Friday, December 1, 2017

एक चेहरे की चमक से चमकेगा कांग्रेस का 'मिशन 2018'


- हेमंत पाल

  कांग्रेस में किसी चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने की परंपरा कम ही रही! केंद्र में तो बरसों तक गाँधी परिवार का वर्चस्व रहा, इसलिए वहाँ किसी चेहरे को प्रोजेक्ट करने का तो सवाल ही नहीं उठता! लेकिन, राज्यों में पार्टी सिर्फ अपने चुनाव चिन्ह पर मैदान में उतरी और जीतने के बाद सारा दारोमदार हाईकमान के हाथ में सौंप दिया जाता रहा! इसका एक कारण ये भी माना जाना चाहिए कि कांग्रेस ने कभी राज्य से बड़े नेता को उभरने नहीं दिया! मध्यप्रदेश की बात की जाए तो यहाँ जब अर्जुन सिंह का कद बढ़ता दिखाई दिया था तो उन्हें दूसरी बार चुनाव जीतने के अगले ही दिन पंजाब का राज्यपाल बनाकर हटा दिया गया था। लेकिन, आप कांग्रेस को भी धरातल पर उतरना पड़ रहा है। पंजाब के बाद अब मध्यप्रदेश में भी एक चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई जाने वाली है। अभी घोषणा तो नहीं हुई, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस 'मिशन 2018' के लिए मध्यप्रदेश में अपना चुनावी चेहरा बना रही है। 
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  मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा सामने न रखकर सिर्फ अपने दम पर चुनाव लड़ने में विश्वास रखने वाली कांग्रेस की राजनीतिक शैली में बदलाव आ रहा है। कांग्रेस ने पंजाब में पिछला चुनाव कैप्टन अमरेंद्रसिंह को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर लड़ा और उसे सफलता भी मिली। अब लगता है पार्टी यही प्रयोग आगे होने वाले सभी विधानसभा चुनाव में करने जा रही है। मध्यप्रदेश में भी अगले साल के अंत में चुनाव होना हैं। रिसकर बाहर आने वाली ख़बरें बताती है कि पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने का फैसला कर लिया है। लेकिन, अभी औपचारिक घोषणा होना बाकी है। इसे संयोग भी माना जाना चाहिए कि कुछ महीने पहले इसी तरह की मांग खुद ज्योतिरादित्य ने भी की थी, पर तब इस तरह की रणनीति की कोई रुपरेखा तक नहीं बनी थी।      
   मध्यप्रदेश में कांग्रेस पिछले डेढ़ दशक से जिस स्थिति में हैं, पार्टी के लिए कोई नया प्रयोग करना जरुरी भी था। भाजपा ने अपने लगातार तीन कार्यकाल में अपनी जड़ों को काफी गहरा कर लिया है। आज के हालात में कांग्रेस के पास ऐसा कोई हथियार नहीं है, जो भाजपा की जड़ों को हिला सके। भाजपा को चुनाव में यदि नुकसान होगा तो उसका कारण एंटी-इनकम्बेंसी के अलावा और कुछ  नहीं है। ऐसे में प्रदेश के मतदाताओं को रिझाने के लिए कांग्रेस को कोई नया फार्मूला लाना था तो वो ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में सामने आता दिखाई दे रहा है। समय, काल और परिस्थितियां व्यक्ति को सब कुछ सीखा देती हैं और तय है कि डेढ़ दशक तक सत्ता से बाहर रहकर कांग्रेस ने भी निर्वासन के दर्द से बहुत कुछ सीखा ही होगा! 
  प्रदेश में कांग्रेस के तीन प्रभावशाली नेता हैं उनमें एक खुद ज्योतिरादित्य हैं। दूसरे बड़े नेता कमलनाथ है, जिन्हें पार्टी के ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के फैसले से शायद कोई आपत्ति नहीं हैं। तीसरे हैं दिग्विजय सिंह जो फिलहाल नर्मदा परिक्रमा पर हैं और अभी उनकी राजनीति भविष्य की गर्भ में हैं। कमलनाथ के बारे में पहले लगा था कि उन्हें शायद ज्योतिरादित्य का नाम मंजूर नहीं था, पर पार्टी हाईकमान के फैसले के सामने उन्हें झुकने पर मजबूर होना पड़ा। वैसे पिछले चुनाव में भी सिंधिया को चुनाव अभियान की कमान सौंपी गई थी, पर वे कोई कमाल नहीं कर सके थे। यदि इसके कारणों की तह में जाया जाए तो कई कारण निकलकर बाहर आएंगे, पर सभी कारण 2013 की मोदी आँधी में दबकर रह गए! तब नरेंद्र मोदी के नाम की जो आँधी चली थी, उसने विपक्ष के कई किले ढहा दिए थे। लेकिन, इस बार के चुनाव में कोई लहर या आँधी की फिलहाल तो उम्मीद दिखाई नहीं दे रही! ऐसे में कांग्रेस और भाजपा के लिए ये चुनाव बराबरी का ही लग रहा है।      
