Friday, May 27, 2016

कमलनाथ में मध्यप्रदेश का राजनीतिक तलाशती कांग्रेस!

- हेमंत पाल 


  कांग्रेस ने मध्यप्रदेश के 'मिशन 2018' के लिए तैयारी शुरू कर दी! पहला काम तो पार्टी शायद अध्यक्ष बदलकर करेगी! इसके लिए माहौल भी बनने लगा! अरुण यादव की कुर्सी का दावेदार लगभग तय हो गया! उद्योगपति और नेता कमलनाथ इस दावेदारी में सबसे आगे खड़े हैं! वैसे दौड़ में महाराजा और नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी माना जा रहा है, पर वे पीछे छूट गए! कमलनाथ समर्थकों का उत्साह भी दर्शा रहा है कि उनके नेता के पक्ष में कुछ 'अच्छा' होने वाला है! असम में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी संगठन में जिस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही जा रही है, उसमें मध्यप्रदेश के भी शामिल होने का अंदेशा है! फिर भी इस यक्ष प्रश्न का जवाब नहीं मिल रहा कि कमलनाथ के आने भर से पार्टी को कौनसा सत्ता का च्यवनप्राश मिल जाएगा? जो भी हो, अभी तो कांग्रेस में अंदर ही अंदर खदबदाहट जारी है!   
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   कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चाओं ने फिर जोर पकड़ लिया! कुछ महीने पहले प्रभारी नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने ये कहकर सनसनी मचा दी थी कि यदि कमलनाथ उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी जाती है तो पार्टी की हालत सुधरेगी! कमलनाथ पार्टी में नई जान फूंक देंगे। कुछ विधायकों ने भी बच्चन की बात का समर्थन किया था! एक विधायक निशंक जैन ने तो कदम आगे बढ़कर कहा कि कमलनाथ को न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए, बल्कि अगले चुनाव के लिए कांग्रेस की ओर से उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। इसी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी नाम चलाया गया, पर सिंधिया का ज्यादा समर्थन होता दिखाई नहीं दिया!  पिछले विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के एक धड़े ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को प्रदेश की कमान सौंपने के लिए अभियान चलाया था। लेकिन, बात चुनाव अभियान प्रभारी तक सीमित हो गई थी! उस समय भी सिंधिया समर्थकों की दाल नहीं गल पाई!
   मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव की नियुक्ति के साथ ही उनके बदले जाने के भी कयास लगने लगे थे। कांग्रेस ने उनमें कौनसी योग्यता देखकर उन्हें पार्टी की कमान सौंपी थी, इस बात का आकलन आजतक हो रहा है! क्योंकि, 2014 की हार के बाद कोई भी बड़ा नेता ये जिम्मेदारी सँभालने को तैयार नहीं हुआ था! लेकिन, 2018 के चुनाव नजदीक आने के साथ ही कांग्रेसियों को उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी! उन्हें लग रहा है कि यदि साझा रणनीति बनाकर मेहनत की जाए तो किला फतह करना मुश्किल नहीं है! लेकिन, जिसे जंग का सेनापति बनाया जाएगा, तय है कि जीत के बाद वही किले को भी संभालेगा! यही कारण हैं कि प्रदेश कांग्रेस में सेनापति बनने की होड़ लग गई! अरुण यादव बाद कुर्सी का सही दावेदार कौन होगा कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर कोई और? इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है! मैहर उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद मिले संकेतों के आधार पर ही मान लिए गया था कि कमलनाथ ने प्रदेश में पार्टी की बड़ी कुर्सी के लिए अपनी कोशिशें तेज कर दी! दिल्ली की राजनीति में फिलहाल उनके पास कोई बड़ी भूमिका नहीं है! करीब ढाई साल बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होना है! प्रदेश में अपनी भूमिका निर्धारित करने के प्रयासों के तहत ही वे इस तैयारी में लग गए है।
