Friday, January 29, 2016

कांग्रेस के 'मिशन-2018' में क्या फिर मठाधीश उभरेंगे?




- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों बेहद उत्साहित है। पार्टी को कुछ सफलताएं भी हाथ लगी! झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में भाजपा पूरी ताक़त झोंकने के बाद भी जीत नहीं सकी, सफलता कांग्रेस को मिली! कुछ निकाय चुनावों में भी कांग्रेस ने भाजपा को पछाड़ा! अब, कांग्रेस का सारा जोर मैहर उपचुनाव में कमाल करने पर है! इस तात्कालिक सफलता का असर ये हुआ कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को हटाने की जो कोशिशें तेजी पकड़ रही थी, ठंडी पड गई! कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंपने के लिए जिस 'मिशन - 2018' की स्क्रिप्ट लिखी गई थी, उसे फिलहाल किनारे कर दिया गया! शायद मैहर विधानसभा उपचुनाव को लेकर ये फैसला किया गया हो! इंतजार इस बात का है कि 'मिशन-2018' की स्क्रिप्ट में कोई बदलाव होता है या कुछ दिनों बाद उसे फिर हवा दी जाती है? 
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   मध्यप्रदेश कांग्रेस में पिछले कुछ महीनों से अध्यक्ष को लेकर खींचतान चल रही हैं! कई नेता अध्यक्ष पद की दौड में हैं। प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव पर करीब सालभर से तलवार लटक रही हैं। झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव जैसे हीं कांग्रेस ने जीता, वैसे हीं कांग्रेस के बडे नेताओं को अध्यक्ष की कुर्सी दिखाई देने लगी! उन्हें लगने लगा कि आने वाला समय कांग्रेस का है। अगले चुनाव में कांग्रेस फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो सकती है। कांग्रेस के कार्यकर्ताओ में भी उत्साह नजर आने लगा हैं। पार्टी का मानना है कि बिहार चुनाव, फिर झाबुआ चुनाव के बाद ही दिखाई देने लगा कि अब मोदी-लहर उतार पर है। जिस मध्यम वर्ग मोदी को सर पर उठा लिया था, महंगाई के कारण उसी वर्ग का भाजपा से मोहभंग होने लगा है! इसके अलावा लोग प्रदेश सरकार से भी नाराज। है जनता पर कई टैक्स और भ्रष्टाचार के मुद्दों को लेकर कांग्रेस अब 2018 के चुनाव पर नजर लगाए हुए हैं। नेताओं का मानना है कि 2018 में कांग्रेस विधानसभा चुनाव फतह कर लेगी! यही कारण है कि प्रदेश अध्यक्ष को लेकर लोगों की लार टपकने लगी हैं। बीच में जो नाम सामने आए थे, उनमें कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मुकेश नायक और अतिउत्साही जीतू पटवारी के नाम शामिल थे। कांग्रेस ने प्रदेश सत्ता पाने के लिए 'मिशन-2018' की तैयारी के लिए कांग्रेस मध्यप्रदेश की कमान कमलनाथ को सौंपने का मन बना भी लिया! इस मिशन की तैयारी के लिए पार्टी अभी से उन्हें प्रदेश में सक्रिय करना चाहती है! लेकिन, राजनीतिक हालातों में बदलाव के कारण इसकी घोषणा रोक दी गई! 

