Friday, November 17, 2017

इंदौर की राजनीतिक जागरूकता को किसकी नजर लगी?

- हेमंत पाल 

   इंदौर में भाजपा के चार विधायक और नामचीन सांसद होते हुए भी चारों तरफ राजनीतिक ख़ामोशी जैसा माहौल है। किसी का भी पूरे शहर पर दबदबा दिखाई नहीं देता! भाजपा के सभी विधायक अपने-अपने क्षेत्र तक सिमटे हुए हैं। कैलाश विजयवर्गीय के पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और दिल्ली चले जाने से शहर में राजनीतिक खालीपन साफ़ नजर आने लगा। भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में भी है। खबरिया चैनलों के कैमरों के सामने नकली आंदोलन करके कुछ नेता विरोध की औपचारिकता जरूर पूरी कर लेते हैं, पर उससे लोग प्रभावित नहीं होते! राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, उनकी हर गतिविधि प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती!  कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है।   

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   इंदौर में पिछले करीब दो साल से अजीब सा राजनीतिक सन्नाटा है। न कोई हलचल, न राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के हथकंडे और न सालभर बाद होने वाले चुनाव को लेकर कोई तैयारी! कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में कहीं कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आती! प्रदेश में सरकार भाजपा की है, पर इंदौर का कोई भी भाजपा नेता शहर में अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर दिखाई नहीं देता! कहने को इंदौर में भाजपा के चार विधायक हैं और जिले में सात, फिर भी चारों तरफ खामोशी है। प्रदेश के मंत्रिमंडल में इंदौर का नेतृत्व क्या गायब हुआ, शहर की राजनीतिक जागरूकता को ही जंग लग गया! शुरू में समझा गया था कि ये सन्नाटा किसी बड़े तूफान के अंदेशे का संकेत है। लेकिन, अब लग रहा है कि शहर से धीरे-धीरे राजनीतिक चैतन्यता ही गायब हो रही है। कहा जा सकता है कि इससे पहले शहर में जो राजनीतिक हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से दिल्ली जाने के बाद से शहर की राजनीतिक जीवंतता को जैसे ग्रहण लग गया! 
  आज भी इस शहर में थोड़ी राजनीति तभी दिखाई देती है, जब कैलाश विजयवर्गीय इंदौर में नजर आते हैं। दरअसल, कोई नेता किसी शहर को कितनी ऊर्जा दे सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ! उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद से ही इंदौर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। ये चारों एक साथ भी तभी नजर आते हैं, जब कोई राजनीतिक मज़बूरी हो! महू से खुद विजयवर्गीय ही विधायक हैं, सांवेर और देपालपुर के विधायक भी हाशिए पर हैं। ये विधायक भी शहर भीड़ बढ़ाते तभी नजर आते हैं, जब पार्टी का कोई बड़ा नेता शहर में होता है। 
 पिछले दो दशक में कैलाश विजयवर्गीय अकेले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। लेकिन, अब लोग ये जरूर मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा ही अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है! आज भी उनके शहर में होने पर जो राजनीतिक ऊर्जा दिखाई देती है, वो सामान्य दिनों में नदारद ही रहती है।   
   दो-ढाई दशक पहले तक कैलाश विजयवर्गीय का कार्यक्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) इंदौर के सबसे पिछड़े इलाकों में था। परदेशीपुरा, नंदानगर, क्लर्क कॉलोनी, सुखलिया और मालवा मिल, कल्याण मिल को इंदौर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले लोग पिछड़ा इलाका कहते थे। इस बात से विजयवर्गीय अनभिज्ञ नहीं थे! उन्हें पता था कि गरीब मिल मजदूरों वाले उनके कार्यक्षेत्र से इंदौर के लोग कटकर रहते हैं। एक चुनावी सभा में विजयवर्गीय ने कहा भी था कि यदि में चुनाव जीता तो लोग खरीददारी के लिए राजबाड़ा जाना भूल जाएंगे! आज वो स्थिति आ भी गई! उन्होंने इस इलाके की कमान सँभालते ही पहला काम ये किया कि परदेशीपुरा, नंदानगर और पाटनीपुरा जैसे इलाके को व्यावसायिक रूप देना शुरू किया! धीरे-धीरे इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियाँ आकार लेने लगी! आज यहाँ सभी बड़े ब्रांड्स के शोरूम और दुकानें हैं। इंदौर के सराफा बाजार जैसी यहाँ सोने-चाँदी की कई बड़ी दुकानें हैं। अपने इलाके का चेहरा बदलने की कोशिश को सिर्फ राजनीति नहीं कहा जा सकता! कुछ मायनों में ये राजनीति तो थी, पर उसके पीछे दूरदृष्टि थी! जिस परदेशीपुरा के लोगों को अपना पता बताने में संकोच होता था, आज उन्हें वही पता बताने में फख्र होता है। दरअसल, ये एक नेता का स्तुतिगान नहीं, उनकी उस राजनीतिक शैली की बानगी है जिसका बाकी नेताओं में घोर अभाव नजर आता है। लेकिन, उनकी इस कार्य शैली की सराहना करने वाले कम, आलोचक ज्यादा हैं! 
  यदि बात कांग्रेस की राजनीति की जाए तो इंदौर में महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की है, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! कृपाशंकर शुक्ला आज भी हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। उनकी आवाज में अभी भी खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! महेश जोशी ने लम्बे समय तक अपने आपको राजनीति से अलग कर लिया था। लेकिन, पिछले करीब एक साल में फिर नजर आने लगे हैं। लेकिन, उनकी सक्रियता में कमी है। इसे उम्र का असर भी कहा जा सकता है, लेकिन उनकी जुबान का कड़वापन अब पार्टी के कार्यकर्ताओं को रास आएगा, इस बात में शंका है। क्योंकि, प्रदेश से कांग्रेस की सत्ता को गए पंद्रह साल हो गए और इस दौरान कार्यकर्ताओं की नई फ़ौज आ गई, जिसे कड़वी भाषा सुनने की आदत नहीं है। ऐसी स्थिति में शहर में वे फिर अपना असर कायम कर पाएंगे, ये नहीं कहा जा सकता।  
  शहर में राजनीतिक सन्नाटा बढ़ाने में कांग्रेस के बयानवीर नेताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। भाजपा सरकार के किसी भी फैसले और नीतियों पर सतही बयान देकर कांग्रेस के कुछ अखबारी नेता अपनी कॉलर भले खड़ी कर लेते हों, पर जमीन पर उनकी कहीं कोई पकड़ नहीं है। शहर में कांग्रेस का सिर्फ एक विधायक राऊ से जीतू पटवारी है। लेकिन, इंदौर में उसके समर्थक भी उँगलियों पर गिने जाने वाले चेहरों से ज्यादा नहीं हैं। जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गई है, सत्ता के गोंद से चिपके नेता भी आजाद हो गए! कांग्रेस गुटों में बंट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने  अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे! 
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