Saturday, February 24, 2018

विक्रम भट्ट की प्रतिभा को यहाँ से परखिए

हेमंत पाल

  गंभीरता से फिल्म देखने वाले किसी दर्शक से सवाल किया जाए कि क्या वो विक्रम भट्ट को जानता है? निश्चित रूप से उसका जवाब होगा, हाँ वही ना जो डरावनी फ़िल्में बनाते हैं? जवाब गलत नहीं है! बरसों तक विक्रम भट्ट को इसी भूमिका में पहचाना गया! राज, 1920, शापित, हांटेड और क्रिएचर 3डी जैसी फिल्मों से उन्होंने दर्शकों को बहुत डराया! लेकिन, अब भूत, प्रेत और भटकती आत्माओं की कहानियों से निकलकर विक्रम भट्ट ने नया अवतार लिया है। बदलते दौर में अब वे वेब-सीरीज बना रहे हैं। अपने इस काम को अंजाम देने के लिए उन्होंने बकायदा 'वीबी ऑन द वेब' कंपनी बनाई है। लेकिन, डरावनी फिल्मों की तरह उनका चौंकाने वाला अंदाज आज भी बरक़रार है। पहले वे डराकर चौंकाते थे, अब कहानी में ट्विस्ट लाकर! उनकी वेब-सीरीज 'अनटचेबल्स' और 'माया' में उन्होंने दर्शकों को इसी तरह चौंकाया, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कई वेब-सीरीज बनाई, पर यहाँ सिर्फ इन्हीं दो सीरीज का जिक्र करेंगे!
  किसी फिल्मकार की सफलता इसी बात से आंकी जाती है, कि वो दर्शकों को बाँधकर रखने में कितना सफल रहा! डरावनी फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकारों के सामने तो सबसे बड़ी चुनौती यही होती है कि दर्शकों को फिल्म की कहानी से इतना बाँध दिया जाए कि 'डर' उसके जहन में समा जाए! एक समय था, जब रामसे ब्रदर्स की पहचान ऐसी ही फिल्मों से थी। इसके बाद विक्रम भट्ट ने ऐसी फ़िल्में पसंद करने वालों को डरावना सिनेमा परोसा। इसी 'डर' को वे अपनी वेब सीरीज में दर्शकों को 'चौंकाने' के अंदाज में लाए हैं। उनकी वेब-सीरीज 'अनटचेबल्स' का हर एपिसोड देखने वाले को सोचने पर मजबूर करता है कि आगे क्या होगा? यही वो जिज्ञासा है, जो किसी सार्थक मनोरंजन का आधार बनती है। किसी भी फिल्म, टीवी सीरियल या वेब-सीरीज की रोचकता इसी में है कि दर्शक उसे सिर्फ देखें नहीं, बल्कि अनुमान भी लगाएं कि अब क्या होने वाला है! 
  'अनटचेबल्स' ऐसी वेब-सीरीज है, जिसकी कहानी इतने मोड़ मुड़ती है कि दर्शक हतप्रभ रह जाता है!  लेकिन, जब ये सीरीज आखिरी एपीसोड में पहुँचती है, तो राज खुलता है, जो चौंकाने वाला होता है! ऐसे में दर्शक समझ नहीं पाता कि आखिर हमने ये क्यों नहीं सोचा? ये ऐसी मर्डर मिस्ट्री है, जिसमें अदालती दांव-पेंच भी जमकर खेले गए। 'अनटचेबल्स' की पूरी कहानी में एक नामी वकील की है, जो हत्या के कातिल को चूहे की हरकत से पकड़ता है। चूहा जिस तरह सुरंग बनाकर उसे चकमा देकर छुप जाता है, वहीँ से इस वकील को कातिल की साजिश समझ आती है। ऐसी समझ और आईडिए को फ़िल्म में कैसे कनेक्ट करके दर्शकों को दिखाया जाना है, इसमें विक्रम भट्ट पारंगत है। साथ ही कानूनी दांवपेंच को समझकर उसका चित्रण करना भी आसान काम नहीं है, जो 'अनटचेबल्स' में किया गया।
   इस वेब-सीरीज की एक खासियत ये भी है कि इसमें विक्रम भट्ट ने एक्टिंग की है। वे वकील बने हैं, जो अपनी तलाकशुदा पत्नी के सामने उस लड़की की तरफ से केस लड़ते हैं जिसपर मर्डर का इल्जाम है। जहाँ तक एक्टिंग की बात है, तो उसमे भी विक्रम भट्ट ने कोई कसर नहीं छोड़ी!
  विक्रम भट्ट की फ़िल्मी प्रतिभा की अपनी अलग ही कहानी है। उन्होंने 14 साल की उम्र में पहली फिल्म 'कानून क्या करेगा? की थी। लेकिन, उन्हें पहचान मिली डरावनी फिल्मों से। विक्रम भट्ट कभी बहाव के साथ नहीं बहे! जब डरावनी फिल्मों का बाजार नहीं था, तो विक्रम भट्ट ने दर्शकों को उस मनोरंजन की तरफ मोड़ा! अब जबकि, नए ज़माने के दर्शक पारिवारिक टीवी सीरियलों से ऊब रहे हैं, तो विक्रम भट्ट ने उनके सामने वेब-सीरीज का विकल्प रख दिया। जब वेब-सीरीज में विक्रम भट्ट के अंदाज का मनोरंजन मिलेगा तो भला कोई क्यों नहीं देखेगा! 
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Friday, February 23, 2018

चुनाव से पहले इंदौर की राजनीति में नीम सन्नाटा!


