Friday, March 24, 2017

कमलनाथ को 'कमल' से जोड़ने के पीछे क्या कोई साजिश!

- हेमंत पाल 

  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों से कांग्रेस ने कुछ सीखा हो या नहीं, पर मध्यप्रदेश में कमलनाथ समर्थकों ने अपना काम जरूर कर दिया! उन्होंने मध्यप्रदेश में 'कमलनाथ लाओ, कांग्रेस बचाओ' और 'कमल नहीं, कमलनाथ चाहिए' का नारा जरूर उछाल दिया। शायद समर्थकों ने वक़्त की नजाकत को देखते हुए ही ये नारा गढ़ा है। अभी ये नारा सड़क पर तो नहीं, पर सोशल मीडिया में छाया हुआ है। प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ समर्थकों ने जिस तरह मोर्चा संभाला है, वो गौर करने वाली बात है। क्योंकि, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद मायूस हाईकमान प्रदेश के बारे में कुछ और सोचे, उससे पहले ही उनके सामने एक नाम चला दिया जाए! चल रहे दो नारों में से एक उनको प्रदेश में सक्रिय करने की मांग है! दूसरा नारा 'कमल नहीं, कमलनाथ चाहिए' भाजपा के सामने चेतावनी जैसा है। लेकिन, इसके साथ ही ये अफवाह भी तेज है कि कमलनाथ तो 'कमल' से नाता जोड़ रहे हैं! कुछ भाजपा नेताओं बयानों से भी इस बात का अंदाजा लगा! ये भी संभव है कि कमलनाथ को मध्यप्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने से रोकने के लिए पार्टी के किसी गुट ने ये चाल चली हो! कमलनाथ के 'कमल' छाप बनने में कितनी सच्चाई है, ये तो जल्दी सामने आ जाएगा। पर, इस कथित अफवाह के जरिए यदि कमलनाथ को बदनाम किया जा रहा है, तो ये कांग्रेस हाईकमान के लिए चिंता की बात है। जो ये समझ रहा है कि कमलनाथ को अध्यक्ष बना देने से पार्टी एकजुट हो जाएगी, तो ये भ्रम है।   

