- हेमंत पाल
फ़िल्मी कथानकों में महिलाओं की स्थिति को लेकर अकसर बहस चलती रही है। उंगलियों पर गिनी जाने वाली चंद फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो ज्यादातर फिल्मों में नायिका का किरदार नायक से अलग अपनी पहचान नहीं बना पाता। ऐसी फ़िल्में भी बहुत कम है, जो महिला प्रधान होते हुए हिट हुई। इन दिनों रणबीर कपूर की फिल्म 'एनिमल' की चर्चा है। इसलिए नहीं कि फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त सफलता मिली। इसके अलावा चर्चा का कारण फिल्म में नायिका का अपमानजनक चित्रण है, जो विवाद बन गया। सड़क से संसद तक में फिल्म के उन दृश्यों पर आवाज उठी, जिनमें नायक को नायिका पर हाथ उठाते दर्शाया गया। यह पहली बार नहीं है कि 'एनिमल' जैसी फिल्म को लेकर उंगली उठाई गई हो। इससे पहले शाहिद कपूर की फिल्म 'कबीर सिंह' को लेकर भी सवाल खड़े किए गए थे। संयोग माना जाना चाहिए कि 'एनिमल' और 'कबीर सिंह' दोनों फिल्मों के डायरेक्टर संदीप रेड्डी वांगा ही हैं। जब 'कबीर सिंह' आई तब इस डायरेक्टर ने कहा था कि मैं जानबूझकर एक असामान्य लव स्टोरी बनाना चाहता था। ये प्यार के कारण एक व्यक्ति की जिंदगी बदलने की कहानी है। मैंने किरदार को ज्यादा वास्तविक और सरल रखने की कोशिश की। लेकिन, 'एनिमल' में तो ऐसे दृश्य जरुरी नहीं थे!
संसद में फिल्म को लेकर आवाज अच्छे संदर्भ में नहीं उठी, बल्कि फिल्म में महिलाओं को जिस तरह दोयम दर्जे का समझा गया। उस पर राज्यसभा सदस्य रंजीत रंजन ने टिप्पणी की। उनका कहना था कि 'एनिमल' जैसी फिल्में समाज में हिंसा और स्त्री द्वेष को बढ़ावा देती हैं। उनका कहना था कि आजकल कुछ इसी तरह की फिल्में आ रही हैं। अगर आप कबीर, पुष्पा से शुरू करें तो अभी एक और ऐसी फिल्म (एनिमल) चल रही है। मैं आपको कह नहीं पाऊंगी कि मेरी बेटी के साथ बहुत सारी बच्चियां थीं। वे कॉलेज में पढ़ती हैं। वे आधी फिल्म देखने के बाद उठकर और रोकर चली गई। हिंसा और महिलाओं के प्रति इतने असम्मान को फिल्म के जरिए जस्टिफाई किया गया। उनका कहना है कि कबीर फिल्म में शाहिद कपूर को और 'एनिमल' में रणबीर कपूर को जो करते दिखाया गया उसे समाज सही नहीं मान रहा। यह चिंतनीय विषय है। इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे उदाहरण हैं। इस हिंसा और नेगेटिव रोल को नायक की तरह पेश किया जा रहा है। हमारे आज के बच्चे इन्हें रोल मॉडल मानने लगे। सांसद ने फिल्म की रिलीज को मंजूरी देने के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) और ऐसी फिल्मों को हरी झंडी देने के लिए बोर्ड द्वारा इस्तेमाल किए गए मानदंडों पर भी सवाल उठाया। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी फिल्में समाज के लिए एक ‘बीमारी’ है।
जो सवाल उठाए, वो गलत नहीं है। पितृसत्ता समाज की जड़ें बेहद गहरी है, इसे समझना है, तो इसका खुलासा 'एनिमल' में होता है। फिल्म में सिर्फ पिता है। फिल्म के कथानक में यह पिता ही हर जगह मौजूद है। बेटे का पिता के लिए लगाव दिखाई भी देता है। मगर यह लगाव सामान्य प्रेम नहीं, बल्कि उसे पिता जैसा बनना है। मां उसके जीवन में कहीं नहीं है। फिल्म के कथानक के मुताबिक, नायक पिता के लिए किसी हद तक जाने को तैयार रहता है। यहां तक कि पिता के जन्मदिन पर वह अपने लम्बे बाल कटवाकर उन्हें एक सरप्राइस गिफ्ट देता है। ऐसा भी वक़्त आता है, जब वो बग़ावत करके घर से निकल जाता है। लेकिन, जब पिता पर हमला होता है, तो उसका बदला लेने के लिए विदेश से लौट आता है। फिल्म में चारों तरफ आदमियों की दुनिया है। उसमें औरतें हैं, पर किसी खास भूमिका में नहीं।
