Thursday, July 29, 2021

सिनेमा में धर्म का दखल और दर्शक!

- हेमंत पाल

   मारे देश में सिनेमा सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि ये जीवन का हिस्सा भी है और कई मामलों में मार्गदर्शक भी। इसे जुनून और पागलपन की हद तक जाने का शगल भी कह सकते हैं। कई बार देखा गया कि फ़िल्में सिर्फ दर्शकों की पसंद की वजह से नहीं, किसी ख़ास कारण से भी चलती है। ये कारण कुछ भी हो सकता है। फिल्म का हीरो, निर्माण कंपनी, डायरेक्टर, कथानक या फिर और कुछ! लेकिन, एक बहुत बारीक तथ्य यह भी है कि कई बार फिल्मों को हिट कराने में धार्मिक मसाला भी बहुत काम आता है। दर्शक को इस तरह का मसाला ज्यादा ही प्रभावित करता है! फिल्म ख़त्म होने के बाद वो इसे मीठे जहर के रूप में अपने साथ घर ले जाता है! सनी देओल की फिल्म 'ग़दर : एक प्रेमकथा' में हीरो का पड़ौसी देश में घुसकर मारपीट करना। हैंडपंप उखाड़कर अपनी ताकत दिखाना, सिर्फ हीरो का जांबाज किरदार नहीं था! इन दृश्यों के समय सिनेमाघर में दर्शक की प्रतिक्रिया पर भी गौर करना जरुरी है। इसके उलट 'दीवार' का नास्तिक हीरो अमिताभ बच्चन जब अपनी बाजू पर 786 का बिल्ला बांधकर गुंडों की पिटाई करता है, तब भी यही दर्शक उद्वेलित हुआ था। हीरो की जेब में रखा यही बिल्ला फिल्म के उत्तरार्ध में गोली से हीरो की जान बचाता है! आशय यह है कि जाने-अनजाने में ऐसी फिल्मों का कथानक एक धर्म के प्रति आस्था और दूसरे के प्रति नफरत पनपा रहा है। लेकिन, इस पर नजर कम ही पड़ती है।   
   दरअसल, हमारे यहाँ दोनों प्रमुख समाजों में दूरियां बढ़ने से फिल्मों में दोनों धर्मों के पात्रों के प्रति अस्वीकार्यता बढ़ी है। पहले दोनों सम्प्रदायों के लोगों के बीच सौहार्द ज्यादा था। मुस्लिमों को हिन्दुओं से राम-राम करने में गुरेज नहीं था, तो हिंदू भी 'चाचा सलाम' कहते हुए झिझकते नहीं थे। लेकिन, जबसे फिल्मों में डी-कंपनी का पैसा लगा और हस्तक्षेप बढ़ा, तब से हिंदू-मुस्लिम किरदारों के बीच यह रंग शामिल हुआ है। निर्माताओं पर खास समुदाय के कलाकारों और संगीतकारों को लेने का देश पार से फतवा जारी किया जाता था। ऐसा न करने पर गुलशन कुमार जैसे कांड रचे गए! सलीम-जावेद की जोड़ी पर भी ऐसे ही आरोप लगते रहे कि उनकी फिल्मों में हिंदू धर्म का अपमान कर मुस्लिम धर्म की महिमा मंडित की जाती थी। 'शोले' का नायक मंदिर में छुपकर भगवान की आवाज निकालकर मखौल उड़ाता है, तो रहीम चाचा अपने पोते का बलिदान देने के बाद भी सब काम छोडकर नमाज पढ़ने जाता है।
   यही कारण है कि धीरे-धीरे यह बहस भी चल पड़ी कि फिल्मों में हिंदू धर्म और देवी-देवताओं को मजाक बनाकर पेश किया जाता है, पर दूसरे धर्मों के प्रति ऐसा नहीं किया जाता! उदाहरण 'ओह माई गॉड' और 'पीके' जैसी हिंदू आस्था पर चोट करने वाली फिल्मों का दिया जाता है। सेंसर बोर्ड पर आरोप लगाया जाता है, कि वो इसे मनोरंजन मानकर हरी झंडी दिखा देता है। लेकिन, किसी और धर्म को लेकर की गई टिप्पणी को आपत्तिजनक मानकर उस पर कैंची चला दी जाती है। दरअसल, सेंसर की अपनी मजबूरियां और नियम-कायदे हो सकते हैं। लेकिन, ये भी ध्यान देने वाली बात है कि फिल्मों में न तो हिंदुओं को बख्शा जाता है न मुस्लिमों को! कुछ सालों से आतंकवाद पर फ़िल्में ज्यादा बनने लगी, जिसमें मुस्लिम किरदार ही खलनायक दिखाए जाते हैं। वैसे भी फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को जगह कम ही मिलती है। इसमें भी उनकी छवि लगभग तय होती है! वे या तो बहुत अच्छे इंसान होते हैं या बहुत बुरे, बीच में कुछ नहीं होता। कभी नहीं देखा गया कि मुस्लिम किरदार को सामान्य तरीके से फिल्माया गया हो! 