- हेमंत पाल

  राजनीतिक जागरूकता के लिए पूरे प्रदेश में पहचाना जाने वाला शहर इंदौर आज खामोश है! 9 महीने बाद प्रदेश के साथ यहाँ भी विधानसभा चुनाव होना है, पर यहाँ ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा! गुटबाजी में फँसी सत्ताधारी भाजपा और विपक्ष का बेसुरा राग आलाप रही कांग्रेस दोनों के खेमों में सन्नाटा है। शहर में 6 विधानसभा क्षेत्र हैं, पर कहीं कोई हलचल नहीं! 6 में से 5 क्षेत्रों में भाजपा विधायक हैं और सिर्फ राऊ विधानसभा कांग्रेस के पास है। यहाँ के कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी खुद को लाइम-लाइट में रखने के रास्ते निकाल लेते हैं, पर भाजपा के पाँचों विधायक अपने-अपने इलाकों से बाहर कभी नजर ही नहीं आते! लगता है जैसे हर विधानसभा क्षेत्र की सीमाबंदी कर दी गई है। ये राजनीतिक सन्नाटा क्यों है और इससे क्या हांसिल होगा, ये समझ से परे है! भाजपा के विधायक शहर में किसी को मंत्री नहीं बनाए जाने के तीन सदमों से उबर नहीं पाए, तो कांग्रेस की गुटीय राजनीति के अपने अलग किस्से हैं। 
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   आज यदि किसी से सवाल किया जाए कि इंदौर का नेता कौन है, तो शायद सोचना पड़ेगा कि किसका नाम लिया जाए? क्योंकि, शहर में भाजपा के पांच विधायक होते हुए भी किसी का पूरे शहर पर प्रभाव नहीं लगता! आठ बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी वोटों की गिनती से जीत का रिकॉर्ड बनाया हो, पर उन्होंने कभी खुद को इंदौर के जनप्रतिनिधि के रूप में नहीं उभारा! इंदौर के आम लोगों से सांसद का जुड़ाव या जीवंत संपर्क आज तक नहीं हो सका! भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस के नेताओं की भी है। राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, वो पूरी तरह प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती! कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष (वो भी कार्यकारी) हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है। ऐसे राजनीतिक सन्नाटे वाले माहौल में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वाभाविक है और वही हो रहा है। 
   इंदौर में कई सालों से मातमी राजनीतिक सन्नाटा है। कहीं कोई सुगबुगाहट या हलचल नजर नहीं आती। दोनों ही बड़ी पार्टियों में यही हालत है। प्रदेश में 14 साल से ज्यादा समय से भाजपा की सरकार है, पर कोई नेता अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर नहीं लगता। किसी तूफान का भी अंदेशा भी नहीं है कि उससे पहले या बाद के सन्नाटे का अनुमान लगाया जाए! इससे पहले शहर में जो हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण काफी हद तक कारण कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से जाने के बाद शहर की राजनीतिक जीवंतता ख़त्म ही हो गई! पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद वे अपनी व्यस्तता के कारण स्थानीय राजनीति से कट से गए हैं। इसका असर इंदौर में साफ़ दिखाई देने लगा! कोई एक नेता किसी शहर को कितना चैतन्य रख सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ है। उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद शहर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ के महापौर बनने के बाद से उनकी राजनीति नगर निगम तक सीमित हो गई! भाजपा के ये पाँचों विधायक तभी नजर आते हैं, जब भाजपा का कोई बड़ा नेता इंदौर में होता है।
  अभी तक कहा जाता था कि कैलाश विजयवर्गीय के प्रभाव की वजह से अपनी ताकत नहीं दिखा पाते थे! उन्हें लगता कि विजयवर्गीय के कारण उन्हें पूरा मौका नहीं मिल पाता! अब जबकि, वे इंदौर में नहीं हैं और सबके लिए मैदान खुला है! फिर भी कोई और नेता आगे बढ़कर नहीं आ पाया! सभी विधायक अपने-अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए! क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ शहर की महापौर हैं, उनके पास ये जगह लेने का मौका और संसाधन दोनों हैं! पर, वे भी निगम के कामकाज में बंधकर रह गईं! उनके पास कार्यकर्ताओं की वो टीम भी नहीं है, जो किसी नेता को बड़ा बनाती है। वे अपने परिवारवाद के मोह से ही मुक्त नहीं हो पाई। जहाँ तक निगम की सक्रियता का मामला है तो निगम कमिश्नर ने सारे सूत्र अपने हाथ में ही रखे हैं! 
  जहाँ तक शहर में कांग्रेस की राजनीति की बात है तो यहाँ बरसों तक महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! महेश जोशी ने अपने आपको राजनीति से अलग ही कर लिया था, पर अब वे फिर सक्रिय हैं। लेकिन, उनकी दूसरी पारी को भी लगता है नजर लग गई! करीब सालभर पहले काफी हंगामे के साथ वे कुशलगढ़ से लौटकर राजनीति में सक्रिय हुए थे और इंदौर के सभी नेताओं को एक करने की कोशिश भी की थी, पर अब सब ठंडा हो गया! महेश जोशी का रुखा व्यवहार आज के कार्यकर्ताओं को रास भी नहीं आ रहा! कृपाशंकर शुक्ला जरूर हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। आज भी उनकी आवाज में वो खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! इसके बाद कोई नेता इस ऊँचाई  पर नहीं पहुँचा! इसका कारण था कि कांग्रेस गुटों में बाँट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने को अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे!
  सज्जन वर्मा भी इंदौर से ही हैं, पर उनकी पूरी राजनीति सोनकच्छ और शाजापुर जिले तक सीमित हो गई! वे कमलनाथ खेमे से जुड़े हैं इसलिए उनकी राजनीति का केंद्र बिंदु भी वही हैं। तुलसी सिलावट सांवेर विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं इसलिए आज भी उनकी सक्रियता का दायरा वहीं तक है। लेकिन, उनमे सबसे ज्यादा ऊर्जा तभी दिखाई देती है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया इंदौर आते हैं। तात्पर्य ये कि इंदौर के हर नेता का रिमोट किसी बड़े नेता से संचालित होता है। बाकी जो नेता हैं, वे दिग्विजय सिंह से जुड़े हैं और अभी ये सारे नेता नर्मदा परिक्रमा पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि, सभी को लग रहा है कि ये धार्मिक यात्रा पूरी होने के बाद दिग्विजय सिंह राजनीतिक धमाके करने वाले हैं। जिस तरह प्रदेश में कांग्रेस तीन कबीलों में बंटी है, वही धारा इंदौर में भी बहती है। यहाँ भाजपा के ताकतवर होने का बड़ा कारण कांग्रेस का कमजोर होना है। बीते 3 चुनाव में कांग्रेस के जो नेता विधानसभा चुनाव जीते, ये उनकी अपनी उपलब्धि है। इसमें पार्टी का कोई योगदान नहीं है। भाजपा उम्मीदवार के सामने आश्विन जोशी दो बार विधानसभा चुनाव जीते और और पिछले चुनाव में जीतू पटवारी ने राऊ जीता! लेकिन, इसमें कहीं शहर कांग्रेस का योगदान होगा, ऐसा नजर नहीं आया! अपने नेता के इंदौर आने पर एयरपोर्ट पर भीड़ लगाने वाले पदाधिकारी कभी कांग्रेस के दफ्तर 'गाँधी भवन' में दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि बरसों से कांग्रेस प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर पाई!     
   कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दो दशक से ज्यादा समय से इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। अब जरूर लोग ये मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा हमेशा अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है!
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Sunday, February 18, 2018

लम्बे सीरियलों के शिखर पर 'सीआईडी'

