Friday, March 3, 2017

ये है नए ज़माने का नया सिनेमा!

- हेमंत पाल 


  हिंदी सिनेमा ने हर दौर में रूढ़ियों को तोड़ने का काम किया है। ऐसा करने की समाज से प्रेरणा उसे समाज से मिली या सिर्फ फ़िल्मी कहानियों को आधार बनाकर परदे पर ये आभामंडल रचा गया? ये एक अलग विषय है! लेकिन, सिनेमा ने समय, काल और परिस्थितियों की नब्ज को पहचाना और अपने लिए नया दर्शक वर्ग जरूर तैयार किया है! हाल के महीनों में कुछ ऐसी फिल्में बनी, जिन्होंने समाज के पुराने ढर्रों को खंडित करके नए सोच की रचना की! फिल्मकारों की इस कोशिश में सिनेमा ने कथानक, पात्र और प्रस्तुति सभी कुछ बदलने की कोशिश में कमी नहीं की! तारीफ की बात ये कि नए ज़माने के दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले स्वरुप को दिल से स्वीकार किया!
  जब ऐसी फ़िल्में बनती है तो सबसे ज्यादा ध्यान महिला केंद्रित फिल्मों की तरफ जाता है! ये सही भी है, क्योंकि फ़िल्मी कहानियों में महिलाएं ही वे पात्र होती हैं, जो समाज के सोच का प्रतीक बनकर सामने आती हैं। हाईवे, क्वीन, तनु वेड्स मनु, कहानी, अकीरा, सरबजीत, नीरजा, डीयर जिंदगी, साला खड़ूस और पिंक कुछ ऐसी ही फ़िल्में हैं, जिन्होंने परदे पर नए तरह के सिनेमा सौंदर्य को विकसित किया। इस धारणा को भी तोड़ा कि जिस तथाकथित सभ्य समाज में लड़कियों को तहजीब और सलीके की दुहाई दी जाती है, वो समाज अंदर से कितना खोखला है। वहाँ औरत को सजी-संवरी वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। नए ज़माने की फिल्मों में महिला पात्र को सिर्फ लापरवाह और मनमौजी ही नहीं दर्शाया जाता! ये सच भी सामने लाया गया कि उनमें अपने लिए कुछ करने की चाह और कूबत दोनों है।
  अब 'क्वीन' जैसी फ़िल्में भी बनने और पसंद की जाने लगी हैं। ये फिल्म औरत की आजादी और उसकी अस्मिता से जुड़े पहलुओं को समझाने की कोशिश करती है। 'क्वीन' एक सामान्य लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की कहानी है। कुछ ऐसी ही कहानी 'डियर जिंदगी' की कायरा की भी है। जो सिनेमेटोग्राफर है, पर अपने आपमें उलझी हुई! बचपन में माँ-बाप का साथ न मिलना उसे तोड़ देता है। प्यार की वो परवाह नहीं करती और संभलती भी है, तो अकेली ही! 'पिंक' की कहानी भी समाज के नए सोच का फ़िल्मी संकेत है। ये महिला प्रधान फिल्म नहीं है, बल्कि इससे कहीं आगे की बात करती है। यह सोच को अंदर तक चोट पहुंचाने के साथ मुखौटों को बेनकाब करने का काम भी करती है। 'पिंक' ने एक खास संदेश दिया है जिसे अभी तक सामने लाया नहीं गया! कोई लडकी क्या पहनती है, किस तरह से बात करती है! केवल इस आधार पर न तो किसी लडकी को न तो घूरा जा सकता है और कोई उसे या छेड़ने की इजाजत ही मिल जाती है। उसके पहनावे से ये मतलब नहीं निकाला जाए कि वो चरित्रहीन है। 'पिंक' ने एक संदेश यह भी दिया कि किसी महिला का 'ना' कहना अपने आपमें पूरा वाक्य है। ये सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि उस महिला की पूरी इच्छा दर्शाता है  ।
  दरअसल, नए सोच वाली इन फिल्मों ने स्त्री नायकत्व का कथानक रचा है। अच्छी बात ये कि पुरुष प्रधान दर्शकों ने इस बदलाव को सराहा! ऐसी फिल्मों ने कला सिनेमा की अवधारणा को ही लगभग ख़त्म कर दिया। अभी तक कला और मुख्यधारा के सिनेमा में स्पष्ट सीमा रेखा थी। अब वो कहीं नजर नहीं आती! प्रेम कहानियां हाशिये पर चली गईं और उनकी जगह सच सी लगने वाली कहानियों ने ले ली! कला फिल्मों को अभिजात्य वर्ग की फ़िल्में कहा जाता था। यदि आज के सिनेमा को मुख्यधारा का सिनेमा कहा जाता है तो वह अपने भीतर कला फिल्मों की सादगी और सौंदर्य को भी समेटे है। स्त्री पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली इन फिल्मों की स्त्रियां अपने शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। यही तो है, नए ज़माने का नया सिनेमा! वक़्त के साथ ये और समृद्ध होगा!
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