Friday, December 22, 2017

गुजरात के चुनाव नतीजों के चश्मे से मध्यप्रदेश को देखिए!

हेमंत पाल
   गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की पूर्णाहुति हो गई! नतीजे भी सामने आ गए और उनकी सियासी चीरफाड़ भी शुरू हो गई। हिमाचल के मतदाता तो हर बार नया फैसला देते हैं, इस बार भी उन्होंने कांग्रेस को हराकर सत्ता की चाभी भाजपा को सौंपी है। जबकि, गुजरात में भाजपा ने भले ही सत्ता में वापसी कर ली हो, पर घटी सीटों ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी! यदि इसे मतदाताओं का इशारा समझा जाए, तो ग्यारह महीने बाद मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी मतदाताओं की इस मनःस्थिति का प्रभाव पड़ना तय है। अनुमान है कि मध्यप्रदेश से सटे गुजरात के ये नतीजे यहाँ भी दूरगामी असर डाल सकते हैं। गुजरात के नतीजे मध्यप्रदेश में चौथी बार सत्ता पाने की तैयारी में लगी भाजपा के लिए चेताने और खबरदार करने वाले हैं। इस इशारे को समझते हुए भाजपा संगठन और सरकार को इस भ्रम से बाहर निकल आना चाहिए कि मतदाताओं के सामने उनके अलावा कोई विकल्प नहीं है! गुजरात के नतीजे इसी गलतफहमी का जवाब हैं। असल बात तो ये है कि देश के मतदाता किसी पार्टी हराने के लिए ज्यादा और जिताने के लिए कम ही वोट देते हैं। गुजरात की तरह मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है, इसलिए भी भाजपा को चिंता करने की जरुरत ज्यादा है।    
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   गुजरात में विधानसभा चुनाव हो गए और नतीजे भी सामने हैं। सत्ता पर भाजपा का कब्ज़ा बरक़रार रहा, पर कांग्रेस ने भी जो पाया वो उम्मीद से कम नहीं है। इन चुनाव नतीजों को दोनों ही पार्टियों (कांग्रेस और भाजपा) ने अपने-अपने नजरिए से विश्लेषित किया है। भाजपा इसलिए खुश है कि उसके 22 साल के कार्यकाल को गुजरात की जनता ने एक बार फिर स्वीकार लिया! जबकि, कांग्रेस की ख़ुशी का कारण ये है कि इन चुनाव नतीजों ने एक मरती हुई पार्टी को जीवनदान दिया है। गुजरात की सत्ता पर फिर से कब्ज़ा जमाए रखना भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। क्योंकि, देश के प्रधानमंत्री इसी राज्य से आते हैं और ये गुजरात की अस्मिता से जुड़ा मामला था। लेकिन, यदि गुजरात विधानसभा के चुनाव नतीजों को मध्यप्रदेश के संदर्भ में परखा जाए, तो निष्कर्ष भाजपा के पक्ष में जाता दिखाई नहीं देता! इसलिए मध्यप्रदेश के भाजपा संगठन के लिए ये नतीजे सँभलने की एक चेतावनी हैं।  
  मध्यप्रदेश की सीमा से लगे गुजरात में भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 16 सीटें खोई है, जो वहां के लोगों की नाराजी का स्पष्ट संकेत हैं। मन समझाने को भाजपा संगठन ने 1.5% वोटो की बढ़ोतरी की बात कही हो, पर सच्चाई को कौन नकारेगा कि इसके मुकाबले कांग्रेस की 19 सीटें और वोटों का प्रतिशत भी 2.5 बढ़ गया। भाजपा को ज्यादातर समर्थन शहरी क्षेत्र से मिला है, जबकि ग्रामीण इलाकों में उसे मतदाताओं ने नकार दिया! गुजरात में शहरी क्षेत्र ज्यादा है और व्यापारी वर्ग उसके साथ है। जबकि, मध्यप्रदेश में ग्रामीण मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। अहमदाबाद में भाजपा ने 21 में 16 सीटें जीतीं, सूरत की 16 सीटों में 15, वडोदरा की 10 में से 9 और राजकोट में 8 में से 6 सीटें भाजपा ने जीती। यानी गुजरात के चार बड़े शहरों की 55 सीटों में 46 भाजपा को मिली। बाक कि 127 सीटों में से भाजपा को 53 और कांग्रेस को 71 सीटें मिली। 3 सीटें अन्य उम्मीदवारों के पास गईं। 
  इस नजरिए से समझा जा सकता है कि यदि गुजरात और मध्यप्रदेश के मतदाताओं की मनःस्थिति एक सी रही तो 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या होंगे? ज़ाहिर है कि भाजपा ग्रामीण इलाकों में कमजोर हुई है। यहाँ तक कि जिस ऊँझा विधानसभा सीट के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गाँव वडनगर आता है, वहाँ भी भाजपा 19 हज़ार वोटों से हारी! गोधरा सीट तो भाजपा ने मात्रा 96 वोट से जीती। जबकि, 12 सीटों पर हार-जीत का अंतर 250 वोटों से भी कम रहा। 18 सीटों पर उम्मीदवार 500 से कम वोटों से जीते। जबकि, 14 सीटों पर हार-जीत का फैसला 1500 से कम के अंतर से हुआ। गुजरात के नतीजों में विधानसभा की 14 सीटें ऐसी भी हैं, जहाँ हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट मतदाताओं ने 'नोटा' में दिए! वहाँ सत्ता में कांग्रेस तो थी नहीं, इसलिए समझा जा सकता है कि मतदाताओं ने 'नोटा' का विकल्प भाजपा उम्मीदवारों के लिए ही चुना होगा! मुद्दा ये कि मध्यप्रदेश में भाजपा को उम्मीदवार चुनने में भी सावधानी बरतना होगी!    