- हेमंत पाल

   टेलीविजन पर लम्बे चलने वाले सीरियलों का तो इतिहास भी काफी लम्बा है। सास-बहू पुराण और पारिवारिक षड्यंत्रों वाले इन सीरियलों को तब तक खींचा जाता है, जब दर्शक उससे बिदकने न लगें! लेकिन, लम्बे चलकर भी जो शो दर्शकों की पसंद बने रहे, तो उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है। 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे धार्मिक ग्रंथों पर बने सीरियलों के लम्बे चलने के तो अपने कारण हैं। उनका कथानक ही कई मोड़ लिए होता है और इनके कथानक को बीच में ख़त्म भी नहीं किया जा सकता। जबकि, अधिकांश लम्बे चलने वाले सीरियलों की कहानी को रबर की तरह तब तक खींचा जाता है, जब तक वो टूट न जाए! ऐसे में किसी टीवी सीरियल का 20 साल पूरे कर लेना मायने रखता है। उसके बाद भी यदि दर्शकों में उसकी लोकप्रियता बनी हुई है तो ये एक बड़ी उपलब्धि ही कही जाएगी! सोनी टीवी के अपराध आधारित सीरियल 'सीआईडी' ने ये कामयाबी हांसिल की है। ये शो दो दशक से दर्शकों का मनोरंजन कर रहा है और आज भी इसे पसंद करने वाले कम नहीं हुए। इस शो में हर बार नए केस आते रहते हैं जिन्हें सीआईडी की पूरी टीम मिलकर हल करती है।
  'सीआईडी' ने ने टेलीविजन पर अपने 20 साल पूरे किए तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कथानक की कसावट और उसकी रोचकता! एसीपी प्रद्युमन के नाम से प्रसिद्ध शिवाजी साटम इस शो के केंद्रीय पात्र हैं। इसके अलावा आदित्य श्रीवास्तव, दयानंद शेट्टी, दिनेश फड़नीस, श्रद्धा मुसले, अंशा सय्यद और नरेन्द्र गुप्ता जैसे कलाकारों की टीम ने जो किया वो कामयाबी का शिखर बन गया। यह शो अपराध और हत्या के रहस्यों को सुलझाने वाली पैचीदा कहानी के लिए जाना जाता है और यह क्रम दो दशकों से जारी है। दो दशक किसी एक शो का परदे पर बने रहना छोटी बात नहीं है। अब ये शो दुनिया में सबसे लम्बे समय तक चलते रहने वाला शो बन गया है। 
  शो के निर्माता और एसीपी प्रधुम्न बने शिवाजी साटम ने खुद भी कहा है कि उन्हें कभी आभास नहीं था कि 'सीआईडी' का सफर एक दिन 20 साल पूरे कर लेगा। आज 'सीआईडी' पूरी दुनिया में सबसे लंबे समय तक चलने वाला शो बन गया है तो दर्शकों का लगाव ही है। हमें गर्व है कि शो ने 20 साल पूरे कर लिए। लेकिन, कोई भी शो तभी इतने दिनों तक चल सकता है, जब वो दर्शकों की पसंद पर लगातार खरा उतरे। 1998 में जब 'सीआईडी' शुरू हुआ था, तब टीवी पर कोई अपराध आधारित शो नहीं था। इसके बाद कई चैनलों पर ऐसे शो शुरू हुए, पर 'सीआईडी' की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा। यही कारण है कि तब से आज तक यह शो सबसे ज्यादा पसंद किए जाने वाले टीवी क्राइम शो में से एक है। इस शो के डायलॉग्स 'दया, दरवाजा तोड़ दो' और 'कुछ तो गड़बड़ है' सोशल मीडिया पर भी जमकर वायरल हुए। 
  पुराने और लम्बे समय तक चलने वाले सीरियलों में कलर-टीवी का 'बालिका वधु' भी है। ये शो जब शुरू हुआ था, तब ये एक यूनिक विषय वाला सामाजिक सीरियल था। राजस्थान में होने वाले बाल विवाह के मुद्दे को इस शो में बहुत गंभीरता और संजीदगी के साथ दिखाया। 2245 एपिसोड्स से भी ज्यादा चला यह शो जुलाई 2016 को खत्म हुआ। इसके बाद 'स्टार प्लस' का शो 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' ऐसा शो रहा जिसने 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' के लम्बे चलने वाले आंकड़े को भी पीछे छोड़ दिया। सब-टीवी के शो 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' एक लेजेंड्री कॉमेडी शो है, जो 2008 में शुरू हुआ था और अभी तक दर्शकों को पसंद आ रहा है। यह शो एक हाउसिंग सोसायटी में रहने वाले अलग-अलग धर्म के लोगों के आपसी रिश्तों पर आधारित है। 'कलर-टीवी' का रियलिटी शो 'बिग बॉस' भी 11 साल पुराना है। पिछले कई सीजन से इसे सलमान खान होस्ट कर रहे हैं। जिन दिनों यह शो चल रहा होता है, उन दिनों इसकी टीआरपी सबसे ज्यादा होती है। भारत के साथ साथ विदेशों की चर्चित हस्तियां भी इसमें हिस्सा लेती हैं।
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Friday, February 16, 2018

'संघ' ने भी भांप लिया कि सरकार की चौथी पारी आसान नहीं!


