Wednesday, December 6, 2023

सिनेमा में बागी और बगावत का लम्बा दौर

- हेमंत पाल

       राजनीति में बागियों और उनकी बगावत को बेहद हिकारत की नजर से देखा जाता है। समझा जाता है कि उन्होंने पार्टी के साथ दगा करके कोई अक्षम्य अपराध किया है। लेकिन, जब ये बागी अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं, तो उन्हें हाथों-हाथ लिया जाता है। राजनीति में भी ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जब नेताओं ने नाराज होकर बगावत की और उन्हें सफलता भी मिली। राजनीति ने जब अपना स्वरूप बदला तो ऐसा अकसर देखा गया .सत्ता पक्ष का ही कोई नेता अपनी ही पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए बगावत कर देता है। कभी ऐसी बगावत कुचल दिया जाता है, तो कभी बागी अपनी कोशिश में सफल भी होते हैं। राजनीति में ऐसी बगावत बिना किसी खून-खराबे के सिर्फ संख्या बल पर चलती और फलती है। सत्ता हासिल करने के लिए तो बागी बनकर बगावत करना आम है। लेकिन, कभी किसी के दिल पर राज करने के लिए समाज या परिवार के खिलाफ भी बगावत की जाती है। यानी समाज में किसी न किसी रूप में बागियों की बगावत का खेल चलता रहता है, तो फिर फ़िल्में उससे अलग कैसे रहे! कुछ ऐसा ही कई फिल्मों के कथानकों में भी देखा गया। गुस्से में नायक कभी अपने परिवार से, कभी जमींदार के अत्याचार से और कभी व्यवस्था के खिलाफ बगावत करता है और फिल्म का अंत होते-होते अपनी बगावत को सही साबित कर देता है। 
      70 और 80 के दशक में जब डाकुओं की फिल्मों का बोलबाला था उन सभी का कथानक बगावत पर ही केंद्रित रहा। याद किया जाए तो धर्मेंद्र, विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन ने ऐसी कई फिल्मों में काम किया जिसमें बगावत के बाद वे बंदूक उठाकर जमींदार के दम्भ को चकनाचूर कर देते हैं। बिंदिया और बंदूक, पत्थर और पायल, कच्चे धागे, गंगा की सौगंध, पानसिंह तोमर, पुतलीबाई और सोन चिरैया जैसी दर्जनों फिल्मों में ऐसे ही कथानक थे। दरअसल, सिनेमाघरों के अंधेरे परदे पर भी बागी और बगावत का खेल तब से खेला जा रहा है, जब सिनेमा ने बोलना सीखा ही था। यूं तो सिनेमा में बगावत राज दरबार से जुड़े कथानकों वाली फिल्मों में भी दिखाई देती रही। लेकिन, जब परदे पर प्यार बिखेरने वाले नायक-नायिकाओं के प्रेम के रास्ते पर समाज कांटे बिखेर देता है, तब यही नायक या नायिका बगावत पर आमादा हो जाते हैं। क्योंकि प्यार और जंग में सब कुछ जायज है। कम आश्चर्य की बात नहीं कि हर दूसरी फिल्म में बागी और बगावत का कथानक होने के बावजूद फिल्मों के नाम या गीतों में बागी या बगावत जैसे नाम कम ही दिखाई दिए। 'बगावत' नाम से तो एक ही फिल्म बनी, जबकि 'बागी' शीर्षक का फिल्मों में कई बार उपयोग किया गया। यहां तक कि 'बागी' के आगे नंबर लगाकर उसे कई बार भी बनाया गया। लेकिन, ऐसा कोई गीत याद नहीं आता जिसमें 'बागी' या 'बगावत' शब्द का उपयोग किया गया हो।