  कांग्रेस में बरसों से गांधी परिवार को सामने रखकर चुनाव लड़ने की परंपरा रही है। फिर वो लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव! उनके अलावा कोई और चेहरा कभी चुनावी नजरिए से कारगर माना गया हो, ऐसा तो याद नहीं आता! केंद्र में कांग्रेस की विरासत एक परिवार के हाथ में रहें, इसलिए राज्यों में किसी नेता के कद को ज्यादा बड़ा नहीं होने दिया गया। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना पार्टी की इसी परंपरा पर नकेल डालने जैसी बात है। क्योंकि, यदि पार्टी चुनाव जीतती है तो सारा श्रेय पार्टी के बजाए उसी नेता को जाएगा, जिसे मुख्यमत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया है। ऐसे में यदि चेहरा घोषित हो गया, तो चुनाव नतीजे के बाद हाईकमान की भूमिका भी लगभग समाप्त ही समझी जाएगी! पार्टी के नेता चयन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी हाईकमान के हाथ से निकल जाएगी। क्योंकि, कांग्रेस की परंपरा है कि पार्टी के क्षत्रपों को तो चुनाव में सिर्फ मेहनत करना है। आखिरी वक्त पर राजा की कुर्सी पर कौन विराजित होगा, ये फैसला तो वही नेता करते हैं, हाईकमान जिनकी मुट्ठी में हाईकमान होता है। 
  कांग्रेस के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो पार्टी ने बरसों तक देश और प्रदेश में अपने तमाम क्षत्रपों को अकसर ताश के पत्तों की तरह फेंटा ही है। ये सिलसिला जवाहरलाल नेहरू से लगाकर इंदिरा गाँधी से होता हुआ राजीव गांधी तक सिलसिला निर्बाध चलता रहा! मध्यप्रदेश भी इससे बचा नहीं रहा! द्वारकाप्रसाद मिश्र से लगाकर अर्जुन सिंह तक को कांग्रेस आलाकमान ने ऐसे ही फेंटा और चुना था! लेकिन, इन्हीं क्षत्रपों ने ही कांग्रेस को मजबूती भी दी। जब ये क्षत्रप कमजोर हुए तो पार्टी की जड़ें भी ढीली पड़ गई। इसी निरंतरता में पार्टी कमजोर होते-होते यहाँ तक पहुंची है। लेकिन, तब देश और प्रदेश में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं था। अब वो हालात नहीं हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहाँ दो दलीय शासन व्यवस्था है, कांग्रेस लगातार तीन चुनाव से बाहर है।
   मध्यप्रदेश में कैलाशनाथ काटजू और अर्जुन सिंह के बाद दिग्विजय सिंह ही तीन ऐसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। 1985 में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद अर्जुन सिंह जब दुबारा चुनाव जीते, तो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के अगले ही दिन उन्हें पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया! इस मामले में दिग्विजय सिंह किस्मत के धनी निकले जो लगातार दो बार मुख्यमंत्री बने! इसका एक कारण ये भी है कि जिस दौर में वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब केंद्र में कांग्रेस कमजोर थी। तब कांग्रेस में नरसिम्हाराव का दौर चल रहा था। सोनिया गांधी उस समय पार्टी में ज्यादा सक्रिय नहीं थीं। हाईकमान की परिस्थितियां इतनी मजबूत नहीं थी कि दिग्विजय सिंह को हिला सकें! लेकिन, तब भी कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के चेहरे को सामने रखकर पर चुनाव नहीं लड़ा था। 2004 में जब कांग्रेस यूपीए के साथ सत्ता में लौटीं, तब  दिग्विजय सिंह अपना दस साल का कार्यकाल पूरा कर चुके थे। 
  इस बार का विधानसभा चुनाव जिस रणनीति के तहत लड़ा जाएगा, उसमें कांग्रेस की आक्रामकता ही उसकी सफलता का आधार बन सकती है। क्योंकि, कांग्रेस के पास खोने को और छुपाने को कुछ नहीं है और पाने को बहुत कुछ है। जबकि, भाजपा को बजाए आक्रामक होने के रक्षात्मक रणनीति के तहत और अपनी उपलब्धियों को सामने रखकर चुनाव लड़ना है। लेकिन, इस सबके लिए जरुरी होगा कि कांग्रेस के सभी क्षत्रप उस एक चेहरे को जिताने के लिए  एक जुट हों! क्योंकि, यदि यहाँ क्षत्रपों की इच्छाएं पनपी तो पार्टी को फिर पांच साल के लिए मन मसोसकर इंतजार करना होगा! आज के हालात में ज्योतिरादित्य सिंधिया का चयन गलत नहीं हैं। कांग्रेस की ताकत एक चेहरे के साथ सिमट जाए तो पांसा पलटा भी जा सकता है। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत है कि कांग्रेस के सामने बाहर से बड़ी लड़ाई पार्टी के भीतर की है। कांग्रेस का हर बड़ा नेता हाईकमान की डोर से बंधकर किसी भी दौड़ते हुए को गिरा सकता है।
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