- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश 'मिशन-2018' को लेकर सभी पार्टियों ने कमर कस ली है। भाजपा ने तो सरकार को ही मोर्चे पर लगा दिया। घोषणाओं की रेवड़ियां बंटना शुरू हो गई है। कांग्रेस में भी बदलाव की सुगबुगाहट है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का तदर्थवाद खत्म हो गया! अब प्रदेश अध्यक्ष को बदले जाने की हलचल है। इस सबके बीच इस बार अन्य पार्टियां भी सक्रिय होती दिखाई दे रही है। सबसे ज्यादा ऊर्जा आम आदमी पार्टी (आप) में दिखाई दी। मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में से है, जहाँ बरसों से दो दलीय व्यवस्था कायम है। यहाँ क्षेत्रीय पार्टियों की पकड़ नहीं है! प्रदेश की राजनीति में तीसरे मोर्चे जैसे विकल्प के लिए अभी तक कोई गुंजाइश नहीं बनी! यहाँ कांग्रेस और भाजपा जड़ें इतनी गहरी है कि 20 सालों में कोई भी ग़ैर-कांग्रेसी या ग़ैर-भाजपा पार्टियां मिलकर भी 20 से ज़्यादा सीटें नहीं ला सकी। प्रदेश में किसी क्षेत्रीय पार्टी के नहीं पनपने के कई कारण हैं। भौगोलिक स्थिति के साथ यहाँ के जातिगत समीकरण भी इसकी इजाजत नहीं देते। यहाँ 1967 में संविद सरकार जैसा प्रयोग असफल हो चुका है।
मध्यप्रदेश में अगले साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होना है। भाजपा सत्ता में है, इसलिए उसका आत्मविश्वास चरम पर है। संगठन भी उत्साह में कुंचाले भर रहा है। उत्तरप्रदेश की जीत ने भाजपा को कुछ ज्यादा ही राजनीतिक मुगालते में ला दिया! उसे यहाँ भी अपनी जीत थाली में परसी दिखाई दे रही है। जबकि, उत्तरप्रदेश से मध्यप्रदेश की तुलना संभव नहीं है। पडौसी होते हुए भी दोनों प्रदेशों की राजनीतिक विचारधारा में कोई साम्य नहीं! फिर उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार एंटीइनकंबेसी का शिकार हुई है। मध्यप्रदेश में इस बात से सीख लेते हुए, यहाँ की सरकार को भी सचेत हो जाना चाहिए। क्योंकि, जनता के मानस को भांपना आसान नहीं होता। बड़े राजनीतिक उलटफेर इसके उदाहरण रहे हैं। जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो ये पार्टी अभी अपने आंतरिक संघर्ष से ही उबर नहीं सकी। पार्टी को मुकाबले में उतरने के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत है, वो सब आपसी गुटबाजी और पैंतरेबाजी में ही खर्च हो रही! पार्टी के नए संभावित मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को मुकाबले के लिए मोर्चे पर लगाने के साथ सेनापतियों सही जिम्मेदारी देना भी होगा! ये आसान काम नहीं है। ऐसे में तीसरे मोर्चे के लिए कितनी गुंजाइश बचती है, इसका अभी आकलन नहीं किया जा सकता! लेकिन, कांग्रेस का कमजोर होना और वर्तमान सरकार प्रति नाराजी किसी तीसरी पार्टी को ताकत दे सकती है। लेकिन, ये ताकत इतनी नहीं होगी कि वो सरकार बना सके!
अभी तक मध्यप्रदेश में कोई तीसरी पार्टी अपनी जगह क्यों नहीं बना सकी? इसे कई तरह से देखा और समझा जा सकता है। लेकिन, सबसे सटीक कारण ये समझ आता है कि जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरी पार्टी ने अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, उस पार्टी की कमान किसी अनजान नेता के हाथ में थी। इन नेताओं की प्रदेश स्तर पर कोई अलग पहचान नहीं थी! ऐसे कई क्षेत्रीय नेता या तो भाजपा से निकले थे या कांग्रेस से! बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की कमान जिसे दी गई, उन्हें अपने इलाके से बाहर कोई पहचानता भी नहीं था! उमा भारती जरूर अकेली ऐसी नेता थी, जिसने 'जनशक्ति पार्टी' अपने दम पर खड़ी की थी, लेकिन उसके पीछे भाजपा को नुकसान पहुँचाना पहला मकसद था, न कि तीसरी ताकत बनने की कोई मंशा थी! फिलहाल प्रदेश में 'आप' अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है, पर इसकी कमान भी गैर-राजनीतिक लोगों के हाथ में है, इसलिए 'आप' कोई चमत्कार कर सकेगी, इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती!