हेमंत पाल

 मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की निकटता और 'संघ' के फीडबैक के मद्देनजर सरकार ने काम शुरू कर दिया। प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जमीनी स्थिति परखने का काम भी तेज हो गया है। पिछले साल (2017) के मध्य में भी संघ ने कुछ आंतरिक सर्वे करवाकर सरकार के कामकाज और जनता के रुख को परखा था। उस वक़्त भी नतीजे मुफीद नहीं थे और न अब हैं। 'संघ' ने हाल ही के अपने एक आंतरिक सर्वे में पाया था कि कर्मचारी वर्ग और किसान सरकार से बहुत ज्यादा नाराज है। ये नाराजी चुनाव में भाजपा को नुकसान बड़ा पहुंचा सकती है। यही कारण कि सरकार ने कर्मचारियों की मांगों और किसानों की समस्याओं को देखते हुए खजाना खोल दिया। लेकिन, सरकार ये क्यों नहीं समझ रही कि कुछ वर्गों को तात्कालिक सहूलियतें देने से उसकी जीत की संभावनाएं आसान नहीं हो जाती! प्रदेश में और भी मतदाता हैं, जिनकी नाराजी किसी घोषणा की मोहताज नहीं है। बढ़ती महंगाई, अफसरों की अकड़ और निरकुंश प्रशासन सरकार चुनाव में बहुत भारी पड़ेगा।   
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  मध्यप्रदेश में ये चुनावों का साल है। चुनाव हैं इसलिए चुनौतियाँ भी बड़ी हैं और भाजपा के लिए कुछ ज्यादा ही! तीन बार चुनाव जीतकर सरकार बना चुकी भाजपा के सामने फिर पुराना इतिहास दोहराने की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन, जो दिख रहा और समझ में आ रहा है वो इशारे अच्छा संकेत नहीं दे रहे! चुनाव के इस साल में प्रदेश सरकार के खिलाफ कई तरह की आवाजें उठ रही है। इनमें किसान, कर्मचारी, व्यापारी और युवा प्रमुख हैं। इसके अलावा बढ़ती महंगाई, बढ़ते अपराध, असुरक्षा की भावनाओं जैसे ढेर सारे कारणों की वजह से नाराज होने वालों की कमी नहीं है। लेकिन, सरकार को समझ नहीं आ रहा कि सभी को संतुष्ट कैसे किया जाए! डेढ़ दशक कार्यकाल के बाद अब सरकार के पास ऐसा कोई कारण भी नहीं बचा कि वो बहानेबाजी करके खुद को बचा ले! नाराजी का कारण सिर्फ प्रदेश सरकार ही नहीं है। केंद्र सरकार के कई नीतिगत फैसलों ने भी जनता का मन कसैला कर रखा है। ऐसे हालात में भाजपा के पास सिर्फ 'संघ' ही है जो सरकार को सही राह पर ला सकता है। 'संघ' के कार्यकर्ताओं की फौज ही पहले भी भाजपा की तारणहार बनती रही है। इस बार भी 'संघ' ने प्रदेश सरकार के प्रति जनता की नाराजी दूर करने की अपनी कोशिशें शुरू कर दी है! लेकिन, संघ के सामने जो जमीनी निष्कर्ष आया, वो अच्छा नहीं है!          
  सरकार के खिलाफ बढ़ता असंतोष भाजपा की परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। भाजपा के कट्टर समर्थकों का भरोसा भी डोलता दिखाई दे रहा है। इसके पीछे छुपे कारणों को खोजने के लिए 'संघ' ने अपने चुनिंदा कार्यकर्ताओं को ग्रामीण इलाकों में भेजा था। मकसद ये था कि ये लोगों से सीधा संवाद करके उस हकीकत का पता लगाएं, जो भाजपा की जीत में पलीता लगा सकती हैं। 'संघ' की इसी कोशिश का नतीजा है कि किसानों और कर्मचारियों की नाराजगी का पता चला और सरकार ने दोनों पर खैरात लुटाना शुरू कर दिया। सरकार ने अध्यापकों की भी कई मांगों को पूरा किया और उसके पंचायत सचिवों पर भी अपना प्यार लुटा दिया। क्योंकि, अध्यापक और पंचायत सचिव समाज का ऐसा वर्ग है, जो ग्रामीणों की नब्ज जानते हैं। लोगों के बीच सरकार को लेकर चलने वाली बातचीत का निष्कर्ष भी सबसे ज्यादा इन्हें ही पता होता है। 
  'संघ' के इस सर्वे की गंभीरता का पता इस बात से लगता है कि उसने इस काम में संघ विचारधारा से प्रभावित कर्मचारियों को ही लगाया। इन लोगों ने अपने दफ्तरों में आने-जाने वालों से स्थानीय विधायक की सक्रियता, सरकार के कामकाज और होने वाले चुनाव के विषय छेड़कर बातचीत की और उसे एक निर्धारित फॉर्मेट में दर्ज किया। दफ्तरों के अलावा चाय की दुकानों और यात्रा के दौरान भी चर्चा की गई! कर्मचारियों के अलावा किसानों के बीच भी ऐसे लोगों को लगाया गया, जो उनके संपर्क में रहते हैं और उनकी नब्ज को सही तरीके से पहचानते हैं। इस पूरी कवायद का जो निष्कर्ष आया वो सरकार और पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। सर्वे निचोड़ ये था कि लोग सरकार से नाराज हैं। गुजरात विधानसभा और राजस्थान के उपचुनाव में भाजपा को सिर्फ शहरी इलाकों में ही बढ़त मिली है। ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मुँह की खाना पड़ी। यही कारण है कि 'संघ' ने कमान अपने हाथ में लेकर सारा ध्यान गांवों पर लगा दिया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का हाल ही में बार-बार प्रदेश आना भी इसी से जोड़कर देखा जा सकता है। वे बहुत थोड़े अंतराल में उज्जैन, विदिशा और बैतूल आए हैं। 'संघ' की चिंता इस बात को लेकर है कि यदि कांग्रेस के बड़े नेता एकजुट होकर चुनाव लड़ते हैं, तो भाजपा के लिए जीत आसान नहीं है।  
    इस गोपनीय सर्वे का उभरकर आने वाला एक पक्ष ये भी है कि प्रदेश में हालात 2013 के विपरीत हैं। सरकार के प्रति लोगों की नाराजी के कई कारण हैं। असल बात ये है कि 'संघ' भी समझ नहीं पा रहा कि लोगों के इस गुस्से को कैसे ठंडा किया जाए! समाज के हर वर्ग को संतुष्ट कर पाना भी प्रदेश सरकार के लिए संभव नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी दो ऐसे मामले हैं, जो केंद्र के फैसले हैं, लेकिन इस मामले में लोगों की भाजपा से नाराजी का नजला तो प्रदेश सरकार पर ही फूटेगा। इस आंतरिक सर्वे के बारे में ये भी ख़बरें हैं कि अगर आज चुनाव हों, तो प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बनने के आसार कम ही हैं। पिछला चुनाव जीते करीब 70 विधायकों की हालात ऐसी है कि वे फिर चुनाव नहीं जीत सकते! इस सर्वे के मुताबिक तो भाजपा को 100 से भी कम 96-97 सीटें ही मिलती दिखाई दे रही है। जिन विधायकों के चुनाव हारने के आसार दिखाई दे रहे हैं, उनमें प्रदेश सरकार के कई मंत्री भी शामिल है। जबकि, पिछले साल हुई पार्टी की बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने 200 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया था। जबकि, पार्टी को यहाँ 100 सीटें जीतने के  पड़ रहे हैं। इन सारी स्थितियों से  पार्टी अनजान है न सरकार! यही कारण है कि पार्टी और सरकार के रणनीतिकार चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं।    
  'संघ' के इस सर्वे की प्रामाणिकता पर भरोसा इसलिए किया जा रहा है कि ऐसा ही आंतरिक सर्वे चुनाव से पहले गुजरात में भी किया गया था। 'संघ' ने पाया था कि गुजरात में भाजपा को करीब 60 सीटें मिलेंगी। इसके बाद 'संघ' ने मोर्चा संभाला और बमुश्किल वहाँ सरकार बनाने लायक समर्थन मिल पाया! यहां हुए सर्वे में भी 'संघ' का अनुमान है कि मध्यप्रदेश में भाजपा की सीटें सौ के अंदर आएगी। इसका कारण सरकार  नाराजी के अलावा प्रदेश भाजपा में बढ़ती गुटबाजी भी माना जा रहा है। अब ये भी खुलकर कहा जाने लगा है कि भाजपा के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री अरविंद मेनन के कार्यकाल में जो असंतोष सतह के नीचे था, वो अब बाहर निकल आया है।
  देखा जाए तो भाजपा की चिंता उसके मातृ संगठन ने ही बढ़ा दी। जबकि, ये कवायद सही भी है। 'संघ' ने पार्टी को उसकी खामियां बताते हुए उन्हें सुधारने को कहा है। ये भी कहा कि चौथी बार सरकार बनाने के लिए पार्टी को जनता का मनःस्थिति को टटोलना होगा, ताकि एंटी-इनकमबेंसी फेक्टर का पता लगाया जा सके। 'संघ' को प्रदेश में अपने प्रचारकों से मिला फीडबैक भी संतोषजनक नहीं है। प्रचारकों के इस फीडबैक में कहा गया कि जिलों में पार्टी नेताओं के बीच टकराव बढ़ रहा है। 'संघ' का कहना है कि जिलों में ब्यूरोक्रेसी पर काबू न होने से लोगों में नाराजी बढ़ रही है। 'संघ' ने कार्यकर्ताओं और मंत्रियों के बीच बढ़ती दूरी और नेताओं के अहम् को भी नियंत्रित करने की सलाह दी है। अब सारा दारोमदार इस बात पर है कि पार्टी और सरकार के सिपहसालार इसे किस नजरिए से लेते हैं! समय रहते यदि स्थिति संभाल ली गई, तो सरकार की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी। अन्यथा अब फैसला तो पब्लिक को ही करना है और 'पब्लिक है ये सब जानती है!' 
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Sunday, February 11, 2018

फिल्म की सफलता किसी समीक्षा की मोहताज नहीं!