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में कमलनाथ को सबसे पुराने नेताओं में गिना जा सकता है। चार दशक पहले जब वे सक्रिय हुए, तब दिग्विजय सिंह का राजनीति में अंकुरण हुआ था और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो घुटने-घुटने ही चलना सीखा होगा! आपातकाल के दौर में संजय गाँधी के दोस्त होने के नाते वे राजनीति में आए। लेकिन, वे कभी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय नहीं हुए! ये भी कहा जा सकता है कि एक चाल के तहत उन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र छिंदवाड़ा और दिल्ली तक बांधे रखा गया। देश की राजनीति में इन चार दशकों में आए उतार-चढ़ाओ के बावजूद वे अब तक जमे हैं। जबकि, उन्हें कभी प्रदेश की तरफ मुँह उठाकर नहीं देखने दिया गया। लेकिन, आज 70 साल के होने पर भी उनका दम-ख़म बरक़रार है। राजनीति की तेज धूप में भी उनका राजनीतिक यौवन मुरझाया नहीं! फिर भी मध्यप्रदेश की कुर्सी संभालने की उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने कभी इतनी कुंचालें नहीं भरी कि वे किसी की आँख की किरकिरी बनें! इस वजह से वे पार्टी हाईकमान के भी लाडले बने रहे। पर, अब हालात बदलते लग रहे हैं। सारे प्रयोगों के बाद उनके नाम पर सहमति बनती नजर आ रही है! साथ ही उनसे जुडी अफवाहों ने भी जगह घेरना शुरू कर दिया।  
   अब, जबकि प्रदेश में कांग्रेस को संजीवनी देने की कोशिशें सार्थक होती दिखाई नहीं दे रही, कमलनाथ को एक उम्मीद की तरह देखा जा रहा है। दिग्विजय सिंह और सिंधिया के मुकाबले उन्हें प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे सशक्त आंका गया! ऐसे में पार्टी में उनके विरोधी और प्रतिद्वंदी दोनों ने मोर्चे संभाल लिए हैं। उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोकने के लिए राजनीति की बिसात पर हरसंभव चालें चली जा रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके भाजपा में जाने की अफवाह फैलाकर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोका जा रहा है? उनके भाजपा में जाने की ख़बरों को इस नजरिए से भी देखा जा सकता! क्योंकि, राजनीति में कुछ भी हो सकता है। प्रतिद्वंदी के किसी भी हद तक जाने की आशंकाओं को नकारा नहीं जा सकता! आज के हालात में कौन नहीं चाहता कि कमलनाथ प्रदेश की कमान संभालें, ये बात किसी से छुपी नहीं है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने ये कहकर इस खबर की आंच को और तेज कर दिया कि यदि वे आते हैं तो हमे खुशी होगी। मोदी जी के साथ काम कर उनको संतुष्टि मिलेगी। नंदकुमार चौहान की जगह कोई और नेता होता तो ये बात वास्तव में गंभीर है। लेकिन, भाजपा अध्यक्ष के बयानों को राजनीतिक रूप से कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसलिए ये बात हवा में उड़ गई!
    कमलनाथ राजनीति के घाघ खिलाड़ी हैं। उन्हें भी पता होगा कि इस सबके पीछे किसका रिमोट काम कर रहा है। क्योंकि, राजनीति का खेल ही ऐसा है, यहाँ होता कुछ है और दिखाया कुछ और जाता है। वे जानते भी हैं कि मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृष्य अब उनके लिए काँटों के ताज से कम नहीं। उनके ज्यादातर राजनीतिक दुश्मन पार्टी के अंदर ही बंकर बनाकर बैठे हैं। बाहर जो होगा, वो तो उनको पता है। पर, पीछे से वार करने वालों से कोई कैसे मुकाबला करे? ये बात भी सही है कि वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर आते भी हैं तो उनका वैसा जोशीला स्वागत नहीं होगा, जैसी कल्पना की जा सकती है। दावेदारों की फ़ौज के बीच उनके अध्यक्ष पद पर काबिज होने का रास्ता भी सीधा और आसान नहीं है। ऊपर से मुख्यमंत्री के रूप में उनका प्रोजेक्शन उन्हें राजनीतिक कद के मामले में दस साल मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह और तीन बार से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से भी छोटा बना देगा! प्रदेश में ऐसे नेताओं की बड़ी फ़ौज तैयार है, जो प्रदेश में सरकार बनने की स्थिति में कलफ लगी खादी पहनकर बैठी है! मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी के स्वाभाविक दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, अरूण यादव, मुकेश नायक, जयवर्धन सिंह से लगाकर आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया तक हैं। ऐसे कई नाम हैं जो कमलनाथ को अपना नेता मान तो लेंगे, पर उनकी छतरी तले के नीचे काम करने में उन्हें परेशानी होगी।   भाजपा में जाने की चर्चाओं के बीच कमलनाथ खामोश हैं। लेकिन, उनकी इस खामोशी को भी संदेह की नजर से देखा जा रहा है। इस बात ने तब जोर पकड़ा जब एक अनौपचारिक चर्चा में कमलनाथ ने राहुल गाँधी के मुलाबले नरेंद्र मोदी को ज्यादा मेच्योर नेता बता दिया! उसकी इस बात के नए-नए अर्थ निकाले जाने लगे! इसे उनकी भावी योजना की तरह देखा और समझा गया। इधर, भाजपा नेता भी उनके नाम का संधि विग्रह करके उसे 'कमल' और 'नाथ' में बाँट दिया। उनका पार्टी में बाहें फैलाकर स्वागत करने तक की बात कही जाने लगी है। जबकि, अभी तक की चर्चा में कमलनाथ को मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव-2018 में कांग्रेस की जीत के लिए कमान सौंपने की बात हो रही थी। इस अनपेक्षित हालात से पार्टी और खुद कमलनाथ भी हतप्रभ होंगे! कांग्रेस छोड़कर पार्टी बदलने को लेकर उनकी रणनीति क्या है, ये सच सिर्फ वे ही जानते हैं। लेकिन, अपनी साढ़े चार दशकों की राजनीतिक प्रतिबद्धता को वे तात्कालिक लाभ के लिए गवां देंगे, इस बात की संभावना कम है। कमलनाथ कांग्रेस में ही बने रहे, तो वे अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रमुख नेता होंगे। शिवराज-सरकार से मुकाबला भी उनको ही करना होगा। ज्योतिरादित्य सिंधिया से दिग्विजय सिंह तक को उनके पीछे चलना होगा। इस नाते कांग्रेस के भीतर उनका ओहदा बढ़ जाएगा। लेकिन, यदि उन्होंने भाजपा में जाने की गलती की तो उनकी स्थिति भी उन नेताओं जैसी होगी, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए हैं। सभी की किस्मत संजय पाठक जैसी तो नहीं होती। चौधरी राकेश सिंह इसका सबसे सटीक उदाहरण है।  
  थोड़ा पीछे पलटकर देखें तो प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ को वाजिब हैसियत नहीं मिली। प्रदेश राजनीति में वे अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल और माधवराव सिंधिया के मुकाबले कमजोर ही बने रहे। प्रदेश के मामलों में हाईकमान पहले इन नेताओं की पहले सुनता था, बाद में कमलनाथ की! पार्टी आलाकमान कमलनाथ को तवज्जो तो दी, उन्हें केंद्र की राजनीति से भी जोड़े रखा पर प्रदेश से दूर ही रहने दिया। इस सच को नाकारा नहीं जा सकता कि अभी तक बड़े नेताओं की कतार में कमलनाथ को पीछे ही रहना पड़ा। गाँधी परिवार से नजदीकी के बावजूद वे कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं बन सके। अब, जबकि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने की बात चल पड़ी है, उन्हें रास्ते से हटाने के लिए साजिशें रची जाने लगी है। प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति में भाजपा का कितना दखल है, इस बात को कई बार गंभीरता से परखा जा चुका है। नेता प्रतिपक्ष के मामले में तो भाजपा की रणनीति करीब-करीब सफल होने भी लगी थी, पर एक वक़्त पर एनवक्त पर वो दरक गई! संभव है कमलनाथ को बदनाम करने के पीछे भी कोई ऐसी ही चाल हो!    
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