Friday, March 17, 2017

मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कायाकल्प का वक़्त आ गया!

   मध्यप्रदेश में कांग्रेस पूरी तरह तीन-चार नेताओं की बपौती बन गई! जब भी पार्टी कोई फैसला करने उतरती है, उसके सामने दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा कोई और नाम नहीं होता! ये दावेदार भी होते हैं और सलाहकार भी! पिछले दो दशकों में इन नेताओं से हटकर पार्टी में कोई फैसला हुआ हो, ऐसा नहीं लगा! जहाँ ये नेता सामने दिखाई नहीं देते, वहाँ परदे के पीछे भी यही होते हैं। प्रदेश के सभी कांग्रेसी इन तीनों के खेमों में बंटे हैं। जो इस खेमे से बाहर हैं, वे इसलिए खामोश रहते हैं कि विघ्नसंतोषी न कहलाएं! पूर्व मंत्री और सांसद सज्जन वर्मा ने सोनिया गाँधी को हाल ही में एक चिट्ठी लिखकर उन्हें अपनी व्यथा बताई है। उन्होंने इस चिट्ठी में अपनी बात कही हो, पर ये हर कांग्रेसी की पीड़ा है। इसके बाद भी पार्टी हाईकमान का मन बदलेगा, इस बात के आसार कम ही हैं! नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी पर अजय सिंह का आना भी पार्टी का इसी तिकड़ी के प्रभाव में होने का संकेत है! जबकि, अब वो स्थिति आ गई, जब कांग्रेस को नए चेहरों पर दांव आजमाना होगा! अजय सिंह को फिर से नेता प्रतिपक्ष बना दिए जाने से पार्टी की प्रतिष्ठा और ताकत में कोई बहुत बड़ा इजाफा हो जाएगा, ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आती! पहले भी जब वे इस पद पर थे, उन्होंने कोई प्रतिमान नहीं गढ़े! 


