Friday, March 25, 2016

डंडे से जोर से नहीं बदलेगी खुले में शौच की आदत!


- हेमंत पाल

  इन दिनों पूरे देश साथ प्रदेशभर में 'खुले में शौच से मुक्ति' का अभियान चल रहा है। जिलों का पूरा सरकारी लवाजमा आजकल इसी काम में लगा है। लगता है जैसे प्रशासन के पास बस यही एक काम बचा! गांव को सुधारने का ये अभियान इस तरह चलाया जा रहा है, जैसे सारे गांव अभी तक बिगड़े हुए थे। कोई ये नहीं सोच रहा कि सदियों से चल रही ये प्रथा सरकारी डंडे से नहीं, लोगों का सोच बदलने से बदलेगी! खुले में शौच सिर्फ लोगों की मज़बूरी नहीं, एक आदत है। गांव में कई लोगों के यहाँ टॉयलेट होते हुए भी वे खुले में ही जाते हैं! उसके पीछे मूल कारण कि उनकी बरसों से यही आदत पड़ी है। अब सरकार रातों रात गाँव वालों को बदलने की कोशिश में है। ख़ास बात ये है कि प्रशासन सख्ती से ये आदत बदलने की कोशिश में है, जो संभव नहीं! 
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   जाने-माने व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध रचना 'राग दरबारी' में उन्होंने खुले में शौच की मध्ययुगीन मानसिकता पर गहरा आघात किया है। साथ ही देश को आधुनिक बताने के पाखंड पर चोट की है। लेखक के मुताबिक जिस देश में करोड़ों लोगों को शौच करने की सुविधा नहीं है, वह देश तो मध्ययुगीन ही होगा! इस व्यंग्य रचना में गाँव की महिलाओं के खुले में शौच करने का दृश्यांकन इस लिहाज से 'क्लासिक' है कि इसमें भारत की भारतीयता और इसकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। इस प्रकार के वर्णनों को पढ़कर संभ्रांत और कुलीन आलोचकों/पाठकों को भदेसपन की बू आ सकती है! पर, जब यही सच है तो है! जिनके घर में टॉयलेट हैं वे तो नाक भौं सिकोड़ेंगे ही! जिन्हें बरसात में घर से बाहर शौच के लिए निकलना पड़ता है, उनका दर्द इस व्यंग्य उपन्यास में खुलकर व्यक्त हुआ है! भलेमानुस की भलमनसियत की मलामत भी की गई है। लगता है श्रीलाल शुक्ल की इसी व्यंग्य रचना ने ही सरकार को खुले में शौच के मुद्दे पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया!