  इतने सबक लेकर भी कांग्रेस में गुटबाजी कम हुई हो, ऐसा नहीं लगता! दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया में नहीं बनती, यह जगजाहिर हैं। दिग्विजय सिंह को मुकेश नायक भी पसंद नहीं! ऐसे में पार्टी हाईकमान ने कुछ महीने पहले फैसला किया कि दिग्विजय सिंह कमलनाथ का सम्मान करते हैं! वे आर्थिक रुप से मजबूत भी हैं! प्रदेश में उनके कई समर्थक हैं, तो उन्हें कमान सौंप दी जाए! लेकिन, ये मुहिम कांग्रेस को मिली तात्कालिक सफलता से हाशिये पर चली गई! जब कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने की हलचल तेज हुई, तो सिंधिया समर्थक भी तैयारी में लग गए! उनका मानना है कि युवा होने के कारण सिंधिया के नाम पर भी विचार किया जाना चाहिए! लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव में सिंधिया को चुनाव प्रचार की बागडोर सौंपकर पार्टी देख चुकी है कि उनके प्रचार से पार्टी सिर्फ 58 सीटों पर सिमट गई थी! उनके राजसी व्यवहार से भी पार्टी कार्यकर्ताओं को हज़ार शिकायतें हैं! इसके बाद भी पार्टी उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंप सकती है, इस बात की उम्मीद कम ही है!    
  कमलनाथ के हाथों में मध्यप्रदेश की कमान देने की ख़बरों ने प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति को गरमा दिया था। अध्यक्ष अरुण यादव के विरोधी इससे खुश भी हुए, लेकिन मुहिम अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकी! यादव की नई कार्यकारिणी से नाराज नेता भी इस बहाने अपने लिए राहत खोजने लगे थे! प्रदेश कांग्रेस के नए अध्यक्ष के लिए नवंबर-दिसंबर में चुनाव होना थे! संगठन चुनाव के जरिए ही अध्यक्ष तय होना था! लेकिन, लगता है मैहर चुनाव को देखते हुए, इस फैसले को टाल दिया गया! आलाकमान ने कमलनाथ के नाम पर विचार की बात कहकर नई बहस छेड़ दी! अभी तक कमलनाथ छिंदवाड़ा तक ही सक्रिय रहे थे। विधानसभा और लोकसभा चुनाव के समय भी उन्होंने प्रदेश में कोई शिरकत नहीं की। कुछ महीने पहले जबलपुर में जरूर कमलनाथ ने यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमरिंदरसिंह राजा बरार के साथ व्यापमं घोटाले को लेकर हुए आंदोलन में हिस्सेदारी की थी। पिछले दो दशक में शायद कमलनाथ का यह पहला मैदानी आंदोलन था। लेकिन, किसी एक आंदोलन से किसी नेता की नेतृत्व क्षमता का आकलन हो जाए, कैसे संभव है? फिर एक सवाल ये भी है कि क्या कारण है, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ दोनों ही लोकसभा चुनाव तो जीत जाते हैं, पर उनके इलाके पार्टी विधानसभा चुनाव हार जाती है! यदि दोनों नेताओं का अपने इलाके में प्रभाव है तो विधानसभा सीटों पर वो असर दिखाई क्यों नहीं देता?    
  कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा प्रदेश के मुखिया की कुर्सी के लिए सबसे ज्यादा बेताब विधायक जीतू पटवारी भी दिखाई दिए! प्रदेश के 12-13 जिलो में कई आंदोलन करके वे अपना नाम सामने भी ला चुके हैं। पटवारी फिलहाल राहुल गांधी की कोर कमेटी में हैं, वे इसी का फायदा उठाने की कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन, उनसे किसी बड़े चमत्कार उम्मीद करना बेमानी होगा! सिर्फ राऊ विधानसभा चुनाव जीत लेना, योग्यता इसलिए नहीं माना जा सकता कि उनके प्रतिद्वंदी की हार के पीछे कुछ और कारण भी थे! जीतू पटवारी के साथ हीं मुकेश नायक को भी प्रदेश अध्यक्ष की दौड में शामिल माना जा रहा हैं! सत्यदेव कटारे के बीमार होने के बाद मुुकेश नायक को सामने आने का मौका भी मिला!  
  ये बात भी देखी जाना चाहिए कि अरुण यादव को चुनावों में जीत के रूप में लगातार संजीवनी मिल रही हैं! आंबेडकर जयंती पर राहुल गांधी की महू में हुई सभा को भी काफी सफल माना गया! इस कारण भी अरुण यादव को अपने सफल नेतृत्व को साबित करने का समय मिला! झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत के बाद एक बार फिर कांग्रेस को लेकर वोटर गंभीर दिखे हैं। अरुण की 'जन विश्वास पदयात्रा' को भी अच्छा प्रतिसाद मिला, जो इस बात संकेत है कि उनके नेतृत्व की असली परीक्षा अभी नहीं हुई! 
  कांग्रेस हाईकमान ने जब प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए अरुण यादव पर भरोसा जताया था, तब इसके पीछे  कारण ओबीसी कार्ड चलना भी रहा! पार्टी कार्यकर्ताओं को यह संदेश देने की कोशिश भी की गई थी कि अब प्रदेश के मठाधीशों की ज्यादा नहीं चलेगी! एक कारण जातीय समीकरणों को साधना रहा था! भाजपा ने अपने शासनकाल में तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान दिए, जो ओबीसी वर्ग से आते हैं। यादव के बहाने कांग्रेस ने इस वोट बैंक में भी जनाधार बढ़ाने का प्रयास किया! जब अरुण यादव नाम चला, तब ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी यह जिम्मेदारी देने का विचार किया गया था! कमलनाथ समर्थक बाला बच्चन के नाम पर भी विचार किया गया था। लेकिन, मौका अरुण यादव को दिया गया! लेकिन, लगता है उन्हें सफलता मिलने में थोड़ी देर लगी! यदि वक़्त पार्टी ने फिर पत्ते फैंटने कि कोशिश की, तो बाजी पलट भी सकती है! 
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(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)

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