- हेमंत पाल 
 
 लोग फ़िल्म देखने का फैसले कैसे करते हैं? उनकी समीक्षाएं पढ़कर, उनके प्रचार से प्रभावित होकर, अपने पसंदीदा एक्टर की फिल्म है इसलिए, टाइम पास के लिए या फिर किसी और कारण से! इसके पीछे सबके अपने-अपने कारण होंगे! लेकिन, दर्शकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो फिल्म देखने से पहले समीक्षाएं पढ़ता है, जिन्होंने फिल्म देखी है उनकी सलाह भी लेता है। कई बार समीक्षाएं सही होती है, पर जरुरी नहीं कि दर्शक की पसंद से वे समीक्षाएं मेल खाएं! यही कारण है कि ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त लम्बी है, जिन्हें समीक्षकों ने नकार दिया, पर वो दर्शकों की पसंद पर खरी उतरी! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से आज तक ऐसी कई फ़िल्में हैं जिनकी समीक्षकों ने जमकर आलोचना की, पर उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया!     
  ब्लैक एंड व्हाइट के दौर में 1943 में बनी अशोक कुमार के शुरूआती वक़्त की फिल्म 'किस्मत' देखकर समीक्षकों ने लिखा था कि फिल्म में अशोक कुमार को जिस तरह जेबकतरा और अपराधी बताया गया है, उसे देखकर युवाओं का सोच अपराधी बनने की तरफ मुड़ सकता है! लेकिन, दर्शकों ने उस फिल्म को बेहद पसंद किया और फिल्म ने उस समय एक करोड़ रुपए का बिजनेस किया था। राजकपूर की कालजयी फिल्म 'श्री-420' (1955) भी जबरदस्त आलोचना का शिकार हुई थी। इसे बकवास फिल्म तक लिखा गया था। लेकिन, इस फिल्म को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया। राजकपूर के निर्देशन में बनी और सर्वकालीन सफल प्रेम कहानी 'बॉबी (1973) को समीक्षकों ने प्यार के घिसे पिटे फॉर्मूले पर बनी फिल्म बताकर नकार दिया था। पर, दर्शकों ने 'बॉबी' को सफलता की उस ऊंचाई पर पहुँचाया। 
  हिंदी फ़िल्मी दुनिया के इतिहास की सफलतम फिल्मों में दर्ज 'शोले' (1975) के बारे कहा गया था कि ये बुझे हुए अंगारे जैसी फिल्म है। बदले के फॉर्मूले पर बनी इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। पर, 'शोले' ने जो चमत्कार किया, वो सब जानते हैं। जब अमिताभ बच्चन शिखर पर थे, उस वक़्त आई उनकी फिल्म 'मर्द' (1985) को बेकार और देशभक्ति के जबरन ठूंसे हुए फॉर्मूले की फिल्म बताया गया था। लेकिन, बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने धमाल किया था। सलमान खान की सफलतम फिल्म 'हम आपके है कौन' को भी आलोचकों ने नापसंद कर दिया था। कहा गया था कि ये किसी शादी के वीडियो से ज्यादा कुछ नहीं है। जबकि, ये फिल्म बॉलीवुड में 100 करोड़ रुपए कमाने वाली पहली फिल्म बनी। आमिर खान और करिश्मा कपूर की 1996 में आई फिल्म 'राजा हिंदुस्तानी' को समीक्षकों ने औसत दर्जे की फिल्म बताया था। जबकि, ये उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्म साबित हुई थी। 'गदर' (2001) भी जबरदस्त आलोचना का शिकार हुई थी। इसे देशभक्ति का पुराना फॉर्मूला और उत्तेजक फिल्म भी कहा गया था। पर, जब फिल्म परदे पर उतरी तो बॉक्स ऑफिस गरमा गया था।
  समीक्षकों ने 2008 में आई शाहरुख़ खान और अनुष्का शर्मा की जोड़ी वाली फिल्म 'रब ने बना दी जोड़ी' को अतार्किक और पुरानी प्रेम कहानी तो बताया ही था, इसके कुछ हिस्सों को बेवकूफियों से भरा बताया था। जबकि, इस फिल्म ने 90 करोड़ की कमाई की थी। सलमान खान की बॉडीगार्ड (2011) के बारे में कि इस फिल्म में कई खामियां हैं। यदि आप सलमान के फैन न हों, तो फिल्म नहीं देखना ही अच्छा है। पर, इस सलाह को दर्शकों ने झटक दिया और ये फिल्म बॉलीवुड के इत‌िहास की सबसे सफल फिल्मों में दर्ज हुई! राउडी राठौर (2012) के बारे में तो कहा गया था कि 'ये लाउड और मूर्खतापूर्ण घटनाओं से भरी फिल्म है। जबकि, अक्षय कुमार के दो दशक लंबे करियर में इस फिल्म ने सबसे शानदार ओपनिंग की थी। ग्रांड मस्ती (2013), 2 स्टेट (2014), और 'जय हो' भी ऐसी ही फ़िल्में हैं, जो समीक्षकों को पसंद नहीं आई थी, पर दर्शकों ने इन्हें सर पर चढ़ाया। दरअसल, फ़िल्में दर्शकों के लिए बनती हैं न कि समीक्षकों के लिए! इसलिए सच्ची सफल फिल्म वही है जो दर्शकों की नजरों में चढ़े!
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Friday, February 9, 2018

राजनीति में उतरने के लिए भाजपा की नई पौध ने कमर कसी!

