Thursday, December 28, 2017

मठाधीशों पर लगाम लगाकर ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस का उद्धार संभव!


    गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस का उत्साह बल्लियों उछल रहा है। सत्ता पाने को आतुर कांग्रेस को लग रहा है कि उसने गुजरात में भाजपा को सिर्फ टक्कर देकर गढ़ जीत लिया! जबकि, सभी जानते हैं कि वहाँ कांग्रेस जीती नहीं है, पर भाजपा को जोर जरूर करवा दिया। अब कांग्रेस इन नतीजों को साल के अंत में अन्य राज्यों के साथ मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के नजरिए से देख रही है। उसे लग रहा है कि गुजरात में तो 'मोदी फैक्टर' का असर था, मध्यप्रदेश में तो भाजपा के पास ऐसा कोई जादू नहीं है! लेकिन, कांग्रेस के लिए ये सबकुछ उतना आसान भी नहीं है, जैसे कयास लगाएं जा रहे हैं। भाजपा से मुकाबले से पहले कांग्रेस को अपने घर को संवारना होगा, तभी वो मुकाबले के लायक खुद को तैयार का पाएगी! गुजरात के नतीजों ने सिर्फ कांग्रेस में ही उत्साह नहीं भरा, भाजपा को सँभलने का मौका भी दिया है। लेकिन, कांग्रेस तभी भाजपा से सही मुकाबला कर पाएगी, जब उसके मठाधीश अपने अहम् के मठों से बाहर निकलकर पार्टी के झंडे नीचे आकर खड़े होंगे! ऐसे में कांग्रेस के लिए सबसे जरुरी है अपने मठाधीशों की घरफोड़ राजनीति पर अंकुश लगाना!
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- हेमंत पाल
   मध्यप्रदेश में भाजपा पिछले तीन चुनाव से सत्ता पर काबिज है। इन डेढ़ दशकों में उसने गहरी पैठ बना ली है। जबकि, बरसों तक सत्ता में बनी रही कांग्रेस सत्ता का रास्ता भटक गई! उसने अपनी लगातार तीन हार से कोई सबक नहीं सीखा और न कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने की कोशिश की। इस दौरान कांग्रेस का जनता से जुड़ाव भी कमजोर हुआ! जबकि, अगला विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। लगता नहीं कि पार्टी किसी सोच और लक्ष्य के फिर चुनाव में उतरने जा रही है। जब भी चुनाव की बात होती है, तो मुद्दा इस बात पर आकर ठहर जाता है कि पार्टी की तरफ से चेहरा कौन होगा? इसके अलावा कोई चर्चा सामने नहीं पाती कि भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस के तरकश में कौन-कौन से तीर हैं!  उधर, भाजपा ने कई महीनों पहले से ही 'मिशन-2018' की तैयारियां शुरू कर दी है। चुनाव के लिए चेहरा, जिम्मेदारियां, मुद्दे सब कुछ तय हो चुका हैं।
  मध्यप्रदेश में तो कांग्रेस के आधा दर्जन क्षत्रप अपना अलग-अलग राग आलापते नजर आ रहे हैं। पता नहीं कि चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा और प्रतिद्वंदी को चक्रव्यूह में कैसे घेरा जाएगा! बिना सत्ता के इतने सालों में पार्टी कार्यकर्ता भी पूरी तरह से दिशाहीन हो गए। कांग्रेस हाईकमान की प्राथमिकताओं से भी तो मध्यप्रदेश जैसे गायब ही हो गया! जबकि, कांग्रेस की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बैंसी के लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। लेकिन, जब तक नेतृत्व तय नहीं होगा, फैसले भी नहीं लिए जा सकेंगे। यदि वास्तव में सत्ता के लिए छटपटाती कांग्रेस को अपना लक्ष्य पाना है तो उसे भाजपा के बूथ मैनेजमेंट की पकड़ को चुनौती देने के लिए बड़े बदलाव करना होंगे! लेकिन, उससे पहले मध्यप्रदेश में तीन मोर्चों में बंटी पार्टी की कमान एक क्षत्रप के हाथ में देना होगी। जब तक पार्टी हाईकमान ये मोर्चा फतह नहीं कर लेता, इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने से रोक सकेगा!
