्ष दल के एक नेता को कांग्रेस का टिकट दिया। ऐसी स्थिति में इन 9 सीटों पर जो भी जीता वो विधायक दलबदलू ही होगा! 
   देश के राज्यों के चुनाव के पन्ने पलटे जाएं तो 2016 से 2018 के शुरू में जितने भी राज्यों में चुना्व हुए, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए नेताओं की जीत का आंकड़ा बहुत अच्छा रहा! ज्यादातर को चुनाव में जीत मिली थी। 2016 में हुए असम विधानसभा के चुनाव और 2018 के त्रिपुरा चुनाव तक में भाजपार्टी ने 47 कांग्रेसी विद्रोहियों को अपने टिकट पर चुनाव लड़ाया जिनमें से 36 जीत गए। असम में चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए 7 विद्रोहियों को अपना उम्मीदवार बनाया और वे सभी चुनाव जीत भी गए। जीतने वालों में हिमांता बिस्वा सरमा भी थे। 2017 में उत्तर प्रदेश और गोआ के चुनाव में भाजपा ने जितने भी कांग्रेसी बागियों को चुनाव लड़ाया, सभी ने झंडे गाड़े! उत्तराखंड, गुजरात और मणिपुर में भी बागियों की जीत का औसत 28% से 87% के बीच रहा। त्रिपुरा में भाजपा में आए कांग्रेस के 10 विद्रोहियों ने चुनाव लड़ा और 9 जीत गए। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने दूसरी पार्टियों से आए 5 विद्रोहियों को टिकट दिया! लेकिन, इनमें सिर्फ एक को ही जीत मिली। 
     महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने 20 दलबदलुओं को अपने टिकट पर चुनाव लड़वाया था, उनमें 15 जीतने में सफल थे। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के 11, एनसीपी के 6 और शिवसेना, आएसपीएस और आरपीआई (ए) के एक-एक नेता भाजपा में आए थे। लेकिन, बदकिस्मती है कि महाराष्ट्र में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर भी सरकार बनाने में नाकामयाब रही! झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दूसरी पार्टियों के 17 लोगों को चुनाव में उम्मीदवार बनाया था। इनमें से 7 ही चुनाव जीते! भाजपा में आने वालों में 11 'झारखंड विकास मोर्चा' के लोग थे! इस पार्टी का बाद में भाजपा में ही विलय हो गया। कांग्रेस के 3 और अन्य पार्टियों के भी 3 नेता भाजपा में आए थे। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी भाजपा को अतिआत्मविश्वास ले डूबा और वो सत्ता से बाहर हो गई! हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भी भाजपा ने अपने दरवाजे खोल दिए थे और 14 नेताओं को अपने बैनर पर चुनाव लड़वाया! इन 14 दलबदलुओं में आईएनएलडी के 9, कांग्रेस के 2 और हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) और शिरोमणी अकाली दल के एक-एक नेता थे। लेकिन, इनमें से 5 ही चुनाव जीते। हरियाणा में भाजपा की सरकार तो बन गई, पर ताकत घट गई!
  भारतीय राजनीति के इतिहास का पहला ज्ञात दलबदल संभवतः आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन राज्य मद्रास में हुआ था। वहां किसी पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था। 152 सीट कांग्रेस को और दूसरी पार्टियों को 223 सीटें मिली थीं। तब गठबंधन करके 'किसान मजदूर प्रजा पार्टी' और 'भारतीय साम्यवादी दल' ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था! लेकिन, राज्यपाल ने देश के पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए बुलाया! वे सेवानिवृत्ति के बाद आराम का जीवन जी रहे थे। वे उस समय विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद जोड़-तोड़ हुई और 16 विधायक विपक्ष से कांग्रेस में आ गए और राजगोपालाचारी की सरकार बन गई। लेकिन, ये सब इतिहास बन गया। ताजा बगावत को यदि जनता की अदालत ने सही ठहराया और विद्रोहियों को जीत हांसिल हुई तो फिर विधानसभाओं में बहुमत के लिए फिर ऐसे ही हथकंडे इस्तेमाल होने लगेंगे!
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