- हेमंत पाल 


   भोपाल में पिछले साल हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा वंशवाद के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करेगी। यदि पार्टी अध्यक्ष की योग्यता वाली इस घोषणा को आधार माना जाए तो भी कुछ पार्टी नेताओं के बेटे तो वास्तव में योग्य भी हैं और वे राजनीति की बारीकियों से वाकिफ भी। क्योंकि, चुनाव जीतने के लिए जिस जनाधार की जरुरत होती है, वो इन्हें अपने पिता से विरासत में मिला है और राजनीति इनके रक्त में समय है। इसके अलावा इन उत्तराधिकारियों के पास धन-बल की भी कमी नहीं है।  

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  भाजपा नेताओं की नई पीढ़ी मध्यप्रदेश में जल्द ही राजनीति के मैदान में उतरने की तैयारी में है। यदि सबकुछ ठीक रहा तो प्रदेश के कई बड़े नेताओं के बेटों का नवंबर 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव और अप्रैल-मई 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में राजतिलक होना लगभग तय है। वैसे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी अपने बेटे कार्तिकेय चौहान को कोलारस और मुंगावली उपचुनाव के प्रचार में उतारकर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं। इस नजरिए से इस बार के विधनसभा चुनाव कुछ ख़ास हैं। प्रदेश में पिछले तीन विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता संभालने वाली भाजपा के लिए राजनीति की नई पौध को सामने लाना जरुरी भी हो गया है। क्योंकि, इस बार भाजपा 70 पार वाले नेताओं को घर भेजना चाहती है, तो जरुरी है कि उस खाली जगह को नए चेहरों से भरा जाए! कुछ दिग्गज भाजपा नेताओं ने अपने बेटों को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का पूरी तरह मन बना लिया है और इसकी तैयारी भी शुरू कर दी! हालांकि, इन नेताओं ने अपने राजनीतिक संन्यास का एलान नहीं किया है! ये अपने बेटों को समय पर विरासत सौंपकर उनका राजनीतिक भविष्य आसान करना चाहते हैं।
   ऐसे नेताओं केंद्र स्तर पर पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और केंद्रीय पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर भी हैं, जिन्होंने अपने बेटों के राज्याभिषेक के लिए बिसात भी बिछा दी है। एक नेता सत्ता में है, दूसरा संगठन में! एक मालवा की राजनीति में अपना दम रखता है, दूसरे की राजनीति का गढ़ ग्वालियर-चंबल संभाग में है। वहीं मध्यप्रदेश सरकार के दो बड़े मंत्री जयंत मलैया और गोपाल भार्गव ने भी अपनी राजनीतिक विरासत के लिए उत्तराधिकारी तय कर दिए हैं। इस बात का इशारा इससे मिलता है कि इन चारों नेताओं के बेटों का संगठन की राजनीति में पदार्पण हो चुका है। 
   भारतीय जनता युवा मोर्चा की कार्यकारिणी में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, राज्यसभा सदस्य प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव शामिल किए गए। 'राज्य उपभोक्ता संरक्षण परिषद' में भी पांच नेता पुत्रों को जगह दी गई। इस सूची में विधायक और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश, मंत्री गोपाल भार्गव के पुत्र अभिषेक, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के पुत्र देवेंद्र सिंह तोमर, सांसद नागेंद्र सिंह के पुत्र जयंत सिंह और जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ मलैया हैं! 
   प्रदेश की राजनीति में अच्छा-खासा दम ख़म रखने वाले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भाजपा की राजनीति में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खास सिपहसालारों में गिने जाते हैं। समझा जा रहा है कि उनके बेटे आकाश विजयवर्गीय अगले विधानसभा चुनाव में पिता की महू विधानसभा सीट से उम्मीदवार बन सकते हैं। आकाश की महू में राजनीतिक सक्रियता से इस बात के संकेत भी मिले हैं। ये संभावना इसलिए आंकी जा रही है कि राष्ट्रीय राजनीति में कद बढ़ से कैलाश विजयवर्गीय अब राज्य की राजनीति से दूर होना चाहते हैं। 2013 में आकाश के जन्मदिन पर कैलाश विजयवर्गीय सोशल साइट्स पर आकाश को विरासत सौंपे जाने की घोषणा भी की थी। उन्होंने 'फेसबुक' और 'ट्विटर' पर अपनी इस इच्छा का इजहार भी कर दिया था। बाद में औपचारिक रूप से कोई घोषणा नहीं हुई, पर इससे ये स्पष्ट हो गया कि भविष्य में कैलाश विजयवर्गीय की राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी आकाश को ही बनना है। 
   मध्यप्रदेश के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने भी अपने बेटे के राजनीतिक पदार्पण की तैयारी कर ली है। जहां तक अभिषेक की राजनीतिक सक्रियता की बात करें तो बुंदेलखंड इलाके में अभिषेक पिता की राजनीतिक विरासत एक तरह से संभाल चुके हैं। हालांकि, पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी के नियम के चलते वो अपने बेटे को लोकसभा चुनाव चाहकर भी नहीं लड़वा पाए थे। क्योंकि, पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए नियम बना दिया था कि किसी मंत्री के परिवार के सदस्य को टिकट नहीं दिया जाएगा। जबकि, वे बुंदेलखंड की तीन लोकसभा सीट सागर, दमोह और खजुराहो में से कही भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार थे। पिछले विधानसभा चुनाव में तो अपने पिता के प्रतिनिधि के तौर पर वोट मांगने के लिए वो ही विधानसभा क्षेत्र रहली में जनसंपर्क में सक्रिय रहे थे। पिता के प्रतिनिधि के तौर पर अभिषेक भार्गव ने ही वोट मांगे थे। लेकिन, माना जा रहा है कि गोपाल भार्गव अपने बेटे को लोकसभा पहुंचाना चाहते हैं और मध्यप्रदेश की राजनीति में खुद सक्रिय रहना चाहते हैं।  
  केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे देवेन्द्र सिंह तोमर भी पिता की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं। नरेन्द्र तोमर का मध्यप्रदेश की सत्ता और संगठन में खासा दखल है और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी नरेन्द्र सिंह तोमर और संगठन में उनकी राय का विशेष महत्व है। ग्वालियर-चंबल की राजनीति में दबदबा रखने वाले नरेन्द्रसिंह तोमर के बेटे का काफिला किसी मंत्री से कम नहीं होता। उनका स्वागत मंत्री की तरह ही होता है और कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेता भी देवेन्द्र सिंह तोमर के इर्द गिर्द नजर आते हैं। मध्यप्रदेश के वित्तमंत्री जयंत मलैया ने अपनी विरासत बेटे सिद्धार्थ को सौंपे जाने की तैयारी चल रही है। क्योंकि, विधानसभा चुनाव के समय जयंत मलैया करीब 72 साल के हो चुके होंगे। पार्टी में 70 पार को चुनाव का टिकिट न दिए जाने का फार्मूला लागू होने के कारण जयंत मलैया किनारे हो सकते हैं। ऐसे में वे विधानसभा चुनाव अपने बेटे को लड़वा सकते हैं। जयंत मलैया खुद भी चुनावी राजनीति से अलग होना चाहते हैं और 2013 में उन्होंने इसकी घोषणा भी कर दी थी!  2013 के विधानसभा चुनाव में पूरी जिम्मेदारी उनके अमेरिका में पढ़े बेटे सिद्धार्थ के कंधों पर ही थी। 
   भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह चौहान, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के बेटे मंदार महाजन, मंत्री हर्ष सिंह के बेटे विक्रम सिंह, पूर्व मंत्री करणसिंह वर्मा के बेटे विष्णु वर्मा, कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन के बेटे मौसम बिसेन, वनमंत्री गौरीशंकर शेजवार के बेटे मुदित शेजवार, राज्यसभा सदस्य सत्यनारायण जटिया के बेटे राजकुमार जटिया, लक्ष्मीनारायण यादव के बेटे सुधीर यादव, मंत्री माया सिंह के बेटे पितांबर सिंह टिकट पाने वालों की लाइन में हैं। लेकिन, इनमें से कौन पार्टी की विचारधारा पर खरा उतरता है, अभी ये तय होना बाकी है! ये भी जरुरी नहीं कि सभी नेता अपनी विरासत सौंपने की अपनी कोशिशों में कामयाब हों जाएं!
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Sunday, February 4, 2018

शाहरुख़ से पहले भी कई बन चुके बौने!

