प्रदेश भाजपा संगठन को फिर नए रूप में ढ़ालने कि कवायद शुरू हो गई! पहले मंडल अध्यक्षों के चुनाव हुए, अब जिला अध्यक्षों के नाम घोषित कर दिए गए हैं। अंतिम चरण में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का नाम फाइनल होगा! लेकिन, लगता नहीं कि सारे संगठनात्मक पाखंड के बाद भी मंडल और जिला अध्यक्षों के नामों का फैसला सर्वानुमति से हुआ है! मंडल अध्यक्षों को लेकर तो मामला बाहर नहीं आया! पर, जिला अध्यक्षों के नाम सामने आने के बाद चारों तरफ विरोध के स्वर उभरने लगे! जो जिला अध्यक्ष बनाए गए हैं, उनमें से करीब दो दर्जन नाम ऐसे हैं, जिनके नाम पर सर्वानुमति नजर नहीं आती! ऐसे में पार्टी के वो ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता पिछड़ गए, जो अध्यक्ष बनने कि उम्मीद में पार्टी नेताओं के सामने अब तक फर्शी सलाम करते रहे हैं। ये पद अब इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गए कि जिला संगठन मंत्रियों को हटा दिया गया है! जिला अध्यक्षों पर अब किसी तरह का अंकुश नहीं रहा! 000
- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश के भाजपा जिला अध्यक्षों के चयन में पूरा दखल भोपाल में बैठे चंद नेताओं का रहा! भाजपा ने रायशुमारी से जिला अध्यक्ष बनाए जाने का जो प्रोपोगंडा किया था, उसका सच भी सामने आ गया! ऐसे लोग भी कुर्सी पर काबिज हो गए, जिनके नाम रायशुमारी में कहीं थे ही नहीं! उन्हें संगठन नेताओं और मंत्रियों से नजदीकी और 'पहुँच' का इनाम दिया गया! उनकी 'मुद्रा' उनकी पद प्राप्ति का सबसे बड़ा माध्यम बनी! ये कहानी किसी एक इलाके में नहीं, प्रदेश के अधिकांश जिलों में हुई! पार्टी जिस परिवारवाद से मुक्त होने, महिलाओं को राजनीति में पर्याप्त स्थान देने, भ्रष्ट आचरण वाले नेताओं से किनारा करने, युवाओं को आगे लाने और रायशुमारी से नेतृत्व को समृद्ध करने का दावा करती है, वो सब सारी कसमें यहाँ खंडित हो गई! कांग्रेस पर जिन बातों के लिए ऊँगली उठाई जाती थी, वो सारी खामियाँ अब उसी भाजपा में नजर आने लगी है, जो खुद के गंगा जैसा पवित्र होने का दावा करते नहीं अघाती थी! चुनाव में टिकटों के बिकने, संगठन में पदों कि बोली लगने जैसे आरोपों के बाद अब जिला अध्यक्षों की कथित रायशुमारी भी दागदार हो गई!
