Wednesday, December 6, 2023

परदे पर हमेशा पसंद किए गए कोर्ट रूम कथानक

    फिल्म के किसी कोर्ट वाले दृश्य में गवाह का ये कहना 'मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ' हमेशा ही फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का आधार बनता है। दर्शकों ने वास्तविक अदालत की कार्रवाई भले न देखी हो, पर फिल्मों में दिखाई देने वाली इन कार्रवाइयों से उन्हें पता चलता है कि अदालतों में किस तरह की जिरह होती होगी। कोर्ट रूम ड्रामा पर बनी अधिकांश फिल्मों का सफल होना इसी बात का संकेत है। 'एक रुका हुआ फैसला' जैसी कुछ फिल्मों ने तो बरसों बाद भी दर्शकों को बांधे रखा हैं।  

- हेमंत पाल

   अदालत में जब किसी दिलचस्प मामले पर बहस होती है, तो उसे सभी देखना चाहते हैं। फिर वे दृश्य रियल हो या फ़िल्मी। कोर्ट रूम ड्रामे पर कई फिल्में बनी और उनमे से ज्यादातर को पसंद किया गया। इन फिल्मों को समीक्षकों के साथ दर्शकों ने भी सराहा। इन फिल्मों में कुछ फिल्मों में कॉमेडी का मसाला डाला गया तो कुछ में थ्रिल था। इसलिए कहा जाता है कि कोर्ट ड्रामा पर आधारित फिल्में और वेब सीरीज हमेशा से ही दर्शकों को रोमांचित करती रही है। कोर्ट कथानक विषय को लगभग हर वर्ग के दर्शक पसंद करते हैं। कोर्ट रूम में होने वाले खुलासे दर्शकों को सीट से बांध देते हैं। ऐसी कई फिल्में आई जिनके कोर्ट रूम ड्रामा के रोमांच ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दिया। परदे पर जब दो वकील बहस करते हैं, तो दर्शक खो जाते हैं। यह भी सच है कि फिल्मों में अदालत के दृश्यों को बहुत मेहनत से तैयार किया जाता है। क्योंकि, कोर्ट सीन को बेहतर बनाने के लिए दोनों पक्षों को जोरदार संवाद की जरूरत होती है। दरअसल, अदालत की कार्यवाही हमारे समाज और न्यायतंत्र का अहम हिस्सा है। इसलिए कई फिल्मों में ऐसी कार्यवाही को अहम स्थान दिया गया। कई फिल्में तो ऐसी है, जिनका क्लाइमेक्स या कथानक का मोड़ ही कोर्ट रूम सीन रहा।
      फिल्मों में अदालती कार्यवाही के दृश्यों की रोचकता ऐसा महत्वपूर्ण पहलू होता है, जहां से या तो कहानी का प्लॉट तैयार होता है या फिर ये फिल्म का क्लाइमेक्स बनता है। जिस भी फिल्म में अदालत की कार्रवाई के दृश्य दिखाए जाते हैं, वे वहीं ख़त्म नहीं हुए, बल्कि आगे के दृश्यों में भी उसका जिक्र होता रहा। ऐसे दृश्यों में किसी गवाह का ये कहना कि 'मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ' फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने का आधार बनते हैं। क्योंकि, गीता पर हाथ रखकर जरुरी नहीं कि वो गवाह सच बोल रहा है। जरुरी नहीं कि फिल्मों के सभी दर्शकों ने वास्तविकता में अदालत की कार्रवाई देखी हो, पर फिल्मों में दिखाई देने वाली इन कार्रवाइयों से उन्हें इतनी जानकारी तो मिलती ही है, कि अदालतों में किस तरह की जिरह होती होगी। निश्चित रूप से वास्तविक अदालतों के मुकाबले फ़िल्मी अदालतें ज्यादा नाटकीयता होने के साथ दर्शकों को बांधने में भी कामयाब भी होती हैं। अदालतों की गंभीर कार्रवाइयों पर बनी अधिकांश फिल्मों का सफल होना इसी बात का संकेत है। कुछ फ़िल्में तो बरसों बाद भी दर्शकों को बांधे हैं।         
      ऐसी ही एक फिल्म 1986 में आई थी बासु चटर्जी की 'एक रुका हुआ फैसला' जो आज भी अनोखी फिल्म कही जाती है। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई, पर जिसने भी देखा, इससे बंधकर रह गया। इसका कथानक इतना दमदार था कि इसे अभी तक की बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा फिल्मों में गिना जाता है। ये कहानी ज्यूरी के सदस्यों के बीच तनाव, कशमकश और न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दर्शाती है। खास बात यह कि पूरी फिल्म एक कमरे में ही फिल्माई गई। अब इस फिल्म को फिर से बनाया जा रहा है। फिल्म इतिहास को खंगाला जाए तो बीआर चोपड़ा ने 1960 में 'कानून' बनाई थी। बिना गानों वाली इस पहली फिल्म की कहानी अख़्तर उल-ईमान और सीजे पावरी ने लिखी थी। इसमें मौत की सजा के खिलाफ एक मामले को दिखाया था। इसमें तर्क दिया था कि गवाहों को भी धोखा दिया जा सकता है और झूठी गवाही किसी को फांसी तक ले जा सकती है। फिल्म में हत्या के एक मामले पर जिरह दर्शाती है, जहां जज (अशोक कुमार) का भावी दामाद (राजेंद्र कुमार) हत्या के एक मामले में बचाव पक्ष का वकील है। उसे अपने होने वाले ससुर पर शक होता है। इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म का क्लाइमैक्स चौंकाने वाला था।