- हेमंत पाल


   शाहरुख़ खान की आने वाली फिल्म 'जीरो' का एक टीजर सामने आया, जिसमे शाहरुख़ को बौना बताया गया। टीजर बेहद दिलचस्प है और उत्सुकता जगाता है। क्योंकि, शाहरुख़ जैसा रोमांटिक इमेज वाला कोई एक्टर बौने का किरदार करने को राजी हो जाए तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। शाहरुख़ की इमेज एक लवर बॉय की रही है। फिर भी वे समय-समय पर कुछ अलग करने की कोशिश करते रहते हैं। फिलहाल वे बौना बनकर कुछ नया करने के मूड में हैं। लेकिन, इस फिल्म में एक बौने शाहरुख़ के साथ दो हीरोइनों का होना कुछ सोचने पर मजबूर करता है।  
  शाहरुख का ये किरदार टीवी सीरीज ‘गेम्‍स ऑफ थ्रोन्‍स’ के किरदार ट‍ीरियन लेनिस्‍टर से प्रभावित है। ये कैरेक्‍टर बौना होते हुए भी खुश और जिंदादिल इंसान है। ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ में टीरियन लेनिस्टर का किरदार पीटर डिंकलेज ने निभाया हैं और वे इस सीरीज के चर्चित कैरेक्टर्स में से एक है। वास्तविकता में भी उनका कद काफी छोटा है। वे हॉलीवुड की कई फिल्मों में नजर आ चुके हैं। अभी ये खबर उजागर नहीं हुई कि इसमें सिर्फ बौना शाहरुख़ ही नहीं हैं! एक सामान्य कद वाला शाहरुख़ भी है। यानी शाहरुख़ डबल रोल में हैं। 'जीरो' में सामान्य कद वाला शाहरुख का किरदार अनुष्का से रोमांस लड़ाएगा और बौना शाहरुख़  कैटरीना कैफ के अपोजिट दिखाई देगा। इससे पहले भी शाहरुख ने डुप्लीकेट, पहेली, डॉन, रा-वन और फैन्स में डबल रोल निभाए हैं।
    कहा जा रहा है कि शाहरुख के चेहरे को किसी बौने कलाकार के शरीर पर सुपरइंपोज करके नहीं फिल्माया जाएगा। बल्कि इसके लिए 'फोर्स्ड पर्सस्पेक्टिव' तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा, जिसमें 'ऑप्टिकल इल्यूजन' की मदद से किसी ऑबजेक्ट को छोटा, बड़ा, दूर या पास दिखाया जाता है। इसी तकनीक का इस्तेमाल कर शाहरुख को उनके आस-पास की चीजों के मुकाबले छोटा करके दिखाया जाएगा। 
   साउथ की फिल्मों के जाने-माने स्टार कमल हासन ने भी अपने करियर में कई असाधारण रोल किए हैं। फिल्म पुष्पक, सदमा, दसावतारम, इंडियन और चाची 420 में वे अलग-अलग मेकअप में दिखाई दिए थे। 'अपूर्वा सगोधरगल' में कमल हसन ने एक ही शक्ल वाले आदमी के तीन रोल किए थे। जिनमें एक मसखरा था जो कि बौना होता है और सरकस में काम करता है। शेष दोनों किरदारों में उन्होंने पुलिस और मकैनिक का रोल किया था। जबकि, हिंदी फिल्म 'अप्पू राजा' में भी कमल हसन ने बौने का किरदार निभाकर दर्शकों का चौंकाया था। इमरान हाशमी भी एक फिल्म में बौना किरदार निभाने वाले थे, पर निखिल आडवाणी के प्रोडक्शन में बनने वाली इस फिल्म को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। फिल्म में इमरान बौने विलेन बने थे। 
  राजकपूर ने भी 'मेरा नाम जोकर' में एक बौने जोकर का रोल किया था। लेकिन, उस समय की तकनीक के मुताबिक वे परदे पर बौना नहीं दिख सके, लेकिन कहानी में वो रोल एक बौने किरदार का ही था, जिसे राजकपूर ने अपने ओरिजनल कद से ही निभाया! अनुपम खेर ने 'जान-ए-मन' में बौने का किरदार निभाया जो उनका चर्चित रोल रहा! जॉनी लीवर ने 'आशिक' में बौने आदमी का रोल किया था। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर ने भी 'अजूबा' में कुछ देर के लिए बौनों का किरदार अदा किया था। 
  शाहरुख़ खान को लेकर 'जीरो' बना रहे आनंद एल रॉय के बारे में पहले खबर आई थी कि बौने किरदार को लेकर बनने वाली उनकी फिल्म में सलमान खान काम करने वाले हैं। सलमान को फिल्म की कहानी पसंद आने तक की चर्चा थी। लेकिन, बाद में सलमान ने इस फिल्म में काम करने से इंकार कर दिया। अभी ये नहीं कहा जा सकता कि 'जीरो' वही फिल्म है या ये कोई नई कहानी है! क्योंकि, पहले आनंद एल राय के बारे में चर्चा थी कि वे 'बंधुआ' नाम से एक फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसमे शाहरुख खान बौने के रोल में दिखाई देंगे, ये फिल्म की कहानी स्त्री-पुरुष के संबंधों पर थी। 
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Friday, February 2, 2018

कांग्रेस का सॉफ्ट हिंदुत्व बनाम दिग्विजय की नर्मदा परिक्रमा!