इस प्रदेश में सत्ता हमेशा कांग्रेस और भाजपा के कब्जे में रही! सत्तर के दशक से पहले एक बार संविद सरकार बनी, पर जल्दी ही बिखर गई! ये प्रदेश में तीसरे मोर्चे का लिटमस टेस्ट ही था! कांग्रेस के हाथ से भी आपातकाल के बाद 1977 में सत्ता फिसली! जनता पार्टी के झंडे तले प्रदेश में सरकार बनाई गई। लेकिन, ये जोड़तोड़ वाला प्रयोग भी नहीं चला! 2003 से पहले तक प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो, पर कोई भी पांच साल पूरा नहीं कर पाई! 2003 में सत्ता में आई भाजपा ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि लगातार दूसरी और तीसरी बार सत्ता में भी आई! प्रदेश में 1993 तक भाजपा के साथ गैर-कांग्रेसी दलों में जनता पार्टी व जनता दल का प्रभाव रहा है। उसके बाद भाजपा को छोड़कर बाकी गैर-कांग्रेसी दलों खासकर समाजवादी विचारधारा के दलों में ज्यादा ही टूट हुई! इसलिए कि समाजवादियों ने सत्ता का सुख पाने के लिए कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा का दामन थाम लिया।
प्रदेश में समाजवादी विचारधारा के अलावा दलित वर्ग का भी वोट बैंक है! बसपा ने मध्यप्रदेश में भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर जातीय समीकरणों की 'सामाजिक समरसता' की मुहिम चलाई थी। उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे इलाकों बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल इलाके में मायावती का असर भी रहा! इन इलाकों के अगड़े तबकों के नेता लंबे समय तक मायावती की चौखट पर हाजिरी बजाते रहे हैं। लेकिन, कभी लगा नहीं कि मायावती की पार्टी मध्यप्रदेश में कोई राजनीतिक चमत्कार कर सकती है। प्रदेश में मायावती के जातीय समीकरण भले ही पूरी तरह सफल न हो पाए हों, पर उसका 'सर्व समाज' का नारा कभी न कभी असर दिखा सकता है! मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी एक बार 8 विधानसभा सीटें जीतकर सदन में तीसरे नंबर पर थी। लेकिन, जल्दी ही उसके चार विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। समाजवादी पार्टी का यादव फार्मूला जो उत्तरप्रदेश में कामयाब रहा, वो मध्यप्रदेश में नहीं चल सकता! इसका कारण ये भी है की अभी मध्यप्रदेश में जातिवादी राजनीति का जहर लोगों के दिमाग तक नहीं चढ़ा है। आदिवासियों के नाम पर बनी 'गोंडवाना गणतंत्र पार्टी' भी कमाल नहीं कर सकी! जबकि, आरक्षण विरोध लेकर बनी 'समानता दल' भी अपने अस्तित्व के लिए असफल संघर्ष कर लिया।
2003 में भाजपा को आसमान फाड़ बहुमत से सत्ता में लाने वाली उमा भारती भी क्षेत्रीय पार्टी बनाकर अपनी जातिवादी ताकत दिखाने का प्रयोग कर चुकी है। उमा भारती ने 2008 में भारतीय जनशक्ति पार्टी (भाजश) बनाकर भाजपा को चुनौती दी थी! लोधी समाज की नेता होने के नाते उन्होंने असर भी दिखाया, पर वे भाजपा को अपनी जड़ों से हिलाने में सफल नहीं हो सकीं! प्रदेश की 89 सीटों पर लोधी समाज का असर है। उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी रामकृष्ण कुसमारिया, जंयत मलैया, बृजेन्द्रसिंह, हरिशंकर खटीक, मुश्किल से अपनी सीट बचा सके थे। चंदला क्षेत्र से तो भाजपा के एक पूर्व मंत्री मात्र 958 मतों से जीते थे। इसी तरह टीकमगढ़, बड़ामलहरा और राजनगर में भाजपा प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का कारण भाजश प्रत्याशी ही थे। हालांकि, उमा भारती को भी टीकमगढ़ से हार का मुंह देखना पड़ा था।