      राज कपूर की 1951 में आई फिल्म 'आवारा' में उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने वकील और जज का किरदार निभाया था, जो एक गलतफहमी की वजह से जन्म से पहले ही अपने बच्चे और पत्नी का त्याग कर देते हैं। पिता की नाइंसाफ़ी और ज़िंदगी की दुश्वारियां एक बच्चे को आवारा बना देती हैं। उसे अदालत के कड़े इम्तिहान से गुज़रना पड़ता है, जहां बेगुनाही के रास्ते में उसका पिता ही दीवार बन जाता है। इस फिल्म में वकील बनीं नरगिस के साथ पृथ्वीराज कपूर की जिरह ने इस कोर्ट रूम ड्रामें को रोचक बनाया था। राज कपूर के दादा दीवान बशेश्वरनाथ सिंह कपूर भी आखिरी दृश्यों में जज के किरदार में दिखते हैं। ये 60 के दशक की फिल्म भी क्लासिक फिल्मों में थी।
    यश चोपड़ा की चर्चित फिल्म 'वक़्त' की कहानी भी एक परिवार के बिखरने से शुरू होकर हत्या के इल्ज़ाम में फंसे एक भाई को दूसरे भाई द्वारा बचाने पर ख़त्म होती है। इसमें कोर्ट के यादगार दृश्य हैं। सुनील दत्त वकील के किरदार में थे, जबकि राज कुमार हत्या के आरोपी होते थे। 'वक़्त' को हिंदी सिनेमा की पहली मल्टीस्टारर फ़िल्म कहा जाता है। 1962 में आई फिल्म 'बात एक रात की' शंकर मुखर्जी निर्देशित फिल्म रहस्य, रोमांच से भरपूर कोर्ट रूम ड्रामा थी। इस फिल्म का संगीत भी बेहद हिट रहा। इसमें फ़िल्म की नायिका वहीदा रहमान पर हत्या का आरोप लगता है, जिसे वो स्वीकार भी कर लेती है। लेकिन, वकील बने देव आनंद को आरोपी के इकबाले-जुर्म पर विश्वास नहीं होता। यहीं से इस रोमांचक कोर्ट रूम ड्रामा शुरू होता है। 
    अदालत के ड्रामे वाली फिल्मों में 1983 की फिल्म 'अंधा कानून' को भी गिना जा सकता है। फिल्म में अमिताभ बच्चन (जां निसार अख्तर) की फॉरेस्ट ऑफिसर की भूमिका थी, जिनका चंदन तस्करों से संघर्ष होता है, जिसमें एक तस्कर मारा जाता है। इसका इल्जाम अमिताभ पर लगता है और उसे सजा सुना दी जाती है। जेल की सजा भुगतने के बाद सच सामने आता है कि जिसकी हत्या के आरोप में सजा सुनाई गई, वो जिंदा है। उसके बाद फिल्म का क्लाइमेक्स बेहद नाटकीय था। 'मेरी जंग' (1985) में भी अदालत के लंबे सीन थे। फिल्म के एक सीन में वकील का किरदार निभा रहे अनिल कपूर जहर देने के आरोप को झुठलाने के लिए कोर्ट में जहर पी लेते हैं। इस फिल्म का बड़ा हिस्सा कोर्ट में शूट किया गया था। लेकिन, 1993 की फिल्म 'दामिनी' में सनी देओल का वकील के किरदार को दर्शक आज भी नहीं भूले। फिल्म का 'तारीख पर तारीख ... ' वाला डायलॉग बेहद चर्चित हुआ। यह फिल्म एक घरेलू नौकरानी के साथ हुए बलात्कार मामले के इर्द-गिर्द घूमती है। 
    नाम से ही अदालत के कथानक का अहसास कराने वाली फिल्मों में 2013 में आई फिल्म 'जॉली एलएलबी' भी है। फिल्म में कॉमेडी के जरिए गंभीर संदेश दिया। एक जूनियर वकील जॉली एक हाई प्रोफाइल हिट एंड रन मामले से जुड़ जाता है और सिस्टम से टकराता है। चार साल बाद 2017 में इस फिल्म का सीक्वल 'जॉली एलएलबी-2' नाम से बना। इसमें एक गैर संजीदा वकील जॉली (अक्षय कुमार) एक फर्जी एनकाउंटर के केस से जुड़कर लड़ता है। दोनों ही फिल्मों में जज की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने जबरदस्त काम किया था। 