     दरअसल, ये फिल्मकारों का अपना फार्मूला है कि कैसे अपनी फिल्म की पटकथा को दर्शकों के दिमाग में फिट किया जाए! माना जाता है कि आजादी के बाद फिल्में सामाजिक बदलाव का माध्यम भी बनी। सिनेमा के सार्थक योगदान को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन, फिल्मों के जरिए जिस तरह की विचारधारा का बीजारोपण किया जा रहा है, वो आपत्तिजनक है। फिल्मकारों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर मसालेदार धार्मिक कहानी गढ़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। क्योंकि, न तो हर हिंदू धर्माचार्य पाखंडी है और न सभी मुस्लिम आतंकवादी या गुंडे हैं। दोनों ही धर्मों में अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी! इसलिए देश की संस्कृति के मुताबिक सामंजस्य बनाए रखना जरुरी है। धार्मिक भेदभाव की घटनाओं को जिस तरह फिल्माया जाने लगा है, वो असलियत में सामाजिक विभेद पनपा रहा है। ये चंद लोगों की मानसिकता हो सकती है, पूरे समाज की नहीं! अब तो सिनेमा पर यह आरोप भी लगने लगा है कि वे नियोजित ढंग से इस मनोरंजन माध्यम का उपयोग समाज को टुकड़ों में बांटने के लिए होने लगा है! समानांतर फिल्मों के जरिए वर्ग संघर्ष की बारूद बिछाई गई, तो हिंदू-मुस्लिम किरदारों की भूमिका तय करके धर्म पर चोट की जाने लगी! 
    पिछले कुछ सालों से फिल्मों में मुस्लिम चरित्रों के चित्रण को लेकर ज्यादा ही उंगलियां उठने लगी है। जबकि, वास्तव में देश में जब 1913 में सिनेमा की शुरुआत हुई, तब ऐसा विचार किसी को नहीं आया होगा। उस समय की फ़िल्में और देश की मिट्टी की महक से जुड़ी थीं और ये धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और मारपीट जैसे कथानकों में बंटी होती थीं। लेकिन, आजादी के बाद से 60 के दशक तक की ज्यादातर फ़िल्में ऐतिहासिक मुस्लिम पृष्ठभूमि की बनाई गई! ताज महल, मुग़ले आज़म और 'रज़िया सुल्तान' उसी दौर की फ़िल्में थीं। उसके बाद मेरे मेहबूब, पाकीजा, चौदहवीं का चांद, निकाह और शमां जैसी फ़िल्में बनी और पसंद की गई। 'उमराव जान' ऐसी फिल्म थी, जिसमें पूरी तरह मुस्लिम संस्कृति की झलक देखने को मिली। क्योंकि, तब देश में जातियों और धर्मों के बीच नफरत नहीं पनपी थी। कई फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को अच्छे दोस्त की तरह पेश किया गया। 'जंजीर' में प्राण का शेर खान का किरदार आज भी दोस्ती के लिए याद किया जाता है। लेकिन, अब ऐसा क्या हो गया कि सारे हिंदू पंडित पात्र पाखंडी हो गए, तो मुस्लिमों को आतंकवादी बनाकर दिखाया जाने लगा!
     मुहम्मद अशरफ खान और साइदा ज़ूरिया बुखारी ने 2011 में मुस्लिम किरदारों वाली 50 फिल्मों पर अध्ययन करके आश्चर्यजनक निष्कर्ष निकाला था। उन्होंने पाया कि 65.2 प्रतिशत मुसलमानों को फिल्मों में नकारात्मक रूप में पेश किया गया! करीब 30 प्रतिशत को सामान्य किरदार में और सिर्फ 4.4 प्रतिशत मुसलमानों को अच्छी छवि वाले किरदार मिले। फिल्मों के नायक को मुस्लिम बताने में भी कंजूसी की गई! हाल के दिनों में शाहरुख़ खान ने इसकी शुरुआत 'चक दे इंडिया' से की थी। बाद में जॉन अब्राहम की न्यूयॉर्क, शाहरुख की माई नेम इज़ खान और मलयालम फिल्म अनवर में जरूर मुस्लिम नायकों को दिखाया गया। रोजा, मिशन कश्मीर, फ़ना, फ़िज़ा, कुर्बान और 'विश्वरूपम' का नायक भी अच्छा मुसलमान है, जो मुस्लिम आतंकवादियों से लड़ता है। निर्माता-निर्देशक मनमोहन देसाई की हर फिल्म में तो एक अहम किरदार मुस्लिम ही होता था! 'अमर अकबर एंथनी' में तीन में से एक किरदार अकबर मुस्लिम था। 'क़ुली' का तो हीरो मुसलमान था। ये 90 के दशक से पहले की बात है। तब राजनीति में जातिवाद और धर्म के प्रति नजरिया अलग था। लेकिन, उसके बाद मुस्लिमों के प्रति समाज के सोच में बदलाव देखा गया। इसका सीधा असर फिल्मों के साथ टीवी सीरियलों पर भी पड़ा! हिंदुओं में भी ये भावना पनपी कि हिंदू किरदार को खलनायक की तरह दिखाया जाता है। पुजारी को धर्म के नाम पर ठगने वाला दिखाने के साथ सूदखोर, साहूकार, भ्रष्ट नेता और पुलिस वाले सभी हिंदू ही होते हैं! यानी दोनों ही धर्मों का इस्तेमाल करके फिल्मकार अपनी तिजोरी भर रहे हैं! 
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