Sunday, March 13, 2016

धाराओं में बंटे सिनेमा का असल मकसद


हेमंत पाल 

   फिल्मों को लेकर जब भी कभी गंभीर जिक्र छिड़ता हैं तो ये सवाल जरूर पूछा जाता है कि दर्शकों की पसंद का सिनेमा कौनसा है? सवाल सहज है, पर इसका जवाब उतना ही जटिल! क्योंकि, यही वो सवाल जिसका जवाब फिल्मों की सफलता का मापदंड होता है। दरअसल, हिंदी सिनेमा मुख्यतः दो धाराओं में बंटा है। एक में मुख्यधारा की फिल्में हैं, जिन्हें कमर्शियल या लोकप्रिय सिनेमा कहा जाता है। इस तरह की फिल्मों की सफलता का दृष्टिकोण व्यावसायिक सफलता से जुड़ा होता है। इन फिल्मों का हर साल सैकड़ों की संख्या में निर्माण होता है और इनकी कमाई भी उनकी लागत के मुताबिक होती है। ये फ़िल्में देखने वालों का भरपूर मनोरंजन करती हैं। दर्शक सबकुछ भूलकर इनमें डूब जाता है! इन फिल्मों का प्राणतत्व गीत-संगीत और नामचीन कलाकार होता हैं। ताजा जिक्र किया जाए तो आमिर खान की पीके, दक्षिण की फिल्म बाहुबली और सलमान खान की 'बजरंगी भाईजान! ये पूरी तरह काल्पनिक पटकथा को लेकर बनी मसाला फ़िल्में हैं, जिन्होंने जमकर मनोरंजन किया और सैकड़ों करोड़ का कारोबार किया!   

  दूसरी श्रेणी की फ़िल्में हैं हल्की-फुल्की हास्य और पारिवारिक कहानियों वाली फ़िल्में! आज ऐसी फिल्मों का अभाव है, पर थोड़ा पीछे जाया जाए, तो बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य, अमोल पालेकर, सई परांजपे और डेविड धवन, राजश्री प्रोडक्शन और कुछ हद तक रोहित शेट्टी को इस तरह की फ़िल्में बनाने में महारथ है।चुपके-चुपके, पिया का घर, अभिमान, नमक हराम,  आनंद, बावर्ची, गोलमाल सीरीज, रजनीगंधा, छोटी सी बात और बरफी ऐसी ही फ़िल्में हैं। राजश्री के बैनर तले भी पारिवारिक प्रसंगों पर आधारित फिल्में बनाईं जो संदेश और सुधारवादी दोनों दृष्टियों से मनोरंजन करती हैं। आरती, नदिया के पार, गीत गाता चल, दोस्ती, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, चितचोर, मैं तुलसी तेरे आँगन की तक की फिल्में पारिवारिक मूल्यों को मजबूती देने वाली फिल्में रही हैं। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस प्रोडक्शन हाउस ने मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, विवाह, मैं प्रेम की दीवानी हूँ और प्रेम रतन धन पायो फ़िल्में बनाई! ये फिल्में मनोरंजक होने के साथ ही भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं को भी पोषित करती रही हैं! 
  इन दो प्रमुख धाराओं के साथ ही एक सशक्त धारा समांतर सिनेमा या कला सिनेमा के रूप में भी विकसित होती रही है। कम बजट की, सच्चाई को उजागर करती और सपाट कथ्य लिए ये फ़िल्में विशेष सामाजिक मकसद की पूर्ति के लिए बनाई जाती हैं। इस धारा को विकसित करने वाले फिल्मकार एक नई सोच के साथ सामने आए! इनकी प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्व इनकी फिल्मों से उजागर हुआ! श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋतुपर्णों घोष, दीपा मेहता, अनुराग कश्यप को इसी श्रेणी का फिल्मकार माना जाता हैं। लेकिन, इस तरह की फिल्मों को उतने दर्शक नहीं मिलते कि इनकी व्यावसायिक सफलता का कोई आधार बन सके! इसी श्रेणी में देश के विभाजन की त्रासदी पर भी कुछ अच्छी फिल्में बनी! प्रकाश द्विवेदी की पिंजर, खुशवंत सिंह की कहानी पर ' ए ट्रेन टू पाकिस्तान और टेलीफिल्म तमस महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा गुजरात के दंगों पर बनी परजानिया, सिख दंगों पर आधारित अम्मू भी बहुत प्रभावशाली फिल्में हैं, जो इन समस्याओं के प्रति सोचने को मजबूर करती हैं। 90 के दशक में मणिरत्नम, बालचंदर और के विश्वनाथ ने भी बॉम्बे और रोजा जैसी फ़िल्में बनाकर कला और व्यावसायिक फिल्मों के बीच की नई धारा विकसित करने का प्रयास किया था! आतंकवाद और सांप्रदायिक दुराभाव के नतीजों को रेखांकित करने वाली इन फिल्मों को ख्याति भी मिली, पर अच्छे कथानक के अभाव में ये धारा पूरी तरह विकसित नहीं हो सकी!
  हर दौर में बदलते हालातों के साथ फ़िल्में समाज के हर रूप, रंग और सोच को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। समाज के बदलाव में फिल्मों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! फिल्में ही मनोरंजन के साथ ज्ञान, नए सोच को समृद्ध करने का कारगर उपाय है। समय के साथ फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में बदलाव दिखाई देता है! लेकिन, इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज का जुड़ाव ही प्रमुख रहा हैं। फिल्में ही समाज को एक नई सोच दे सकती हैं। लेकिन, जरुरत है कि मनोरंजन के अलावा सौद्देश फिल्मों के निर्माण का भी दौर आए, जैसा आजादी के बाद आया था! यदि ये हो सका तो ही मनोरंजन का मकसद भी सफल होगा!
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