Sunday, December 24, 2017

ब्लैक एंड व्हाइट के दौर का वो रंगीन जमाना!

- हेमंत पाल 


  हिंदी फिल्म इंडस्ट्री सौ साल से ज्यादा पुरानी हो गई। इस इंडस्ट्री ने आजादी से पहले और बाद मनोरंजन की बदलती दुनिया का लम्बा दौर देखा है। समय के साथ फिल्मों ने भी अपने आपको बदलने में देर नहीं की। आज ये इंडस्ट्री जिस स्थिति में है, वहां तक आने में इसने कई उतार-चढ़ाओ देखे! बेआवाज और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से लगाकर बोलती और रंगीन फिल्मों तक का सफर काफी लम्बा और संघर्ष से भरा रहा! 1913 में दादा साहेब फाल्के ने पहली ब्लैक एंड वाइट फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी। ये सफर 1968 तक इसी तरह चलता रहा। 'सरस्वतीचन्द्र' को हिन्दी सिनेमा जगत की अंतिम ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म माना जाता है।फिल्म का एक गीत 'चंदन सा बदन, चंचल चितवन' आज भी लोकप्रिय है। 
  ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में ऐसा भी समय आया जब कुछ फिल्मकारों ने विदेशों से तकनीक उधार लेकर फिल्मों को रंगीन करने के प्रयोग भी किए। इस नजरिए से 'किसान कन्या' पहली रंगीन फिल्म मानी जाती है, जो 1937 में बनी थी। अर्देशर ईरानी की इस फिल्म को निर्देशित किया था मोती डी गिडवानी ने। ये वही ईरानी थे, जिन्होंने 1931 में बेआवाज किरदारों को आवाज देकर पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनाई थी। जबकि, वी शांताराम ने हिंदी से पहले मराठी फिल्म 'सैरंध्री' 1933 में ही बना दी थी। ये बात अलग है कि 'सैरंध्री' के प्रिंट जर्मनी में बनवाए गए थे। जबकि 'किसान कन्या' देश में बनी पहली ऐसी फिल्म थी, जो पूरी तरह भारत में ही प्रोसेस की गई थी। लेकिन, उस दौर में रंगीन फिल्म को दर्शकों ने मान्यता नहीं दी। 1950 के दशक में हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हुईं। इसके पहले हिंदी सिनेमा जगत रंगों से अछूता था, लेकिन सिनेमा की ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया भी सिने प्रेमियों के दिलों पर छाई रहीं। सोहराब मोदी की 1953 में रिलीज फ़िल्म ‘झांसी की रानी’ टेक्नीकलर में बनाई थी। 
  इसके बाद एक दौर 'क्लासिक कलर' का भी आया जब पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को रंगीन करने की पहल हुई! 1960 में रिलीज हुई के आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले-ए-आजम'  का एक गाना रंगीन था। फिल्म की कालजई लोकप्रियता को देखते हुए 44 साल बाद इसे 2004 में रंगीन बनाकर फिर से प्रदर्शित किया गया। इसके बाद कुछ और फिल्मों को भी रंगीन बनाकर प्रदर्शित किया गया। देव आनंद की प्रोडक्शन कंपनी 'नवकेतन' की आखिरी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'हम दोनों' थी, जिसे भी इसी तकनीक से रंगीन किया गया था।
  ब्लैक एंड व्हाइट का जादू कुछ ऐसा था कि आज के रंगीन दौर में भी एक फिल्म को पूरी तरह ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया। मनीषा कोइराला की कमबैक फिल्म 'चेहरे' में हिंदी फिल्मों का वो चेहरा दिखाया गया था, जब यह सिनेमा गूंगा और ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करता था। इस फिल्म में परदे के रंगीन होने तक का सफर भी दिखाया था। रोहित कौशिक द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, हृषिता भट्ट और गुलशन ग्रोवर थे। पुराने दौर को दिखाने के लिए 'चेहरे' का काफ़ी हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट में ही शूट किया गया है। शाहिद कपूर और आलिया भट्ट की फिल्म 'शानदार' में भी बॉलरूम डांस ब्लैक एंड व्हाइट रखा  गया था। फिल्म का गीत 'नजदीकियां' बीते जमाने के आकर्षण वाला नए जमाने का गीत था। लेकिन, ऐसा कोई भी प्रयोग सफल नहीं हुआ। बीते ज़माने की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की बात और थी, वे भी कालजई है और इन फिल्मों के चाहने वाले भी आज मौजूद हैं।  
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