     'बागी' शीर्षक से पहली फिल्म 1953 में प्रदर्शित हुई, जिसमें तलवारबाज नायक रंजन के साथ सायरा बानो की मां नसीम बानो नायिका थी। इसके खलनायक थे प्राण जो अपने ही राज्य के राजा के खिलाफ बगावत करके गद्दी हथिया लेते हैं। तब एक बागी खड़ा होता है, जो राज गद्दी के साथ राजकुमारी को भी हासिल कर लेता है। 'बागी' के कलाकारों में मुकरी, अनवर हुसैन, शम्मी और बीएम व्यास थे। फिल्म का एक गीत 'हमारे बाद दुनिया में हमारे अफसाने जवां होंगे, बहारें हम को ढूंढेंगी मगर हम जाने कहां होंगे' बहुत लोकप्रिय हुआ था। इसके पांच साल बार रंजन एक बार फिर बागी बने और मधुबाला के साथ उनकी फिल्म 'बागी सिपाही' आई, जिसे फेंटेसी बनाने में माहिर भगवान दास वर्मा ने बनाया था। फिल्म में चंद्रशेखर और भी निशी दिखाई दिए थे। यह फिल्म रोम के प्रसिद्ध शासक नीरो की कहानी पर आधारित थी।
     ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में जो बगावत दिखाई जाती थी, उसमें ज्यादातर फिल्में ऐसी थी जिसमें कूूर सेनापति सीधे-साधे राजा के खिलाफ बगावत करके उसे जेल में डाल देता था। ऐसे दगाबाज सेनापतियों के किरदार जीवन, अनवर हुसैन, हीरालाल, तिवारी और बीएम व्यास जैसे कलाकारों ने बखूबी निभाए। बाद में प्राण और प्रेम चोपड़ा ने भी कभी राजगद्दी और कभी राजकुमारी को पाने के खातिर ऐसी भूमिकाएं की। 1964 में एक बार फिर सिनेमा के परदे पर बागी के दर्शन हुए। इस फिल्म में क्रूर सेनापति जीवन के रथ के नीचे एक बच्चा कुचल जाता है। उसके पिता सेनापति के बेटे का अपहरण करके उसे बाप के विरूद्ध बागी बना देते हैं। यह बागी होता है प्रदीप कुमार जो राजकुमारी विद्या चौधरी से प्रेम करते हुए बगावत करता रहता है। फिल्म में मुमताज की भी भूमिका थी। इसका निर्देशन रामदयाल ने किया था। लेकिन, परदे पर यह फिल्म कुछ ख़ास कमांल नहीं कर पायी। इसके कई साल तक 'बागी' नाम ही सुनाई नहीं दिया। लेकिन, किशोर कुमार, कुमकुम, अनवर हुसैन, श्याम कुुमार, बीएम व्यास अभिनीत 'बागी शहजादा' परदे पर आयी, जिसमें बगावत से ज्यादा कामेडी का अंदाज था। लिहाजा यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर ढीली ही रही।  
     इसके बाद 'बागी शहजादी' नाम से से भी 1965 में प्रदर्शित हुई जिसमें हेलन, चित्रा और जयराज की प्रमुख भूमिका थी। यह फिल्म फ्रंट बेंचर्स के लिए बनी थी। लिहाजा कब आई और कब चली गई कुछ पता नहीं चला। 1993 में 'बागी सुल्ताना' नाम से फिल्म आयी और 1975 में शिवाजी गणेशन और जयललिता अभिनीत 'बागी लुटेरा' आई तो, पर दर्शकों का दिल नहीं लूट पाई। इसके अलावा प्यार में बागी बनना भी कोई नई बात नहीं थी। बस अंदाज बदला सा होता है। साठ के दशक में प्यार में बगावत पर आधारित सबसे महंगी और भव्य फिल्म 'मुगले आजम' आयी तो लगा पूरा देश ही मोहब्बत के नाम पर बगावत कर देगा। फिल्म का एक संवाद काफी चर्चित हुआ था 'यदि प्यार करना बगावत है, तो समझ लीजिए कि सलीम बागी हो गया!' इस संवाद पर दर्शकों ने खूब तालियां पीटकर इस बगावत को परवान चढ़ाया था। अस्सी और नब्बे के दशक में जब फेंटेसी फिल्मों की चमक फीकी पड़ने लगी तो परदे पर प्रेम के रंग चमकने लगे। राज कपूर की फिल्म 'बॉबी' में भी प्यार में बगावत करने वाले दो युवा प्रेमियों की कहानी को दर्शकों ने सिर आंखों पर बिठाया, तो कमल हासन और रति अग्निहोत्री की फिल्म 'एक दूजे के लिए' में बागी प्रेमियों के दुखद अंत ने दर्शकों की आंख गीली कर दी थी। 
