Thursday, November 19, 2020

कांग्रेस संगठन में चुनाव जीतने का माद्दा नहीं!

    राजनीति में हर हार कोई न कोई सबक देती है। यही सबक बाद में जीत का मददगार बनता है। लेकिन, कांग्रेस ने इस आदर्श तथ्य से कभी कुछ नहीं सीखा। मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक बाद सरकार बनाने, फिर अपनी गलती से उसे गंवाने और उपचुनाव में बागियों की 25 में से 19 सीटें हारने के बाद भी कांग्रेस ने लगता नहीं कि कोई सीख ली होगी! कांग्रेस ने जिस तरह चुनाव लड़ा, उसमें भी कई खामियां थीं। सबसे बड़ी खामी है कमजोर संगठन। उपचुनाव के लिए जिस तरह की रणनीति भाजपा ने बनाई थी, कांग्रेस उसके आसपास भी दिखाई नहीं दी! सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस में सिर्फ उम्मीदवार चुनाव लड़ता है और भाजपा में पूरी पार्टी जान लगा देती है। इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस के जो 9 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, वो अपने दम पर झंडा गाड़कर आए हैं।         
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- हेमंत पाल

   कांग्रेस ने लघु विधानसभा चुनाव कमलनाथ को सामने रखकर लड़ा, पर जंग हार गई। ये पहला मौका था, जब पार्टी ने कमलनाथ के नाम पर चुनावी जंग जीतने की कोशिश की। लेकिन, नतीजे दावों के अनुकूल नहीं रहे। 40 साल की राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी और मैनेजमेंट गुरु कहे जाने वाले  कमलनाथ की चुनावी कूटनीति फेल हो गई। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की किनारे वाली जीत ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया। लेकिन, उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उनके पास निश्चिंतता से सरकार चलाने वाला बहुमत नहीं है। जितनी सीटें थीं, उनसे पाँच साल निकालना आसान नहीं था। उन्हें सभी को साधकर और पुचकारकर चलना था, पर वे ऐसा नहीं कर सके! कहा जाता है, कि कमलनाथ विधायकों तक से मिलने से परहेज करते थे। आम आदमी की तो उन तक पहुँच संभव ही नहीं थी! नतीजा ये हुआ कि उनके नीचे से सियासत की जमीन खींच ली गई! 2020 के उपचुनाव में पार्टी ने कमलनाथ को फ्रीहैंड दिया! उन्हें सारे फैसले करने का अधिकार दिया गया। किंतु, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी वे न तो संगठन का ठीक से उपयोग कर सके और न बागियों के सामने सही उम्मीदवार खड़े कर सके।  
     अब प्रदेश की सियासत में ये सवाल पूछा जा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में कैसे सफल हो गई! कांग्रेस क्यों अपनी सही रणनीति नहीं बना सकी! जीतने वाले उम्मीदवारों के चयन में कहां खामी रह गई! अब कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होकर विपक्ष में आ गई, तो प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति का रूख क्या होगा! प्रदेश के राजनीतिक हालात, कांग्रेस और भाजपा की राजनीति और विधानसभा के बाकी बचे तीन साल के नजरिए से देखा जाए तो कांग्रेस इन तीन सालों में कोई चमत्कार कर सकेगी, इसकी उम्मीद कोई नहीं कर रहा! जबकि, नैतिक शिक्षा का पाठ कहता है कि इस हार के बाद कमलनाथ को मुखिया पद से हट जाना चाहिए, पर कांग्रेस में सबसे बड़ा अकाल नेतृत्व का है। कमलनाथ के बाद कौन सही चेहरा हो सकता है, यदि इस नजरिए से तलाश की जाए तो मुश्किल से दो विकल्प भी ढूँढना मुश्किल है। दरअसल, ये पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी है कि उसने मध्यप्रदेश में नए नेताओं को उभरने नहीं दिया। पिछले तीन दशक में प्रदेश की पूरी कांग्रेस 4 या 5 चेहरों के आसपास सिमटकर रही! इनमें से ज्यादातर अब रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच चुके हैं!  