 वैसे इसकी तैयारी काफी पहले कर ली गई थी! लेकिन, सही समय का इंतजार किया जा रहा था, जो शायद अब आ चुका है। असम में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी की सबसे बड़ी टीम में भी बहुत कुछ बदलाव होने के संकेत हैं! इसी बदलाव की बयार में प्रदेश में भी कुर्सी पलट का दौर चलना करीब-करीब तय समझा जाना चाहिए! दिल्ली की बड़ी टीम में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों महासचिव पद की उम्मीद में हैं। लेकिन, प्रदेश से दिग्विजय सिंह भी महासचिव हैं, जिन्हें बदले जाने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही! इसलिए कार्यकारिणी में सिंधिया और कमलनाथ के समकक्ष किसी भूमिका की गुंजाइश नजर नहीं आ रही! ये भी एक कारण है कि कमलनाथ ने मध्यप्रदेश में खुद के लिए सम्भावनाएं खोज ली है! वे यहां कांग्रेस के 'मुखिया' बनना चाहते हैं! क्योंकि, उनकी नजर 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। तीसरी संभावना दिग्विजय सिंह को लेकर भी है, लेकिन शायद वे स्वयं अब खुलकर प्रदेश की राजनीति करने के मूड में नहीं है! पार्टी आलाकमान भी मध्य प्रदेश में अब किसी प्रयोग से बचना चाहता है!
   इंदिरा गाँधी के तीसरे बेटे के रूप में चर्चित कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की मांग अब सतह से ऊपर आने लगी है। साथ ही प्रदेश की राजनीति में इसके मायने भी निकाले जाने लगे! क्या दिल्ली दरबार में कमलनाथ का कद छोटा हो गया? क्या इस सोची-समझी रणनीति के पीछे दिग्विजय सिंह की कोई भूमिका हैं? या फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को टक्कर देने के लिए पिछड़े वर्ग के किसी नेता को पार्टी की कमान सौंपना कांगेस की मजबूरी है? जहाँ तक इस संभावित बदलाव में परदे के पीछे दिग्विजय सिंह की मौजूदगी भाँपने वालों का अनुमान है कि दिग्गी राजा की मदद के बिना कमलनाथ प्रदेश में कोई चमत्कार नहीं कर सकते! आज भले ही दिग्गी राजा खुद चुनाव जिताने की स्थिति में नहीं हों, पर कार्यकर्ताओं की सबसे बड़ी फ़ौज उनके ही पास है! सिंधिया समर्थकों के मुताबिक कमलनाथ को सीएम प्रोजेक्ट करके वे एक बड़ा दांव खेलने के मूड में हैं! इस तरह दिग्गी राजा 2023 में अपने बेटे जयवर्धन सिंह के लिए राह आसान कर रहे हैं! क्योंकि, उम्र के इस पड़ाव में कमलनाथ लम्बी रेस का घोड़ा नहीं हैं! यदि यही दाँव पार्टी ज्योतिरादित्य सिंधिया लगाती है, तो दिग्गी राजा के अपने बेटे के लिए देखे सपने पूरे नहीं होंगे!  
     मध्यप्रदेश में कांग्रेस की मज़बूरी है कि वो प्रतिद्वंदी के खिलाफ मोर्चा बनाने के बजाए आपस में ही ज्यादा जूझती रहती है! भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए 'मिशन-2018' की रणनीति बनाने की जगह कांग्रेस फिर प्रदेश अध्यक्ष पद की जोड़-तोड़ में लग गई! प्रदेश अध्यक्ष को लेकर फिर लॉबिंग शुरू हो गई! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। दोनों नेताओं के समर्थक अपने आकाओं पक्ष में यश-कीर्ति गान में लग गए हैं! ये सब संयोग नहीं है, बल्कि सोच-समझकर हो रहा है। मुखिया के लिए खुद का नाम उछालने के पीछे इन नेताओं की मौन सहमति भी होगी! इन दोनों नेताओं की सक्रियता के बीच ऐसे नजारे भी दिखे, जो इस बात का संकेत था कि नेतृत्व उनके हाथ में हो, तभी प्रदेश में कांग्रेस की वापसी संभव है। हालांकि, राजनीतिक जानकारों के मुताबिक इससे कांग्रेस की गुटबाजी का संदेश मतदाताओं के बीच जा रहा है। ऐसे हालातों की वजह से ही जनता कांग्रेस को नकार भी रही है। यदि कांग्रेस अभी भी नहीं संभली, उसे 2018 में भी उसी दोराहे पर खड़े होने को मजबूर होना होगा!
  सवाल यह है कि कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या ये दोनों नेता पूरे प्रदेश में अपनी पकड़ रखते हैं? कमलनाथ का प्रभाव क्षेत्र महाकौशल तक सीमित है और ज्योतिरादित्य की पकड़ ग्वालियर-चंबल के अलावा मालवा के कुछ इलाकों तक है! ये दोनों बड़े नेता हैं, पर इतने बड़े भी नहीं कि पूरे प्रदेश में कांग्रेस नैया पार लगा दें! ये खुद तो पाने लोकसभा चुनाव जीत गए, पर विधानसभा चुनाव में इन्हीं के इलाके में कांग्रेस की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है! 2003 से 2016 के बीच प्रदेश में हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में इन नेताओं ने पार्टी के लिए कोई तमगा नहीं जीता! वर्तमान अध्यक्ष अरुण यादव तो दोनों के मुकाबले बेहद कमजोर हैं! उनकी राजनीतिक सीमाएं निमाड़ (खंडवा और खरगोन) ये आगे नहीं जाती! ऐसे में कैसे यकीन किया जा सकता है कि कमलनाथ (या किसी और) के आने भर से कांग्रेस के सूखते पेड़ में हरियाली छा जाएगी और वो फलों से लद जाएगा! इस माहौल का हश्र जो भी हो, दिलचस्प तो होगा!
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