   अभी तक दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया हर चुनाव में अलग-अलग किले लड़ाते रहे हैं। यही कारण है कि भाजपा को सरकार बनाने के मौके मिलते रहे! भाजपा ने अपने तीन कार्यकाल में सबकुछ अच्छा किया, ये बात भी नहीं है! लेकिन, उसके गलत फैसलों और गड़बड़ियों को जिस तरह मुद्दा बनाकर जनता के सामने रखा जाना था, उसमे कांग्रेस फेल हो गई! 15 सालों में ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनपर कांग्रेस सरकार को घेर सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ! बल्कि, कई बार कांग्रेस के नेताओं की अधूरी कोशिशों ने भाजपा को सँभलने के मौके ही ज्यादा दिए हैं। फिलहाल कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम हवा में हैं। जबकि, त्रिकोण के तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण कोण दिग्विजय सिंह अभी नर्मदा परिक्रमा पर हैं। लेकिन, चुनाव में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता! वे कुछ न करते और कुछ न बोलते हुए भी बहुत कुछ कर जाते हैं। इसलिए हाईकमान को उन्हें काबू में रखना होगा, तभी अच्छे नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। 
  पार्टी कई दिनों से ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा बनाना चाहती है, पर घोषणा नहीं कर पा रही! इसके पीछे क्या मज़बूरी होगी, ये सब जानते हैं। कमलनाथ ने तो अपनी सहमति दे दी है, पर अभी तक दिग्विजय सिंह की तरफ से सकारात्मक इशारा दिखाई नहीं दिया! लेकिन, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह खेल में टंगड़ी अड़ाते जरूर नजर आ रहे हैं। हाल ही में उनका बयान सामने आया कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री घोषित करने की परम्परा नहीं है! जबकि, वे ये भूल रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस ने कैप्टन अमरेंद्र सिंह को चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस जब तक अपने मुख्यमंत्री का चेहरा सामने नहीं लाएगी, मुकाबले जीत मिलना आसान नहीं है। 2013 के चुनाव से पहले इन्हीं टंगड़ीबाज अजय सिंह ने 'परिवर्तन यात्रा' के जरिए मध्यप्रदेश की जमीन नापने की कवायद की थी। तब भी गुटबाजी के चलते न तो उनकी यात्रा पूरी हो सकी और न सत्ता हांसिल करने की प्रक्रिया में पार्टी को सफलता मिली। उलटे 2008 के मुकाबले कांग्रेस की सीटें 71 से घटकर 58 पर आ गईं। 2003 में तो मात्र 38 सीटों पर ही कांग्रेस जीत सकी थी। 
   कांग्रेस को इस बात का भी भली-भाँति अहसास हो चुका है कि पुरानी रणनीतियों से चुनाव नहीं जीता जा सकता! यदि मैदान में मुकाबले में उतरना है तो भाजपा की ही तरह आक्रामक रणनीति बनाना होगी और सेबोटेज की रिसन को रोकना होगा। प्रदेश के नए प्रभारी दीपक बावरिया भी इन दिनों डैमेज कंट्रोल में लगे हैं। वे समझ गए हैं कि प्रदेश में सभी क्षत्रपों को समेटना बहुत कठिन काम है। इसलिए वे संगठन स्तर पर कुछ ऐसे बदलाव करने की कोशिश में हैं, जिनका तात्कालिक असर दिखाई दे। ऐसे लोगों को फिर से सक्रिय किया जाए, जो कांग्रेस की मूल विचारधारा से जुड़े हों! बावरिया ने तय कर लिया है की बूथ मैनेजमेंट के लिए कार्यकर्ताओं को तैयार करना पहला काम है, इसे मजबूती दिए बिना भाजपा से मुकाबला संभव नहीं है। भाजपा बूथ मैनेजमेंट और जमीनी स्तर पर वोट कन्वर्ट करने में खासी माहिर है। यही कारण है कि नए प्रभारी बूथ मैनेजमेंट के साथ वार्ड में कार्यकर्ता बनाने में लगे हैं। चुनाव के नजरिए से वे मजबूत कार्यकर्ताओं की टीम भी बना रहे हैं। क्योंकि, उन्हें पता है की यदि नेताओं की आपसी गुटबाजी सुलझाने में समय गंवा दिया तो बचे किलों के ढहने को भी रोकना मुश्किल हो जाएगा।  
   कांग्रेस को अब लग रहा है कि उसके अच्छे दिन आने वाले हैं। पिछले कुछ दिनों से प्रदेश सरकार के प्रति जनता में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं और किसानों की नाराजगी जैसे मु्द्दों ने भी कांग्रेस में नया जोश भरने का काम किया है। गुजरात चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस के उत्साह को दोगुना कर दिया। अब ये माना जाने लगा है कि जिस तरह से पार्टी हाईकमान ने गुजरात चुनाव लड़ा, यदि उसी आक्रामक तरीके से मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव लड़ा जाए, तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की वापसी को कोई रोक नहीं सकता! गुजरात और मध्यप्रदेश दोनों जगह कांग्रेस के हालात कुछ-कुछ समान ही हैं। कांग्रेस को वहां भी सत्ता पाने की छटपटाहट ने आक्रामक होने को मजबूर किया, वही स्थिति मध्यप्रदेश में है। 
  पिछले तीन चुनाव में किसी न किसी कारण कांग्रेस को झटके लगते रहे हैं। ये भी माना जाता है कि 2013 में भाजपा की वापसी का बड़ा कारण मोदी-फैक्टर था। लेकिन, अब अच्छे दिनों का भ्रम खंडित हो गया। गुजरात चुनाव के बाद तो ये भी स्पष्ट हो गया कि मोदी-लहर भी किनारे से टकराकर ठंडी पड़ चुकी है। यदि राहुल गांधी यदि 2018 के विधानसभा चुनावों में गुजरात जैसा तेवर दिखाते हैं, तो मध्यप्रदेश में उलटफेर की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। राहुल गांधी गुजरात की तरह जिम्मेदारी लेकर कंधों पर लेकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो चुनाव में कांग्रेस मजबूत होकर सामने आएगी। लेकिन, उससे पहले कांग्रेस को अपने अंदर जोश भरना होगा। हवाबाज और बयानवीर नेताओं से निजात पाना होगी और जमीनी कार्यकर्ताओं की पहचान करना होगी! क्योंकि, किसी भी पार्टी के सत्ता तक पहुँचने का सफर कार्यकर्ताओं के कंधों पर चढ़कर ही पूरा होता है। उससे पहले मठाधीशों पर नकेल डालना भी जरुरी होगा कि वे अपने समर्थकों को जागीर न समझे और पार्टी कार्यकर्ता की तरह मैदान में सक्रिय करें, फिर चाहे इस युद्ध में सेनापति कोई भी हो!  
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