   इस उपचुनाव की बात की जाए तो ये कांग्रेस के 19 उम्मीदवारों की हार नहीं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व और संगठन की हार है। पार्टी ने 28 सीटों पर उम्मीदवार तय करने में स्थानीय नेतृत्व की पूरी तरह अनदेखी की। कई जिला कांग्रेस अध्यक्षों ने इस बात की शिकायत भी है कि पार्टी ने उनकी बातों को सुना तक नहीं और सर्वे से सही उम्मीदवार चुनने का तर्क दिया गया। ये सर्वे पार्टी ने किया या किसी निजी एजेंसी ने और किस आधार पर ये सर्वे किया गया इसका खुलासा नहीं किया गया! ये वास्तव में कोई गोपनीय सर्वे था या सिर्फ हव्वा इसका भी किसी को पता नहीं! ये शिकायत भी सामने आई कि जब जिला कांग्रेस से भेजी गई पैनल पर विचार ही नहीं किया गया, तो फिर सर्वे कैसे हुआ! जबकि, तरीका यह है कि निर्धारित नामों में से सही उम्मीदवार को सर्वे से चुना जाता है, पर कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि स्थानीय नेताओं ने भी अनमने ढंग से काम किया। जिस तरह की पैचीदा राजनीतिक हालात में ये उपचुनाव हुए, उसमें सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत थी, पर पार्टी में एकजुटता कभी दिखाई नहीं देती।
  चुनावी राजनीति में भाजपा और कांग्रेस में बहुत अंतर है। भाजपा छोटे से छोटे चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा की तरह लेती है और पूरा संगठन उस प्रतिष्ठा की रक्षा करने में लग जाता है। उपचुनाव में भी यही हुआ। कांग्रेस ने बिकाऊ और टिकाऊ के मुद्दे को खूब हवा दी और अपनी 15 महीने की सरकार की उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश तक नहीं की! जबकि, सस्ती बिजली का मुद्दा इतना सशक्त था कि वो मतदाताओं पर कमाल कर सकता था! पर, भाजपा ने उसे किसानों की कर्ज माफ़ी वाले मुद्दे पर इतना उलझा दिया कि कांग्रेस पूरे समय उसी की सफाई देती रही। कांग्रेस नेतृत्व की असफलता का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि पार्टी प्रायवेट लिमिटेड बनकर रह गई! हर नेता की अपनी अलग कांग्रेस बन गई, जो प्रतिद्वंदी पार्टी के बजाए घर में ही ज्यादा लड़ती है।  
   जहाँ तक उपचुनाव में दोनों पार्टियों की जमीनी तैयारी का सवाल है, कांग्रेस ने ग्वालियर-चंबल इलाके में तो अपनी पकड़ जरूर बनाकर रखी, पर मालवा-निमाड़ की सातों सीटों को लावारिस छोड़ दिया! यहाँ उम्मीदवार खुद ही चुनाव लड़ रहा था, पार्टी कहीं नहीं थी! जबकि, भाजपा ने मालवा-निमाड़ की सीटों के लिए नियोजित वार-रूम बनाया! नेताओं को जिम्मेदारियां दी गई और उनसे लगातार फीडबैक लिया गया! पर, कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ! इंदौर में बने भाजपा के वार-रूम के मीडिया प्रभारी गोविंद मालू बताते हैं कि हमने हर सीट को चुनौती की तरह लिया! इसी का नतीजा था कि जिस सुवासरा और हाटपिपलिया सीट को कांग्रेस जीती हुई मानकर चल रही थी, वो कब उसके हाथ से निकल गई, उसे पता ही नहीं चला! यदि ग्वालियर-चंबल की तरह कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ में भी वार-रूम बनाया होता तो तस्वीर कुछ तो अलग होती! ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस ने केके मिश्रा को मोर्चे पर लगाया! वे चुनाव की घोषणा से पहले ही ग्वालियर में डट गए और उन्होंने भाजपा पर लगातार मीडिया हमले किए! चंबल में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन में पार्टी की इस रणनीति का बड़ा योगदान है! लेकिन, क्या ये प्रयोग मालवा-निमाड़ में नहीं किया जाना था? वास्तव में ये कांग्रेस का अतिआत्मविश्वास नहीं, संगठनात्मक कमजोरी और कमलनाथ के सलाहकारों की नासमझी है। 
   इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जमीनी जुड़ाव के मामले में शिवराजसिंह के मुकाबले कमलनाथ बहुत पीछे हैं। चुनाव के मंच का शिवराजसिंह जिस तरह उपयोग करना जानते हैं, कमलनाथ उस तरह सोच भी नहीं सकते! जनता को सिर-माथे पर बैठाने की जो कला शिवराजसिंह को आती है, वो कई बार हवा पलटने में कामयाब हो जाती है। जनता के बार-बार हाथ जोड़ने से लगाकर धोक देने तक का फार्मूला कब, कहाँ और कैसे असर कर जाए, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कमलनाथ की भाव भंगिमाओं में जो रुआब झलकता है, वो मतदाताओं को रास नहीं आता! इसके विपरीत शिवराजसिंह की भाव भंगिमाएं जनता को जोड़ती है, कमलनाथ में उसकी नितांत कमी है! चुनावी राजनीति में सबसे जरुरी है कि आमसभा से लौटता हुआ मतदाता उस नेता और पार्टी के प्रति सहानुभूति लेकर जाए! लेकिन, कांग्रेस के साथ ऐसे प्रसंग सुनाई नहीं दिए! कांग्रेस ने इस पूरे उपचुनाव में आरंभ से अंत तक कमलनाथ पर भरोसा किया। उम्मीदवारों के चयन, चुनावी रणनीति, प्रचार और स्टार कैम्पेनर सब कमलनाथ ही थे। ऐसे में ये कहना कहाँ गलत है कि उपचुनाव में कांग्रेस नहीं, बल्कि कमलनाथ हारे हैं। 
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