  इंदौर जिले को खुले में शौच से मुक्त कर दिए जाने की घोषणा 26 जनवरी को की गई थी! दावा किया गया कि खुले में शौच से मुक्त होने वाला इंदौर प्रदेश में पहला और देश में पश्चिम बंगाल के नादिया के बाद दूसरा जिला है। जिले की 312 ग्राम पंचायतों के 610 गांवों के हर घर में शौचालय बन चुके हैं। वहाँ के नागरिकों ने खुले में शौच जाना बंद कर दिया है। कंपेल पंचायत के 40 घरों में शौचालय बनना बाकी है। प्रशासन का कहना है कि यह उपलब्धि देश में सबसे अलग है, जिसमें लोगों ने इसे खुद हांसिल किया! देश में बाकी जगह ये सरकार के द्वारा प्राप्त किया कार्यक्रम था! कहा जा रहा है कि इंदौर का ये मॉडल देश और प्रदेश के लिए रोल मॉडल बनेगा! इंदौर का खुले में शौच से मुक्त होना देश का पहला ऐसा मॉडल है जो मांग आधारित है! गांव के बच्चों, महिलाओं ने माता-पिता से जिद की और घरों में शौचालय बनवाए! लोग शौचालय का उपयोग भी कर रहे हैं। इसका प्रमाणीकरण हो गया है। इसमें कितना सच है, इसका दावा नहीं किया जा सकता! क्योंकि, शौच की आदत दबाव से नहीं सोच से ही बदल सकना संभव है! इंदौर का झोपड़पट्टी इलाका इस सबके लिए अभिशप्त है, पर प्रशासन शायद दिखाई नहीं दे रहा!
  इंदौर जिले की मौरोद पंचायत में 'खुले में शौच मुक्ति' का अभियान बच्चे चला रहे हैं! जब कोई व्यक्ति शौच करने बाहर जाता है, तो इस गांव के 30 से अधिक बच्चे सुबह 4 बजे से उठकर सीटी बजाते हैं! खुले में शौच जाने वालों को सचेत करते हैं, उन्हें समझाते तथा रोकते हैं! केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि बच्चों की इस 'वानर सेना' ने जो कार्य किया वह प्रशंसनीय है। इंदौर के 700 से अधिक गांव में 10 हजार से अधिक बच्चों की 'वानर सेना' सफाई के लिए पुल बना रही है। रविशंकर प्रताप सिंह ने कहा कि वे इस वानर सेना के प्रवक्ता बनेंगे और अपने ट्विटर और फेसबुक एकाउंट पर भी इसका उल्लेख करेंगे! सरकार का लोगों को उत्साहित करने का ये नजरिया सही तो है, पर क्या इस सबसे स्थाई हल निकल पाएगा? गाँवों को खुले में शौच से मुक्ति की बात की जा रही है, पर क्या इस तरह के पाखंडों से इंदौर शहर इस बीमारी से मुक्त हो पाएगा?  
  प्रदेश सरकार ने अक्टूबर 2014 से सितंबर 2015 के बीच लगभग 5.69 लाख शौचालय बनवाए थे! जबकि, 5 साल की कार्ययोजना के अनुसार लक्ष्य 90 लाख था। इसमें एक साल में एक लाख 80 हज़ार शौचालय बनना चाहिए थे! इस हिसाब से मध्यप्रदेश सरकार की उपलब्धि लगभग 31.7 प्रतिशत रही! आशय ये कि सरकार फेल हो गई। इस गति से 2019 तक लगभग 28,45,000 शौचालय ही बन सकेंगे। ये होगा कि निर्धारित लक्ष्य के बाकी 61,58,900 शौचालय बनाने के लिए 2019 के बाद 11 साल और लगेंगे। लक्ष्य 2030 तक या इसके बाद ही हासिल हो सकेगा। इसमें भी गुणवत्ता और लोगों द्वारा उनके उपयोग की गारंटी शामिल नहीं है।
  पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि खुले में शौच से मुक्ति हमारे संस्कारों व प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ मसला है! इस अभियान को हमें और अधिक प्रभावी बनाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि लोगों की सोच में बदलाव लाने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएं। सभी कलेक्टर और जिला पंचायत सीईओ से अपेक्षा की गई है कि वे इस अभियान की कामयाबी के लिए सजग और गंभीर रहें! गोपाल भार्गव ने कहा कि लोगों की मानसिकता बदलने के लिए कुछ सख्ती करना पड़े तो प्रशासन स्वतंत्र हैं। शासन की योजनाओं का लाभ लेने वाले यदि खुले में शौच करते दिखें तो उनके राशन कार्ड निरस्त कर दिए जाएँ! जिनके बंदूक के लाइसेंस हैं और खुले में शौच करने जाते हैं, तो उनके लाइसेंस भी निरस्त कर दिए जाए। दरअसल, यही वो सरकारी डंडा है लोगों का इस अभियान का विरोध करने के लिए मजबूर करता है!
  इस सच को भी नाकारा नहीं जा सकता कि देश की आबादी का करीब आधा हिस्सा (62 करोड़ लोग) खुले में शौच करते हैं। बच्चों की करीब आधी आबादी के शारीरिक विकास के अवरुद्ध होने का कारण भी यही हो सकता है। कई शोध के नतीजों के कई लोग सहमत नहीं हैं कि असंतुलित आहार और खानपान की आदतें भी भारत में कुपोषण के लिए जिम्मेदार हैं। कई का यह मानना है कि गंदगी भी कुपोषण के कारकों में एक हो सकता है। ऐसे ‘मोबाइल टॉयलेट’ से मुक्ति हमारे लिए बड़ी चुनौती है।
  सरकारी योजनाओं में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। जो तस्वीर हमारे सामने रख रही है, उसे नकारना पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पॉपुलेशन हेल्थ के प्रोफेसर डॉ एस.वी. सुब्रमण्यम ने खुलासा किया है कि यह समस्या गरीब घरों में ही नहीं, संपन्न तबकों के बच्चों में भी है। इसकी वजह यह है कि संपन्न घरों में शौचालय की सुविधा होती है, पर उनके आसपास के कमजोर घरों में ऐसा नहीं होता! मक्खियों और पानी के माध्यम से वह भी बैक्टीरिया से संक्रमित होते हैं। इसलिए सुब्रमण्यम कहते हैं कि घरों में शौचालय होना सुरक्षा की गारंटी नहीं है!
शौचालय के इस्तेमाल से संबंधित आदत और सोच को बदलना खुले में शौच की प्रवृति को रोकने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यदि भारत साल 2019 तक खुले में शौच की परिघटना को समाप्त करना चाहे तो ग्रामीण इलाकों में शौचालय के निर्माण के साथ-साथ उसके उपयोग और रखरखाव को बढ़ावा देना बहुत जरुरी होगा।
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