     वैसे तो देश की आजादी के लिए भी देश भक्तों ने भी आजादी के लिए बगावत की, जिसे क्रांति नाम दिया गया। यहां बागी और बगावत के बजाए 'क्रांति' और 'क्रांतिवीर' जैसे शीर्षको वाली फिल्में आई। बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों का कारोबार करने वाली फिल्म 'आरआरआर' की कहानी भी विद्रोह पर आधारित है। यह काल्पनिक कहानी है, जो भारत के स्वतंत्रता सेनानियों अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम के इर्द-गिर्द घूमती है। जिन्होंने ब्रिटिश राज और निजाम हैदराबाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। चंबल के बीहड़ों में पनपे डाकुओं के लिए दस्यु के बजाए बागी शब्द ज्यादा पसंद किया जाता था। जब कोई व्यक्ति अत्याचारों से तंग आकर बदला लेने के लिए बीहड़ की शरण लेता था, तो कहा जाता था कि वह बागी हो गया। 
      पानसिंह तोम ,बैंडिट क्वीन और पुतली बाई ऐसे ही बागियों के जीवन पर आधारित फिल्में थी, जिनमें बागी शब्द नदारद था। 90 के दशक में सलमान खान ने एक बार फिर 'बागी' शीर्षक को परदे पर साकार कर दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित किया। इस फिल्म में उनके साथ नगमा पहली बार पर्दे पर नजर दिखाई दी थी। इस बगावत में किरण कुमार और मोहनीश बहल ने साथ दिया था। इसके बाद तो टायगर श्राफ ने 'बागी' शीर्षक पर कब्जा ही कर लिया। टायगर श्राफ और श्रृद्धा कपूर ने एक के बाद एक बागी शीर्षक से फिल्में देना आरंभ किया। 'बागी' से लेकर बागी-4 तक यह सिलसिला कायम है।
     बागी और बगावत दो ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ प्रायः किसी स्थापित व्यवस्था के खिलाफ आवाज या कदम उठाकर उसका विरोध करने से जुड़ा होता है। इस तरह के विरोध को अकसर बगावत कहा जाता है और बगावत करने वालों को 'बागी' नाम दिया जाता है। जबकि, बागी और बगावत दोनों ही समाज से जुड़े हुए हैं। कई बार गलत काम का विरोध करके नई दिशा देने के लिए कोई बागी हो जाता है, तो कभी किसी राज्य या राजा के खिलाफ कोई एक नायक या प्रजा बगावत को आमदा हो जाती है। कभी कभी अच्छे राजा के खिलाफ कुटील मंत्री सेना को अपने पक्ष में कर बगावत कर सत्ता हासिल करने की कोशिश करता है। वास्तव में बगावत या बागी हमेशा गलत अर्थों में नहीं है। नकारात्मक मकसद के लिए की गई बगावत जरूर गलत मानी जा सकती है, पर आजादी के मकसद, गलत व्यवस्था के विरोध, मोहब्बत की खातिर और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना तो गलत नहीं है। यही वजह है कि फिल्मों में बागी की बगावत को हमेशा सही संदर्भों में देखा गया! क्योंकि, फिल्म का नायक सही जो होता है।    
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