उमा की भाजश ने बड़ामलहरा, खरगापुर में जीत हांसिल की, वहीं टीकमगढ, जतारा, चंदला में उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे। इसी तरह बंडा, महाराजपुर में भाजपा की हार का कारण भी भाजश को माना गया। सागर संभाग में भाजश को 12.37 प्रतिशत मत मिले थे, जिसमें छतरपुर जिले में 14.09, दमोह में 6.65, पन्ना में 18.24, सागर में 9.30 एवं टीकमगढ़ जिले में 16.66 प्रतिशत मिले थे। लोधी समाज की संख्या के आधार पर इनके चुनावी समीकरणों को उलटफेर करने के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो मध्यप्रदेश में 89 विधानसभा क्षेत्रों पर इस समाज का असर है। लोधी समाज के प्रदेश में करीब 80 लाख मतदाता हैं। बालाघाट में सर्वाधिक संख्या लेाधी समाज की है, जो चुनावी हार-जीत में महत्वपूर्ण होते हैं। बुंदेलखंड की अधिकांश सीटों पर भी इस समाज का खास असर है। समाज की इस ताकत के बावजूद उमा भारती की मध्यप्रदेश में क्षैत्रिय पार्टी बनाकर राज करने की रणनीति कामयाब नहीं हो पाई!
आपातकाल के दौरान मध्यप्रदेश में समाजवादी विचारधारा के झंडाबरदार शरद यादव ने भी समाजवादियों को जोड़ने की मुहिम तेज की थी! लेकिन, उनकी कोशिश भी कामयाब नहीं हुई! क्योंकि, प्रदेश में समाजवादी तो है, किंतु उनके पास सक्षम नेतृत्व की कमी है! वहीं, कांग्रेस व भाजपा के अलावा अन्य किसी पार्टी के पास न तो असरदार संगठन है न मुखिया! प्रदेश में समाजवादियों की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि 1977 के चुनाव में जनता पार्टी ने 320 विधानसभा सीटों (तब छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था) में से 230 पर कब्जा जमाया था! इनमें जीतने वाले लगभग 100 समाजवादी थे। उसके बाद 1980 व 1985 के चुनाव गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने अलग-अलग झंडे थामकर चुनाव लड़ा तथा सत्ता कांग्रेस के हाथ में पहुंच गई। फिर इन पार्टियों ने 1990 में मिलकर चुनाव लड़ा व सत्ता हांसिल कर ली। इस चुनाव में जनता दल ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन, ये सब इतिहास में दर्ज हो चुका है।
अपनी पहचान को आधार बनाकर क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत बनने का जो काम दक्षिणी राज्यों हुआ है, ऐसा कहीं और नहीं! करूणानिधि, जयललिता, एमजी रामचंद्रन, चिरंजीवी जैसे नेताओं के पीछे अपनी फ़िल्मी इमेज थी! इन लोगों ने अपने चाहने वालों को वोटरों में बदलने का चमत्कार किया! उत्तरप्रदेश में यही काम मुलायमसिंह यादव और मायावती ने जातीय समीकरण बनाकर किया! ठाकुरों और ब्राह्मणों को अपना दम दिखाने के लिए मुलायमसिंह यादव ने ओबीसी और मायावती ने निचली जातियों को समेटकर सत्ता पर कब्ज़ा किया! जबकि, मध्यप्रदेश में ऐसे जातीय समीकरण नहीं है। इन सबसे अलग उड़ीसा अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ पटनायक कुनबे की तूती बोलती है। पहले पिता और उसके बाद पुत्र ने अपने मतदाताओं पर ऐसा जादू चलाया कि यहाँ तो कांग्रेस का सिक्का चलता है न भाजपा का! लेकिन, मध्यप्रदेश के संदर्भ में अभी ये दिवा स्वप्न ही है।
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