शुचिता और अनुशासन की बात करने वाली पार्टी ने इस बार जिला अध्यक्षों के चयन में कई अनोखे प्रयोग भी किए! पार्टी के राजनीतिक इतिहास में संभवतः ये पहला मौका है, जब पार्टी में किसी पद पर रहे बगैर कोई व्यक्ति सीधा जिला अध्यक्ष बना हो! यह प्रयोग सागर में किया गया! इस जिले की कमान राजा दुबे को सौंपी गई है। वे कभी भाजपा में किसी पद पर नहीं रहे। भाजपा के व्यापारी प्रकोष्ठ के पदाधिकारी जरूर थे! न ही वे सागर संसदीय क्षेत्र के बाशिंदे हैं। उनका गाँव सागर जिले के देवरी का तेंदुडाबर है,जो दमोह संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। राजा दुबे का भोपाल में ऑटो मोबाइल्स और रियल स्टेट का कारोबार है। यहाँ से पूर्व विधायक भानू राणा का नाम अध्यक्ष पद में सबसे आगे था। लक्ष्मण सिंह और शैलेष केशरवानी भी लाइन में थे, पर राजा दुबे कि 'मुद्रा' पकड़ भारी रही! उन्हें राजनीति में आए भी ज्यादा अरसा नहीं हुआ! वे अभी तक भाजपा में भी नहीं थे। एनजीओ के जरिए समाजसेवा कर रहे थे।
राजा दुबे को सागर का जिला अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर हलकों में कई कहानियाँ सुनाई जा रही है। सोशल मीडिया पर ऐसे किस्से भी सुनाये जा रहे हैं, जो पार्टी कि 'सुचिता' पर ऊँगली उठाते हैं। ऑटो मोबाइल और रियल स्टेट के कारोबारी होने के कारण राजा दुबे का ज्यादातर समय भी भोपाल में ही गुजरता है। कहा जा रहा है कि उन्हें दो मंत्रियों और संगठन के एक बड़े नेता कि नजदीकी के कारण नवाजा गया है। कहानी ये भी है कि उन्होंने सागर भाजपा का जिला कार्यालय बनवाया है, इसलिए इसकी चाभी भी पार्टी ने उन्हें ही सौंप दी! एक दिलचस्प बात ये कि सागर लोकसभा क्षेत्र के शमशाबाद के विधायक सूर्यप्रकाश मीणा को विदिशा जिले का भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है। लोकसभा क्षेत्र के गणित के हिसाब से ये मामला भी बिलकुल विपरीत है!
उज्जैन में नगर अध्यक्ष का पद फिर से इकबालसिंह गांधी को सौंप दिया गया! जबकि, सच्चाई ये है कि संगठन मंत्री राकेश डागौर कार्यकर्ताओं की पहली पसंद थे। यहां किशोर खंडेलवाल और विनोद कांवड़िया के नामों पर भी कुछ विधायक अड़े थे! पर, संगठन मंत्री अपनी पसंद के इकबालसिंह को फिर जिला अध्यक्ष बनवाने में सफल रहे। गाँधी के नाम को मंत्री पारस जैन का भी समर्थन रहा! इसी तरह दमोह में मंत्री जयंत मलैया की पसंद को देखते हुए देवनारायण श्रीवास्तव को जिला अध्यक्ष बनाया गया। युवाओं को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली पार्टी ने देवास में 72 साल के गोपीकृष्ण व्यास को जिला अध्यक्ष बना दिया। सिर्फ इसलिए कि वे पार्टी के बड़े नेता कैलाश जोशी के समर्थक हैं। एक तरफ जब पार्टी 60 के नेताओं रिटायर करने की बात कर रही है तो 72 साल के व्यासजी क्या पार्टी नैया पार लगाएंगे। नरसिंहपुर में तो पार्टी कि हालत ये है कि वहां पार्टी को जनसंघ के ज़माने से घूम फिरकर एक ही नेता कैलाश सोनी अध्यक्ष पद के लिए नजर आ रहा है!
