Sunday, May 15, 2016

वयस्क होते छोटे परदे के बड़े सवाल!



हेमंत पाल 
  छोटा परदा अब बच्चा नहीं रहा, वो इतना बड़ा हो गया है कि घर का ड्राइंग रूम उसके लिए छोटा पड़ने लगा! इस छोटे परदे ने जब घरों में जन्म लिया था, तब उससे पारिवारिक और संस्कारित मनोरंजन की उम्मीद की गई थी! लेकिन, धीरे-धीरे ये भ्रम खंडित हो गया! इस छोटे से टीवी के परदे पर भी अश्लीलता, हिंसा, फूहड़ता का कचरा भरता चला गया! स्थिति ये आ गई कि छोटे परदे पर अश्लीलता को लेकर बड़ी बहस चलने लगी! पहले मुद्दा बड़े परदे यानी सिनेमा तब सीमित था, पर अब टीवी पर अश्लीलता भी इस बहस में शामिल हो गई! आजकल टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में अभद्रता, अश्‍लील और द्विअर्थी भाषा, अश्लील चित्रण, सेक्स उत्तेजना और नग्नता भुनाया जा रहा है। एक वक़्त वो भी था जब परिवार के साथ टीवी देखते हुए यदि परिवार नियोजन जैसा कोई विज्ञापन आ जाता था तो लोग असहज हो जाते थे। आज खुलेपन की आंधी ने मर्यादा सारी सीमाएं लांग ली! सारी वर्जनाएं टूटकर बिखर गई! समाजशास्त्रियों ने भी कहना शुरू कर दिया कि टीवी के जो कार्यक्रम परिवार के सभी सदस्यों के साथ बैठकर न देखे जा सकें, उन्हें वयस्क श्रेणी में रखा जाए! इन्हें प्राइम टाइम में बिल्कुल नहीं दिखाया जाए! किन्तु, टीवी इंडस्ट्री के लोगों की नजर में ये उनकी आजादी पर हमला हैं। 
  ये बात सिर्फ टीवी के बनाए जाने वाले कार्यक्रमों पर ही नहीं, छोटे परदे पर प्रदर्शित की जाने वाली फिल्मों पर भी लागू होती है। फिल्मों को टीवी पर दिखाने से पहले फिर से सेंसर करने की व्यवस्था नहीं होती! कारण है कि जो फ़िल्में सेंसर से 'ए' सर्टिफिकेट लेकर रिलीज होती हैं, उन्हें भी बेरोकटोक टीवी पर दिखा दिया जाता है। यही कारण था कि ऐसे एक मामले में अदालत को दखल देकर 'ग्रैंड मस्ती’ के टीवी प्रीमियर पर रोक के आदेश देने पड़े थे। सेंसर बोर्ड ने तो सरकार से टीवी पर आयटम सांग्स भी न दिखाने की अनुशंसा की थी! बोर्ड का सुझाव था कि ऐसे गानों के लिए ‘ए’ सर्टिफिकेट जारी किया जाए। लेकिन, इन गानों का प्रसारण रोका नहीं जा सका! सीरियल और रियलिटी शो में भी अश्लीलता, हिंसा और कॉमेडी शो में द्विअर्थी संवादों की भरमार होने लगी! 2010 में सरकार ने ‘बिग बॉस’ व ‘राखी का इंसाफ’ जैसे रियलिटी शो को रात 11 बजे बाद प्रसारित करने के आदेश दिए थे। लेकिन, वो सब बीती बात हो गई!
  इससे भी बड़ा मसला है टीवी पर दिखाए जाने विज्ञापनों का! सूचना मंत्रालय ने 2011 में डियोड्रेंट के विज्ञापनों में होने वाले यौन प्रदर्शन पर उंगली उठाई थी। इसके बाद भी विज्ञापनों में अश्लीलता पर अंकुश नहीं लगा! एक गोरा बनाने वाली क्रीम के विज्ञापन ने देश में उत्पाद की विश्वसनीयता लेकर नई बहस छेड़ी थी! इस विज्ञापन की हर तरफ निंदा की गई। सड़क से संसद तक इस विज्ञापन को लेकर विवाद हुआ! लेकिन, अंततः हुआ कुछ नहीं! क्या कारण है कि विज्ञापन बनाने वाली एजेंसियां एडवर्टाइज़मेंट स्टेंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया के नियमों का पालन करने में चूक जाती है? जो विज्ञापन दूसरे देशों में दिखाना प्रतिबंधित हैं वे भारत में आसानी से दिखाए जाते हैं। अंडरगारमेंट के विज्ञापनों को क्यों बेहद अश्लील और उत्तेजक तरीके से बनाया जाता है? कई बार इन विज्ञापनों को बंद करने का नोटिस भी दिया गया, लेकिन न कुछ हुआ और न होगा! जिन विज्ञापनों में बहुत अधिक अश्‍लीलता और महिलाओं के लिए अपमानजनक चित्रण होता है, ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाने की भी बात उठी, पर अंततः मामला रफादफा हो गया! कई बार इन विज्ञापनों में चित्रण अश्‍लील नहीं होता, पर उसका अर्थ अपमानित करने वाला होता है। 
  दरअसल, टीवी को घर के ड्राइंगरूम का हिस्सा माना जाता है! परिवार खासकर महिलाओं और बच्चों के मनोरंजन का ये सबसे सुलभ साधन है। यही कारण है कि सीरियल, रियलिटी शो, कॉमेडी शो और फिल्मों में दिखाई देने वाली अश्लीलता चिंता का कारण बनती जा रही है। फिल्मों की तरह टीवी के शोज को प्रसारण से पहले किसी कसौटी पर नहीं परखा जाता! इनकी समीक्षा तभी होती है, जब दर्शक आपत्ति लें! जागरूकता बढ़ने से हमारे यहाँ टीवी कंटेंट के खिलाफ शिकायतें बढ़ रही हैं। कई मामले तो कोर्ट तक भी पहुंचे हैं। ज्यादातर शिकायतें टीवी विज्ञापनों में अश्लील दृश्यों, फूहड़ कॉमेडी शो में द्विअर्थी संवादों, महिलाओं के चरित्र चित्रण और हिंसात्मक दृश्यों को लेकर उठती हैं! सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी का भी कहना है कि टीवी और इंटरनेट पर हद से ज्यादा अश्लीलता परोसी जाने लगी है, जिसे अब कंट्रोल करने की जरूरत है। जिस पैमाने पर फिल्मों में न्यूडिटी को जज किया जाता है, ठीक उसी तरह टीवी और इंटरनेट पर भी इसे आंका जाना चाहिए। टीवी पर परोसी जा रही फिल्मों की तुलना में टीवी शो को जज करने में दोहरी नीति अपनाई गई है, इसे सही किया जाना चाहिए। निहलानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि न्यूडिटी पर केवल एक ही पॉलिसी होनी चाहिए! जबकि, टीवी पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के निर्माताओं से सेल्फ रेगुलेशन की उम्मीद की जाती है। लेकिन, ये नीति भी दम तोड़ने लगी है। 
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