Sunday, May 22, 2016

हर दौर में सफल रहा 'रियल सिनेमा'

हेमंत पाल 

  फिल्मों के निर्माण का एक अलग ही दौर चलता है! कभी एक्शन वाली फ़िल्में आती हैं तो मसाला फिल्मों की लाइन लग जाती है! प्रेम कहानियों का सिलसिला शुरू होता है तो सिनेमा का परदा रूमानी नजर आने लगता है! इस नजरिए देखा जाए तो इन दिनों ऐसी फ़िल्में ज्यादा आ रही हैं जिनकी कहानियां वास्तविक घटनाओं के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं! बॉलीवुड ने इसे 'रियल सिनेमा' का नाम दिया! इस तरह की फ़िल्में 80 दशक की कला फिल्मों तरह नहीं होती और न बायोपिक होती हैं! कहानी वास्तविकता लिए होती है, पर उसमें सारे फ़िल्मी मसाले डालकर तड़का लगाया जाता हैं। ताजा दौर में एयरलिफ्ट, नीरजा, अलीगढ, ट्रैफिक के बाद 'सरबजीत' इस श्रृंखला की नई फिल्म है।  
   कभी इस तरह की फ़िल्में बनाने में आईएस जौहर को महारथ हांसिल थी! अपनी इस विधा की शुरुवात उन्होंने ‘नास्तिक’ बनाकर की थी जो देश के बंटवारे में विस्थापित होकर आए लोगों के दुख-दर्द की कहानी थी! असल में तो 'नास्तिक' खुद जौहर के अपने निजी अनुभवों की ही कहानी थी! इसके बाद इस फिल्मकार ने सच्ची घटनाओं ही अपनी फिल्मों के विषय बना डाले! पुर्तगालियों से गोआ की आज़ादी की लड़ाई पर ‘जौहर-महमूद इन गोआ’ बनाई ,तो कश्मीर के मसले पर ‘जौहर इन काश्मीर।’ बांग्लादेश युद्ध का प्रसंग आया तो ‘जय बांग्ला देश’ फिल्म बना डाली! आपातकाल में जबरन नसबंदी प्रति नाराजी दिखाते हुए 1978 में जौहर ने ‘नसबंदी’ भी बनाई!
 हर दौर में ये फ़िल्में इसलिए ज्यादा बनती रहती है कि दर्शक ऐसी फिल्मों को पसंद करते हैं! मनगढंत कहानियों की अपेक्षा सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों को देखने में लोग ज्यादा रूचि भी दिखाते हैं। देखा जाए तो इस तरह की लगभग सभी फिल्मों ने अच्छा बिजनेस किया! कुवैत से भारतीयों को बचाकर लाने वाली घटना पर बनी 'एयरलिफ्ट' ने तो कई बड़ी फिल्मों पछाड़ दिया! 380 विमान यात्रियों के अपहरण की सच्ची घटना पर बनी फिल्म 'नीरजा' ने कई साल बाद उस घटना को ताजा कर दिया! अलीगढ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर की जिंदगी पर बनी 'अलीगढ' को भी प्रशंसा मिली! मुंबई के एक ट्रैफिक हवलदार की जिंदादिली पर बनाई गई फिल्म 'ट्रैफिक' को भी दर्शकों ने सराहा! पिछले साल आई 'मांझी : द माउंटेन मैन' में बिहार के दशरथ मांझी की कहानी फिल्माई गई थी, जिसने अकेले 22 साल में सिर्फ़ हथोड़े और छैनी से पहाड़ काटकर रास्ता बना डाला और 70 किलोमीटर की दूरी को एक किलोमीटर में समेट दिया था! दशरथ मांझी पहाड़ काटने का फ़ैसला तब लेते हैं, जब उनकी पत्नी पहाड़ से गिर जाती हैं और 70 किमी दूर अस्पताल तक उसे पहुंचने में इतनी देरी हो जाती है कि वह उन्हें खो बैठते हैं। 
   हाल ही में रिलीज फिल्म 'सरबजीत' शायद सच्ची कहानियों पर अब तक बनी फिल्मों में मील का पत्थर साबित होगी! यह फिल्म गलती से पाकिस्तान  सीमा में चले गए भारतीय किसान सरबजीत सिंह के जीवन पर आधारित है! जिसे पाकिस्तान में आतंकवाद और जासूसी का दोषी करार देकर मौत की सजा सुना दी जाती है। भाई को छुड़ाने के लिए उसकी बहन दलजीत कौर बीड़ा उठाती है। लेकिन, सारे कूटनीतिक और व्यक्तिगत प्रयासों के बाद भी सरबजीत जीवित देश नहीं लौटता! ये फिल्म भाई को इंसाफ दिलाने के लिए एक बहन के संघर्ष की कहानी है। निर्देशक उमंग कुमार ने भी कहा कि उन्होंने फिल्म को पूरे दिल से बनाया है। मूल कहानी में कोई बदलाव नहीं किया गया! सरबजीत की बहन दलबीर ने जैसा बताया, हमने इसमें वैसा फिल्माया! पूरी सच्चाई के साथ बिना तथ्यों में बदलाव किए फिल्म को बनाया। 
  इस तरह की फ़िल्में सिर्फ भारत में नहीं, हॉलीवुड में भी बनती हैं! अमेरिकन आर्मी स्नाइपर क्रिस काइल के जीवन पर आधारित फिल्म 'अमेरिकन स्नाइपर' ​में व्यक्तिगत तौर पर युद्ध के पहलुओं और इसके लोगों पर भावनात्मक ​प्रभाव को ​दिखाया गया था! जॉन हैम की फिल्म 'मिलियन डॉलर आर्म' भी एक सच्ची कहानी पर आधारित है, जिसमें खेल एजेंट जेबी बर्नस्टाइन को दो किशोर भारतीय बच्चे मिलते हैं, जो शानदार बेसबॉल खेल सकते हैं। उन्हें बाद में अमेरिकी बेसबॉल टीम के लिए साइन किया जाता है। बर्नस्टाइन ने ही रिंकू सिंह और दिनेश पटेल युवकों को खोज निकाला था। इसके लिए उन्होंने एक रियालिटी शो का सहारा लिया और क्रिकेट खेलने वाले दोनों लड़कों को अमेरिकी लीग के लिए चुना गया! इसके अलावा ओसामा बिन लादेन के आखिरी दिनों पर भी 'जीरो डार्क थर्टी' फिल्म बन चुकी है। हॉलीवुड और बॉलीवुड में 'रियल सिनेमा' का चलन कभी ख़त्म नहीं होने वाला! जैसे ही कोई दिलचस्प घटना घटेगी, उसे सेलुलाइड पर उतारने वाले लाइन में खड़े मिलेंगे!   
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