जिला अध्यक्ष पद पर परिवारवाद को प्रश्रय देने का मामला भी खुलकर सामने आया! छतरपुर में पुष्पेन्द्रप्रताप सिंह को जिला अध्यक्ष बनाया गया। जबकि, उनकी पत्नी अर्चना सिंह वहाँ कि नगरपालिका अध्यक्ष है। क्या एक ही घर में दो बड़े दिए जाने थे? मुद्दे कि बात ये है कि विधायक ललिता यादव ने पुष्पेन्द्रप्रताप सिंह के नाम का विरोध किया था, पर उनकी बात को अनसुना कर दिया गया! कहा जा रहा कि उन्हें इंदौर में पदस्थ संगठन के एक बड़े पदाधिकारी ने 'एडजस्ट' करवाया है। इसी तरह सदानंद गौतम को पन्ना जिले का फिर से अध्यक्ष बनाया गया है। क्योँकि, वे संगठन के कुछ नेताओं के बेहद करीबी थे। जबकि, पन्ना जिले के ही दो बड़े नेताओं ने उनका विरोध किया था। भिंड जिले में संजीव कांकर को संगठन नेताओं की मेहरबानी से जिला अध्यक्ष बनाया गया है। ये जानते हुए कि रीवा में संगठन मंत्री रहते उन पर विधायक अभय मिश्रा से हथियार खरीदने के आरोप लगे थे। ग्वालियर और चम्बल इलाके के तो करीब सभी जिला अध्यक्ष केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर पसंद से बनाए गए हैं। ये उसी तरह का क्षत्रपवाद है, जो कांग्रेस कि पहचान रही है। भाजपा में भी अब उसी तरह के क्षत्रप हावी हैं, जो अपने इलाके की फ़ौज के सेनापति बनकर पार्टी के अंदर ही मोर्चे लड़ाया करते हैं।
महिलाओं को राजनीति में सम्मानित स्थान देने और दिलवाने का दावा भाजपा कई बार कर चुकी है! लेकिन, जब पार्टी के सामने किसी महिला को संगठन में लेने या जिला अध्यक्ष बनाने का सवाल उठता है तो कन्नी काट ली जाती है। 43 जिला अध्यक्षों की लिस्ट में सिर्फ एक महिला का नाम दिखाई दिया! सिवनी से ही पूर्व विधायक नीता पटैरिया को पार्टी ने जिला अध्यक्ष का पद दिया गया है। जबकि, वे अभी भी प्रदेश मंत्री पद पर हैं। इससे पहले मंडल अध्यक्षों चुनाव में भी करीब 700 मंडलों के चुनाव में सिर्फ सारनी में एक महिला को मंडल अध्यक्ष का पद दिया गया! क्या पार्टी संगठन को चार दर्जन से ज्यादा जिलों में 8-10 योग्य महिला नेता भी नहीं मिलीं, जिन्हे जिला अध्यक्ष बनाया जा सके?
इंदौर जैसे जागरूक शहर में नगर अध्यक्ष पद पर 'निष्क्रिय' कैलाश शर्मा के नाम पर दोबारा मुहर लगा दी गई! जबकि, कैलाश शर्मा पर हमेशा फैसलों से बचने के आरोप चस्पा रहे हैं। अध्यक्ष के लिए रायशुमारी की बात सामने आते ही वे यकायक सक्रिय हो गए। जबकि, अपने 23 महीने के कार्यकाल के बाद भी उन्होंने नगर कि कार्यकारिणी तक नहीं बनाई! सालभर बाद भी वे निगम के जोनल अध्यक्ष के लिए नाम तक तय नहीं करवा सके? कैलाश शर्मा को दोबारा नगर अध्यक्ष न बनने देने के लिए आखिर समय तक कोशिश की गई। वे रायशुमारी में भी पीछे थे। लेकिन, संगठन ने सबकी सलाह लेने की बात कहकर नगर और जिला अध्यक्ष के नाम घोषित कर दिए। इस पद के दूसरे दावेदार उमेश शर्मा का नाम अंत तक सामने था! लेकिन, किसी भी नेता ने भी उनका नाम आगे नहीं बढ़ाया। इस पद के तीसरे दावेदार कमल वाघेला को कोई भी महामंत्री से नगर अध्यक्ष पद देने को राजी नहीं था।