  दरअसल, अगले साल होने वाले तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के लिए गुजरात के नतीजे एक सबक हैं। क्योंकि, इन तीनों राज्यों में भाजपा की ही सरकार है। समझने की बात है कि राज्यसभा चुनाव के समय गुजरात में जो कांग्रेस 42 विधायक लेकर अहमद पटेल को जिताने के लिए संघर्ष कर रही थी, उसे मतदाताओं ने 80 और 3 अन्य सीटों के साथ बाहुबली बना दिया। भाजपा के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण ये है कि तीन साल पहले जब लोकसभा चुनाव हुए थे, भाजपा ने 60% वोट पाकर सभी 26 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था। इन नतीजों को विधानसभा के हिसाब से आंकलित किया जाए तो उस समय भाजपा ने गुजरात की 161 विधानसभा सीटों पर बढ़त ली थी। जबकि, कांग्रेस को 33% वोट मिले थे। इस बार के विधानसभा चुनावों भाजपा को जहां 49.1% वोट मिले, वहीं कांग्रेस का वोट प्रतिशत 33 से बढ़कर 41.9% हो गया। तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले 11% वोटों की गिरावट ने निश्चित रूप से भाजपा को झटका तो दिया है। 
   गुजरात के मतदाताओं ने जो फैसला किया उसमें वहां के स्थानीय मुद्दे भी शामिल होंगे, इस बात को नाकारा नहीं जा सकता! लेकिन, वहाँ 22 साल से भाजपा की सरकार है और देश का नेतृत्व करने वाला नेता भी उसी राज्य से आता है। इसलिए गुजरात के शहरी मतदाताओं के लिए गुजरात की अस्मिता को बचाना भी एक सवाल था। जबकि, मध्यप्रदेश में ऐसा कोई फैक्टर नहीं है। यहाँ शहरी इलाका भी गुजरात की अपेक्षा बहुत कम है। मध्यप्रदेश के ग्रामीण मतदाता ही तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बने! मध्यप्रदेश के किसानों को भी सरकार से विभिन्न मुद्दों पर सरकार से नाराजी रही है। फसलों के समर्थन मूल्य, भावान्तर योजना और मंदसौर कांड ऐसे मसले हैं, जिन पर किसानों की नाराजी खुलकर सामने आ चुकी है। मध्यप्रदेश के लोगों को सबसे ज्यादा आपत्ति अफसरशाही के बढ़ते प्रभाव और भाजपा नेताओं के अहम् को लेकर भी है। सरकार की घोषणाएं और उनका जमीनी क्रियान्वयन ठीक से न होने से भी लोग नाराज हैं। बेरोजगारी की स्थिति ये है कि प्रदेश का हर 70 वां व्यक्ति ये नौकरी पाना चाहता है। मध्यप्रदेश में पिछले 14 साल से भाजपा की सरकार है। अगले चुनाव में भाजपा अपनी सरकार के कामकाज का दावा करके तो वोट मांग नहीं सकती! क्योंकि, बीते 14 सालों में सरकार का विकास का मॉडल ही स्पष्ट नहीं हो पाया! 
  गुजरात विधानसभा के इन चुनाव नतीजों से मध्यप्रदेश के कांग्रेसी नेताओं का उत्साह तो बल्लियों उछल रहा है, पर सिर्फ उत्साह से सत्ता नहीं पाई जा सकती! कांग्रेस के लिए भी मंजिल आसान भी नहीं है। क्योंकि, गुजरात में भी कांग्रेस की किनारे पर नैया डूबने का एक बड़ा कारण उसके संगठनात्मक नेटवर्क की कमजोरी ही रही! मतदाताओं ने कांग्रेस को भाजपा का विकल्प तो माना, पर उन्हें लगा कि अभी उसके पास सरकार चलाने लायक क्षमता नहीं है। यही हालात मध्यप्रदेश में भी है। कांग्रेस को अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढाँचे को फिर से खड़ा करना पड़ेगा, तभी मतदाताओं की नजर में वो सशक्त विकल्प बनकर उभरेगी! मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तीन दिग्गजों की ताकत जब तक भाजपा से मुकाबले के लिए साझा नहीं होगी, मतदाताओं को कांग्रेस की ताकत का भरोसा नहीं दिलाया जा सकता।    
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