2012 की फिल्म 'ओ माय गॉड' धर्म के नाम पर समाज में फैलाए पाखंड पर चोट करती है। नास्तिक कांजी (परेश रावल) की दुकान भूकंप के कारण ढह जाती है और इंश्योरेंस कंपनी इसे 'एक्ट ऑफ गॉड' करार देकर इंश्योरेंस राशि का भुगतान करने से इंकार कर देती है। परेशान होकर कांजी भगवान पर मुकदमा दायर कर देता है। इस अनोखे मुकदमे के कारण कई की पोल खुलती है और कोर्ट रूप में हंसी का माहौल बनता हैं। ये फिल्म तेलुगु में भी 'गोपाला-गोपाला' के नाम से बनी थी। अब्बास-मस्तान की फिल्म 'एतराज' (2004) भी ऐसी ही थी, जिसकी कहानी बलात्कार के एक झूठे आरोप को लेकर बुनी थी। इसमें प्रियंका चोपड़ा ने निगेटिव किरदार किया था। वो अपने पूर्व प्रेमी अक्षय कुमार पर बलात्कार का झूठा आरोप लगाती है। इसमें करीना कपूर भी थी, जो अक्षय कुमार की पत्नी होने के साथ वकील भी है, वो पति के बचाव में खड़ी हो जाती है।
      'रुस्तम' (2016) को भी कोर्ट रूम की यादगार फिल्म कहा जाता है, जो नौसेना के एक अधिकारी के जीवन से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित थी। नौसेना का एक अधिकारी गोली मारकर एक व्यक्ति की हत्या कर खुद को कानून के हवाले कर देता है। अब ज्यूरी को इस बात का फैसला करना होता है कि ये साजिश के तहत की गई हत्या है या फिर आत्मरक्षा में गोली चलाई गई। अक्षय कुमार को इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। इसी साल आई 'पिंक' (2016) बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बनाई गई थी। इसमें अमिताभ ने वकील की भूमिका की थी। 'पिंक' को सामाजिक मुद्दों पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसे तमिल में 'नेरकोंडा परवाई' (2019) और तेलुगु में 'वकील साब' (2021) के नाम से बनाया गया। अजय बहल की निर्देशित फिल्म 'आर्टिकल 375' (2019) को भी बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा फिल्म कहा जाता हैं। फिल्म की कहानी बलात्कार के एक केस के आसपास घूमती है। फिल्म में कोर्ट की कार्यवाही बिना किसी लाग-लपेट के दिखाने की कोशिश की गई। 
    कुछ साल पहले 2018 में आई फिल्म 'मुल्क' भी कोर्ट रूम ड्रामा थी। अनुभव सिन्हा की ये फिल्म इस बात को जोर से उठाती है कि 'सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते।' इस फिल्म की खासियत यह है कि यह बेहतर हिंदू या बेहतर मुसलमान बनने की बजाए बेहतर इंसान बनने की बात करती है। क्योंकि, संविधान के मुताबिक इस देश में सबको रहने का पूरा अधिकार है। यह फिल्म कुछ गंभीर मुद्दों और आतंकवाद के अन्य चेहरों पर ध्यान केंद्रित करती है, जिन्हें छुपाया जाता है। फिल्म में तापसी पन्नू और आशुतोष राणा ने वकील की भूमिका निभाई थी। इसी साल (2023) आई मनोज बाजपेयी की फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' अदालत की कार्रवाई पर बनी रोचक फिल्मों में एक है। सच्ची घटना पर बनी फिल्म में मनोज बाजपेयी ने वकील पीसी सोलंकी की भूमिका निभाई। यह एक ऐसे वकील की कहानी है, जो एक बड़े धर्मगुरु के खिलाफ अकेले केस लड़कर पीड़िता को न्याय दिलाता है। फिल्म में मनोज बाजपेयी ने वकील की जबरदस्त भूमिका निभाई है।
    इसके अलावा 'ट्रायल बाय फायर' (2023) दिल्ली के उपहार सिनेमा के अग्निकांड की कहानी पर बनी फिल्म थी। 'गिल्टी माइंड्स' (2022) की कहानी दिल्ली की दो लॉ फर्म के इर्द गिर्द घूमती है। 'शाहिद' (2013) फिल्म शाहिद आज़मी की सच्ची कहानी पर बनी थी, जिन्हें 1994 में स्टेट के खिलाफ साजिश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। सजा काटने के दौरान शाहिद ने कानून की पढ़ाई की और जेल से बाहर आने के बाद उन लोगों का बचाव किया जिन पर आतंकवाद का गलत आरोप लगा था। उन्होंने 17 लोगों को ऐसे आरोपों से मुक्त करवाया था। इसके अलावा 'शौर्य' (2008) फिल्म केके मेनन के बेहतरीन अभिनय और सबसे अच्छे मोनोलॉग के लिए याद की जाती है। इसके अलावा वीर जारा, मेरा साया, नो वन किल्ड जेसिका, कोर्ट, सबसे बड़ा खिलाड़ी, दो भाई और 'क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता' फिल्मों का कथानक कोर्ट रूम पर आधारित था। अभी ये दौर ख़त्म नहीं हुआ, जल्द ही कोई कोर्ट रूम ड्रामा देखने को मिल सकता है।   
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