- हेमंत पाल 
   कांग्रेस में ये बात तेजी से चल पड़ी है कि अब पार्टी का कायाकल्प किया जाना बहुत जरुरी है। प्रदेश में तीन विधानसभा चुनाव हारने के बाद यदि पार्टी चौथा चुनाव भी हारना नहीं चाहती, तो उसे कुछ नया सोचना होगा। दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक प्रतिभा का जितना उपयोग किया जाना था, वो हो चुका! दो दशकों से मध्यप्रदेश में पार्टी जिन हाथों में पोषित हो रही है, वे अब पूरी तरह चुक चुके हैं! पार्टी के नीति नियंताओं को अब गंभीरता से इस दिशा में विचार करना चाहिए कि मध्यप्रदेश में पार्टी की सेकंड लाइन को आगे आने का मौका मिले! बरसों से प्रदेश की राजनीति कर रहे दिग्विजय सिंह के पास अब पार्टी को जिन्दा करने का कोई नया फार्मूला होगा, ऐसा नहीं लगता! कमलनाथ से भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती! उनकी राजनीति छिंदवाड़ा दायरे से कभी बाहर नहीं निकली है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचार प्रमुख बनाकर आजमाया जा चुका है। अपने दरबारियों से बाहर निकलकर शायद ही वे कुछ सोचें!
     पार्टी के पुराने नेता सज्जन वर्मा ने पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से व्यथित होकर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को पत्र लिखा है। उनकी पीड़ा के पीछे मूल कारण गोआ में सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी कांग्रेस की सरकार न बन पाने को लेकर है। परदे के पीछे से उन्होंने दिग्विजय सिंह पर तीर चलाया है, जो गोआ के प्रभारी थे। सज्जन वर्मा ने बात भले ही प्रदेश से बाहर कि की हो, पर वो भी प्रदेश में पार्टी की हालत से कम दुखी नहीं हैं। उन्होंने इंदिरा गाँधी को याद करते हुए सोनिया गाँधी को चेताया है कि आप उन्हें भी साहसिक फैसले लेना होंगे। राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स को ख़त्म करके इंदौर गाँधी ने राजे-रजवाड़ों को उनकी हैसियत बता दी थी! सज्जन वर्मा के नजरिये से देखा जाए तो उन्होंने भी कांग्रेस की राजनीति पर कब्ज़ा जमकर बैठे राजा-महाराजाओं के राजनीतिक प्रिवीपर्स ख़त्म करने का सुझाव दिया है। इस पत्र में तो उन्होंने कांग्रेस को ख़त्म करने की सुपारी लेने जैसी बात लिखकर स्पष्ट कहा है कि ऐसे कांटेक्ट किलर नेताओं से पार्टी को बचाया जाए। इंदौर के एक पूर्व विधायक और मुखर नेता अश्विन जोशी ने भी पार्टी अध्यक्ष को चापलूसों 
  अब तो सार्वजनिक रूप से स्वीकारा जाने लगा है कि प्रदेश में कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। चुनाव और उपचुनाव दोनों में तो भाजपा के हाथों कांग्रेस मात खा ही रही है, रणनीति में भी पार्टी पिछड़ने लगी है। कई बार तो ये अहसास होने लगता है कि क्या कांग्रेस के फैसलों में भी भाजपा का दखल है? नेता प्रतिपक्ष कौन बनेगा, ये सवाल दो महीने से लटकने के बाद जब पिटारी खुली तो वही नाम सामने आया जो तिकड़ी की लिस्ट में था! मुकेश नायक, बाला बच्चन और अजय सिंह में से किसी एक का बनना तय ही था! क्योंकि, तीनों के पीछे एक-एक क्षत्रप खड़ा था। अजय सिंह को ही फिर मौका दिया गया। इस घटनाक्रम के पीछे दिग्विजय सिंह की योजना बताई जाती है। अब ये सवाल खड़ा होता है कि तिकड़ी में आपसी खींचतान के बाद क्या अजय सिंह को पार्टी के नेताओं को साथ मिलेगा?  अजय सिंह को राजनीति विरासत में मिली है। लेकिन, भाजपा के सत्ता में आने के बाद वे अपने आक्रामकता से पार्टी में कभी जान नहीं फूंक पाए! वे अपनी ठकुराई और काकस से बाहर ही नहीं निकल सके हैं। सतना से लोकसभा चुनाव हारना भी उनकी ताकत  कमजोर करता है। पिछली बार जब वे नेता प्रतिपक्ष थे, पार्टी के उपनेता चौधरी राकेश सिंह से उनके मतभेद जगजाहिर थे। ये भी माना जाता है कि उनके कांग्रेस छोड़ने का कारण भी कहीं न कहीं ये तनातनी ही थी! 
    जबकि, अफवाहों मुताबिक भाजपा ने अपनी तरफ से चाल चली थी कि मुकेश नायक को नेता प्रतिपक्ष का पद मिले! क्योंकि, विधानसभा में सरकार अपनी मनमानी करने का मौका तभी मिलता है, जब नेता प्रतिपक्ष मिट्टी का माधो हो! मुकेश नायक को ये कुर्सी देने के लिए क्या कुछ हुआ, ये एक अलग कहानी है। राजनीति जानकार भी जानते हैं कि मुकेश नायक के पीछे कौनसी लॉबी काम कर रही थी! कार्यवाहक नेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन ने भी कमलनाथ जरिए आदिवासी कार्ड चलाने की कोशिश की! लेकिन, एकवक़्त पर उनका तुरुप का इक्का कमजोर पड़ गया! सत्यदेव कटारे के बीमार होने के बाद से ही करीब सालभर से विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी बाला बच्चन संभाल रहे थे। उन्हें इस पद का सशक्त दावेदार समझा भी जा रहा था। लेकिन, उनके तेवर सरकार को रास नहीं आ रहे थे। निमाड़ की एक सभा में तो उन्होंने मुख्यमंत्री की सभा में मंच पर हंगामा करके अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। 
    लब्बोलुआब यही है कि कांग्रेस हाईकमान को मध्यप्रदेश के संदर्भ में वही तीन-चार पत्ते फैंटने की आदत छोड़ना होगी। यदि वास्तव में पार्टी को प्रतिद्वंदी के सामने मुकाबले में खड़ा करने की स्थिति में लाना है तो नए प्रयोग करना होंगे! पार्टी के थके और चुके नेताओं को जब तक घर नहीं भेजा जाएगा, किसी चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगा! यहाँ मुद्दा किसी नेता की राजनीतिक योग्यता की कसौटी का नहीं है। सारा मसला पार्टी में पसरी उस गुटबाजी का है, जो प्रदेश में कांग्रेस को एक नहीं होने दे रही! इसका फ़ायदा भाजपा उठाती है और पार्टी में सेंध लगाने में सफल हो जाती है। पूरे देश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से पार्टी हाईकमान के लिए इस तिकड़ी की बात मानना मज़बूरी बन जाता है। मामला पार्टी में बनते-बिगड़ते समीकरणों तक ही सीमित नहीं है। प्रदेश में आज की स्थिति में ये भी आकलन करना होगा कि आज मध्यप्रदेश में कांग्रेस जिस मुकाम पर है, क्या वो भाजपा और शिवराजसिंह के लिए चुनौती बन सकती हैं?
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