इस फिल्म में नायिका की भूमिका को दोयम दर्जे से भी नीचे जगह दी गई। कई दृश्यों में बहस करने पर उसे थप्पड़ भी पड़ते हैं। इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म में पुरुष और महिला के बीच किस हद तक असमानता है। इस सबके बाद भी जब नायिका काबू में नहीं आती तो एक दृश्य में हीरो कहता है 'शादी में डर होना चाहिए।' पूरी फिल्म में नायिका को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने वाली संस्कारी बताया गया। असल में इस फिल्म पर चर्चा इसलिए जरूरी हो जाती है, कि ऐसी फ़िल्में ही बहस छेड़ती हैं। यह बहस इस बात की, कि औरतों को कितनी आजादी चाहिए। ऐसी फिल्में अलग तरह के समाज की कल्पना करती हैं, जिसमें औरतों के साथ गुलाम की तरह व्यवहार किया जाता है। पुरुष ये क्यों तय करें कि मां, बहनें या फिर पत्नी क्या पहनेंगी, क्या पियेंगी! उनकी हिफाजत की ज़िम्मेदारी सदियों पहले भी मर्दों के हाथ में थी और आज भी है।
इस फिल्म में नायिका की भूमिका को दोयम दर्जे से भी नीचे जगह दी गई। कई दृश्यों में बहस करने पर उसे थप्पड़ भी पड़ते हैं। इसी से समझा जा सकता है कि फिल्म में पुरुष और महिला के बीच किस हद तक असमानता है। इस सबके बाद भी जब नायिका काबू में नहीं आती तो एक दृश्य में हीरो कहता है 'शादी में डर होना चाहिए।' पूरी फिल्म में नायिका को धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करने वाली संस्कारी बताया गया। असल में इस फिल्म पर चर्चा इसलिए जरूरी हो जाती है, कि ऐसी फ़िल्में ही बहस छेड़ती हैं। यह बहस इस बात की, कि औरतों को कितनी आजादी चाहिए। ऐसी फिल्में अलग तरह के समाज की कल्पना करती हैं, जिसमें औरतों के साथ गुलाम की तरह व्यवहार किया जाता है। पुरुष ये क्यों तय करें कि मां, बहनें या फिर पत्नी क्या पहनेंगी, क्या पियेंगी! उनकी हिफाजत की ज़िम्मेदारी सदियों पहले भी मर्दों के हाथ में थी और आज भी है।
'एनिमल' से पहले 'कबीर सिंह' के कुछ दृश्यों पर आपत्ति उठाई गई थी। शाहिद का किरदार नशा करते हुए, गालियां देते हुए, लोगों को पीटते दिखाया गया था। चाकू की नोक पर एक लड़की को कपड़े उतारने को कहता है। हीरोइन को मारता है, लड़की की बिना इच्छा कॉलेज में घोषणा करता है कि यह उसकी ‘बंदी’ है, कोई उसकी तरफ देखेगा भी नहीं। वह हीरोइन पर शादी के लिए दबाव बनाता है। ऐसी हरकतों के बावजूद कबीर को बेचारा बताने की कोशिश की गई। वहीं कबीर की प्रेमिका नायक के ख़राब बर्ताव, गुस्से और दबाव के बावजूद उसके सामने झुकी रहती है। इस तरह के दृश्यों को मर्दानगी का विकृत स्वरूप और महिलाओं को कमजोर दिखाने की कोशिश है।
मसला सिर्फ इन दो फिल्मों तक सीमित नहीं है। शाहरुख खान की 1993 में आई फिल्म 'डर' में भी नायक का हद से ज्यादा प्यार का पागलपन था। लेकिन, उस किरदार को विलेन की तरह दिखाया गया। 1990 की फिल्म 'राजा' में नायक आमिर खान अपने अपमान का बदला लेने के लिए नायिका माधुरी दीक्षित से जबरदस्ती शादी करता है। फिर भी वो उससे प्यार करने लगती है। सलमान खान की फिल्म 'तेरे नाम' (2003) में नायिका हमेशा नायक के खौफ में जीती है, फिर भी उसे प्यार करती है। सैकड़ों ऐसी फिल्मों के उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें हीरो की जबरदस्ती और हिंसा के बावजूद नायिका को खूंखार नायक ही पसंद आता है।
फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं सिर्फ नायक को रिझाने और एक विपरीत किरदार होने के अलावा दूसरे मामलों में भी कमतर ही रही। आईबीएम रिसर्च और ट्रिपल आईटी दिल्ली ने 5 साल पहले बीते 50 साल में आईं करीब 4 हजार हिंदी फिल्मों की इसी विषय पर रिसर्च की। इसमें देखा गया था कि फिल्म की कहानियों के ऑनलाइन सिनॉप्सिस में महिलाओं और पुरुषों का कैसे जिक्र होता है। उनके लिए कैसे शब्दों, विशेषणों और क्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है।
मसला सिर्फ इन दो फिल्मों तक सीमित नहीं है। शाहरुख खान की 1993 में आई फिल्म 'डर' में भी नायक का हद से ज्यादा प्यार का पागलपन था। लेकिन, उस किरदार को विलेन की तरह दिखाया गया। 1990 की फिल्म 'राजा' में नायक आमिर खान अपने अपमान का बदला लेने के लिए नायिका माधुरी दीक्षित से जबरदस्ती शादी करता है। फिर भी वो उससे प्यार करने लगती है। सलमान खान की फिल्म 'तेरे नाम' (2003) में नायिका हमेशा नायक के खौफ में जीती है, फिर भी उसे प्यार करती है। सैकड़ों ऐसी फिल्मों के उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें हीरो की जबरदस्ती और हिंसा के बावजूद नायिका को खूंखार नायक ही पसंद आता है।
फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाएं सिर्फ नायक को रिझाने और एक विपरीत किरदार होने के अलावा दूसरे मामलों में भी कमतर ही रही। आईबीएम रिसर्च और ट्रिपल आईटी दिल्ली ने 5 साल पहले बीते 50 साल में आईं करीब 4 हजार हिंदी फिल्मों की इसी विषय पर रिसर्च की। इसमें देखा गया था कि फिल्म की कहानियों के ऑनलाइन सिनॉप्सिस में महिलाओं और पुरुषों का कैसे जिक्र होता है। उनके लिए कैसे शब्दों, विशेषणों और क्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है।
स्टडी में सामने आया कि जहां कहानी में पुरुषों का जिक्र औसतन 30 बार आया, वहीं महिलाओं का जिक्र 15 बार आया। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह दर्शाता है कि महिला किरदारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। हीरो के लिए ज्यादातर मजबूत, सफल, ईमानदार जैसे विशेषण और मार दिया, गोली मार दी, बचा लिया, धमकाया जैसी क्रियाओं का इस्तेमाल किया गया। वहीं हीरोइन के लिए खूबसूरत, प्यारी, विधवा, आकर्षक, सेक्सी जैसे विशेषण और शादी की, स्वीकार किया, शोषण हुआ, मान गई जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया। करीब 60% महिला किरदारों को टीचर बताया गया, वहीं पुरुष किरदारों के पेशों में ज्यादा विविधता देखी गई। नायिकाओं के अपमान का ये मुद्दा यहीं ख़त्म नहीं होता। जब तक फिल्मकार ऐसे कथानकों पर फ़िल्में बनाते रहेंगे, ये बहस जारी रहेगी। क्योंकि, महिलाओं को पुरुष की बराबरी का दर्जा सिर्फ कहने से नहीं मिलेगा, उसके लिए सोच बदलना पड़ेगी। इसके लिए सिनेमा को भी बदलना पड़ेगा।
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