Sunday, December 10, 2017

उस हमले से कैसे बचकर उभरा ये सिनेमा!


- हेमंत पाल

  फिल्म इंडस्ट्री पर टेलीविजन के हमले का असर कम नहीं है! समझा जाए तो ये अनुमान से कहीं बहुत ज्यादा है! दशकों तक जो दर्शक मनोरंजन के लिए सिर्फ फिल्मों पर आश्रित था, टिकट खरीदकर सिनेमाघर तक जाता था, वो घरों में और अब मोबाइल की स्क्रीन में कैद हो गया! दो दशकों में आया ये बदलाव छोटी बात नहीं है। जब टेलीविजन के इस हमले का भविष्य के लिए अनुमान लगाया गया था, तब भी फिल्मों से जुड़े लोगों ने ये सब नहीं सोचा गया था जो आज सामने आया है। इस संभावित हमले से बचने के लिए क्या-क्या किया गया, ये शायद कभी आम दर्शकों के सामने नहीं आया! 1984 में जब टीवी के छोटे परदे पर फिल्मों का प्रसारण विस्तारित हुआ, तभी फिल्म से जुड़े लोगों ने भांप लिया था कि आगे क्या होने वाला है! क्योंकि, रविवार शाम जब टीवी पर फिल्म आती थी, सिनेमाघर खाली हो जाते!  
  इसके बाद के 10 साल में धीरे-धीरे टीवी के कदम आगे बढ़ते रहे और इसके दर्शक भी! जो दर्शक फिल्मों के टिकट के लिए खिड़की पर धक्का-मुक्की करते थे, वो घर में टीवी के सामने सोफे पर हाथ में पॉपकॉर्न लेकर पसरने लगे! इसके बाद हुए वीडियो कैसेट के प्रभाव ने फिल्मों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! फिल्म के रिलीज होते ही चोरी से उन्हें रिकॉर्ड करके बेचा जाने लगा! इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा फिल्म वितरकों और एक्सीबिटर्स (सिनेमाघर मालिकों) को! क्योंकि, फिल्म निर्माता तो फिल्म बनाकर, बेचकर उसकी कीमत वसूलकर हाथ झाड़ लेते, पर वितरक और एक्सीबिटर्स पिसते रहे। जब उन्होंने इसे खुद पर सीधा हमला महसूस किया तो इससे निपटने के भी उपाय किए जाने लगे। लेकिन, ये एक अजीब सी जंग थी। सिनेमा की लड़ाई सिनेमा से ही होने लगी!     
  इसलिए कि एक तरफ तो सिनेमा पर सरकारी अंकुश था, मनोरंजन टैक्स की मार थी, पर चोरी से पाइरेटेड वीडियो कैसेट बनाकर फिल्म बेचने वाले आजाद थे। यहाँ तक कि उन पर भी कोई नियम लागू नहीं होता जो विदेश के लिए फिल्मों की बकायदा कैसेट बनाते और बेचते थे। ये दो सिनेमाओं के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा ही थी। जब घरों में टीवी के परदे को वीडियो कैसेट देखने के लिए उपयोग किया जाने लगा तो सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या तेजी से घटने लगी! इससे सिनेमाघरों की आमदनी भी घटी! ये भी समझ आने लगा कि यदि ये सब होता रहा, तो एक दिन सिनेमाघरों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा! 
   ये 1994 की बात है जब केंद्र और राज्य सरकारों को सिनेमा उद्योग की समस्याओं से वितरकों ने अवगत कराया! इसके बाद ही केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से फिल्म दिखाए जाने पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए! कॉपीराइट सशोधन विधेयक संसद में पारित होने के बाद कानून बना। संसद में केबल टीवी नेटवर्क विधेयक भी लाया गया। राज्यों के सूचना मंत्रियों के 21वें सम्मलेन में सिनेमा उद्योग के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें भी की गई! इस सम्मेलन में मनोरंजन कर की दरों में कमी, कम्पाउंडिंग पद्धति को लागू किए जाने, वीडियो तथा केबल टीवी को टैक्स के दायरे में लाने, शॉपिंग काम्प्लेक्स बनाते समय सिनेमा को बरक़रार रखने जैसे फैसले किए गए।      
  इस खतरे को देखते हुए कुछ फिल्म उद्योग के हित में कुछ ठोस कदम भी उठाए! 'फिल्म मेकर्स कम्बाइन' तथा फिल्म वितरकों की संस्था 'फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स कौंसिल' ने 10 जून 1994 को एक समझौता किया है। इस समझौते के तहत निर्माताओं और वितरकों ने तय किया है कि कोई भी निर्माता किसी भी फिल्म को वीडियो के जरिए घरों में देखने के लिए फिल्म के प्रदर्शन के दो सप्ताह तक जारी नहीं करेगा। निर्माता अपनी फिल्म के केबल राइट्स फिल्म की रिलीज के छह महीने तक भारत या नेपाल में टीवी के प्रदर्शन के लिए नहीं देगा। इसके अलावा टीवी चैनल, सेटेलाइट चैनल पर पाँच साल तक फिल्म प्रदर्शन के अधिकार नहीं देगा।        
  इस सबका एक असर ये भी हुआ कि सिनेमाघरों के कायाकल्प की कोशिशें शुरू हुई। दर्शकों के लिए नई सुविधाएँ जुटाने की तरफ सिनेमाघर मालिकों का ध्यान गया! तभी ये बात भी उठी थी कि यदि सिनेमा पर सिनेमा की प्रतिस्पर्धा से मुकाबला करना है तो वक़्त के तकाजे को पहचाना जाए और सिनेमाघरों को आधुनिक रूप देकर दर्शकों के लिए ऐसा चुंबकीय आकर्षण पैदा करें कि उनके लिए सिनेमा पहले की तरह आदत बन जाए। आज हम जो सुविधाजनक मल्टीप्लेक्स देख रहे हैं, वो सब उसी असर है जो सिनेमा पर हमले की तरह महसूस किया गया था। जिस वीडियो को सिनेमा का खतरा समझा गया था, आज वक़्त उससे बहुत आगे निकल गया! लेकिन, सिनेमाघर मालिकों ने इस सबको स्वीकार कर लिया और फिल्म देखने को इतना सुखद बना दिया कि अब ये सिर्फ मनोरंजन नहीं बचा, उससे बहुत आगे निकल गया है!   
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