अशोक सोमानी को इंदौर भाजपा का जिला अध्यक्ष घोषित किया गया। इंदौर के ही जिला अध्यक्ष पद के लिए अशोक सोमानी को लेकर भी खींचतान हुई। जिले की राजनीति में दोनों गुटों में तीन साल में कई बार आमना-सामना हुआ। बड़े नेताओं ने दोनों विधायकों को बुलाकर सहमति बनाने का प्रयास किया। लेकिन, दोनों ही गुट अपने समर्थक उम्मीदवारों के नाम पर अड़े रहे। भोपाल में हुई रायशुमारी के दौरान जब दोनों गुटों में सहमति नहीं बनी तो दोनों ने ओम परसावदिया का नाम आगे बढ़ाया, लेकिन संगठन ने अशोक सोमानी के नाम पर सहमति दे दी।
आदिवासी बहुल जिले धार में भी एक अनजान से चेहरे डॉ राज बरफा को जिला अध्यक्ष बना दिया गया! ये बिल्कुल अप्रत्याशित सा नाम है। ख़ास बात ये भी कि निवर्तमान अध्यक्ष रमेश धारीवाल भी कुक्षी से थे और राज बरफा भी उसी इलाके के हैं! क्या जिले का सारा भाजपा राजनीतिक कौशल कुक्षी में ही समाया है, जहाँ से पार्टी विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारी है। कभी सक्रिय राजनीति में दिखाई न देने वाले डॉ बरफा का नाम अध्यक्ष की दौड़ में भी अचानक आया! डॉ बरफा को विधायक रंजना बघेल का भी खास माना जाता है। दरअसल, इस जिले में भाजपा के कई बड़े नेता हैं और किसी की एक-दूसरे से नहीं पटती! उस सबके बीच तालमेल बैठा पाना क्या राज बरफा जैसे अदने नेता कि हिम्मत होगी? रायशुमारी के दौरान बंद कमरे में पार्टी पर्यवेक्षक महेन्द्र हार्डिया के सामने भी दो पूर्व जिला अध्यक्षों ने गंभीर आरोप लगाए थे! मुद्दे की बात ये है कि धार का जिला अध्यक्ष का चयन भी संदेह के घेरे से बाहर नहीं है! आलीराजपुर से राकेश अग्रवाल, बड़वानी से ओम खंडेलवाल, धार से डॉ राज बरफा, झाबुआ से दौलत भावसार और खरगौन से बाबूलाल महाजन को जिला अध्यक्ष बनाया गया है! जबकि, ये सभी आदिवासी जिले हैं और अध्यक्ष बनाए गए हैं गैर आदिवासी!
निमाडी जिले खरगौन में पूर्व विधायक बाबूलाल महाजन को जिले कमान दी गई है। जबकि, 2003 में खरगौन से विधायक रहे महाजन का टिकट 2008 में इसलिए काटा गया था कि उनपर भ्रष्टाचार और चंदाखोरी के आरोप लगे थे। अब पार्टी को उनमें ऐसी क्या ईमानदारी दिखाई दी कि उनको जिला सौंप दिया गया? क्या इस तरह के फैसले इशारा नहीं करते कि कहीं न कहीं कोई बड़ी 'गड़बड़' हुई है! आदिवासी जिले झाबुआ में किसी आदिवासी के बजाए दौलत भावसार को जिला अध्यक्ष बनाया जाना 'संदेह' की तरफ संकेत देता है। जबकि, हाल ही में हुए लोकसभा उपचुनाव में पार्टी हार चुकी है। इस हार के बाद जिला अध्यक्ष क्या किसी आदिवासी को नेता नहीं बनाया जाना था? उनका नाम झाबुआ जिले में ही जाना पहचाना नहीं है। सीधी के जिला अध्यक्ष की चुनावी प्रक्रिया में 38 नेताओं ने दावेदारी पेश की! अध्यक्ष पद के लिए भाजपा नेताओं की इतनी बड़ी फौज देखी गई। सभी अपने आपको अध्यक्ष के योग्य बताने में कोताही नहीं बरत रहे थे। कैडर बेस कही जाने वाली पार्टी में एक साथ इतने लोगों का अध्यक्ष पद की दावेदारी करना और किसी एक (लालचंद गुप्ता) को सबसे योग्य मानकर जिला अध्यक्ष बना दिया जाना, क्या 'कुछ' होने कि तरफ इशारा नहीं करता?
(लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)
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