- हेमंत पाल 

  इसी साल के अंत में मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में इस बार कई ऐसे प्रयोग होंगे, जिनसे राजनीतिक पार्टियां बचती आई हैं। उन्हीं में से एक है प्रदेश में कांग्रेस के सॉफ्ट-हिंदुत्व का पदार्पण! अभी तक देश और प्रदेश में कांग्रेस की पहचान धर्म निरपेक्ष पार्टी की रही है। इसे राजनीतिक मज़बूरी कहीं या रणनीति लेकिन, कांग्रेस को इससे नुकसान ही हुआ! इसका फ़ायदा भाजपा ने उठाया और अपनी हिंदूवादी पहचान को पुख्ता बनाकर कांग्रेस को हर मोर्चे पर पीछे धकेल दिया। गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता का एक कारण राहुल गाँधी का मंदिरों में माथा टेकना भी माना जा रहा है। कयास लगाए जा रहे हैं कि मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस अपने सॉफ्ट-हिंदुत्व को जारी रखेगी! देखा जाए तो दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा भी यही संकेत देती है। सोशल मीडिया पर भी दिग्विजय सिंह मंदिरों वाले प्रसंग को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है। आशय यही कि अल्पसंख्यकों के पैरोकार को भी कि यदि मध्यप्रदेश की सत्ता में वापसी करना है तो देवी-देवताओं को पूजना पड़ेगा! उधर, कांग्रेस की इस रणनीति को भांपकर संघ ने भी चुनाव की बिसात पर नए सिरे से गोट जमाना शुरू कर दिया है। 
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   गुजरात चुनाव के नतीजों के बाद मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सक्रियता बढ़ती दिखाई दे रही है। उन्हें सबसे बड़ा खतरा कांग्रेस की बदली विचारधारा से भी होने का अंदेशा है। संघ प्रमुख मोहन भागवत भी प्रदेश में लगातार बैठकें करके प्रदेश की राजनीतिक तासीर भांप रहे हैं। संघ का फोकस भले ही दलित एवं आदिवासियों को भाजपा के झंडे तले लाना हो, पर असल चिंता कांग्रेस के सॉफ्ट-हिंदुत्व को लेकर भी है। संघ और भाजपा की इस रणनीति को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सॉफ्ट-हिंदुत्व के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है। गुजरात चुनाव में राहुल गांधी के मंदिरों पर माथा टेकने से भाजपा को काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा! संघ और भाजपा दोनों ही इस बात पर एकमत नजर आ रहे हैं कि राहुल गाँधी से उनका अगला मुकाबला मध्यप्रदेश में इसी अंदाज में होगा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा के चुनाव मध्यप्रदेश के साथ ही होंगे। यदि मध्यप्रदेश में गुजरात जैसा प्रयोग किया गया, जिसकी पूरी संभावना है तो भाजपा को ज्यादा सावधान रहना होगा। दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा से भी इस धारणा को मजबूती मिली है कि अब कांग्रेस के लिए हिंदुत्व अस्पृश्य विषय नहीं रहा!
   शिवराज सरकार की चिंता का एक बड़ा कारण अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग का भाजपा से मोहभंग होना है। हाल ही में आदिवासी इलाकों में हुए नगर निकाय चुनाव में भाजपा को नुकसान हुआ है। यदि कांग्रेस ने इसमें सॉफ्ट-हिंदुत्व का तड़का लगा दिया तो नुकसान बड़ा हो सकता है। क्योंकि, प्रदेश में इन वर्गों के लिए 82 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। इसीलिए प्रदेश में राहुल गांधी के सॉफ्ट-हिन्दुत्व से मुकाबले के लिए संघ और भाजपा दो मोर्चों पर एक साथ काम कर रही है। सामाजिक समरसता के जरिए जहां पार्टी कमजोर वर्ग को लुभाने की कोशिश कर रही हैं, वहीं धार्मिक आयोजनों के जरिए हिंदुत्व का रंग लोगों पर चढ़ाया जा रहा है। प्रदेश में एकात्म यात्रा निकाली गए और उज्जैन में शैव-महोत्सव आयोजित किया गया। अब भाजपा हर तीज-त्यौहार को उत्सव की तरह मनाने की तैयारी कर रही है। इस बार संक्रांति पर 'तिल-गुड़' फंडा इसी कड़ी का हिस्सा है। जबकि, ये परम्परा महाराष्ट्र में मकर संक्रांति पर महिलाओं में प्रचलित है।
  दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा अपने शंकराचार्य गुरू के आशीर्वाद से की है। इस परिक्रमा का सीधा सा मतलब है कि वे उस हिंदुत्व की तरफ झुक रहे हैं, जिससे अभी तक कांग्रेस बचती आई है। उन्होंने इस परिक्रमा को पूरी तरह धार्मिक और आध्यात्मिक कहा भी है। दिग्विजय सिंह कितनी भी सैक्यूलर पॉलिटिक्स करें, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर वे बेहद धार्मिक और आस्थावान हैं। कहने वालों का तो ये भी इशारा है कि कांग्रेस जिस सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ रही है, ये यात्रा उसी संदर्भ में हैं। आमतौर पर उन्हें मुस्लिम हितों के रक्षक और मुस्लिम नेता माने जाने वाले नेता माना जाता है। नर्मदा परिक्रमा के दौरान रास्ते के हर मंदिर में माथा टेकना ये सब कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का ही संकेत है। गुजरात में राहुल गाँधी का मंदिरों में जाना और दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा के अलावा भी कई घटनाएं हैं जो कांग्रेस की आत्मा में हिंदुत्व के प्रवेश का संकेत देती हैं। चित्रकूट उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से उत्साहित कांग्रेसियों ने 'जय श्रीराम' के नारे लगाए थे। इस उपचुनाव में कांग्रेस के  नीलांशु चतुर्वेदी ने भाजपा उम्मीदवार को हराया था। इस जीत से उत्साहित कांग्रेस कार्यकर्ता जीत की घोषणा होते ही प्रदेश कांग्रेस कार्यालय पर इकट्ठा हुआ और अपनी तासीर से हटकर जय जय सियाराम के नारे लगाते हुए नजर आए थे। 
 गुजरात में कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में मिली सफलता का श्रेय राहुल गाँधी की मंदिर परिक्रमा को दिया रहा है। क्योंकि, अभी तक कांग्रेस का रवैया धर्मनिरपेक्षता का झंडा लेकर चलने का रहा है, जिसका भाजपा ने फ़ायदा उठाया! लेकिन, गुजरात में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व से जो नतीजा सामने आया, उससे कांग्रेस का भी उत्साह बढ़ा है। माना जा रहा है अब कांग्रेस बदल रही है या फिर ये उसकी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है? मोदी के उभार के बाद से कांग्रेस हिंदुत्व के मुद्दे पर रक्षात्मक खेल खेलने लगी थी! इससे उसका नुकसान ही ज्यादा हुआ। जबकि, कांग्रेस को हमेशा ही हिंदुओं की पार्टी माना गया है। 1984 के सिख दंगों के बाद उभरे हिंदुत्व का सारा फायदा कांग्रेस ने ही उठाया था। राजीव गांधी और उसके बाद नरसिंहराव ने राम जन्ममूमि को लेकर जो फैसले किए वो भी पार्टी का सॉफ्ट-हिंदुत्व ही था, किंतु पार्टी ने इस पर धर्म निरपेक्षता का मुलम्मा चढ़ाकर अपनी हिंदूवादी छवि को बचाने का ही प्रयास किया था। पर, मोदी फैक्टर और भाजपा के आक्रामक हिंदुत्व ने कांग्रेस को झुकने पर मजबूर कर दिया! इसे शायद समय रहते अब राहुल ने समझा है और नतीजा सामने है।
  राहुल गाँधी ने पहले उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश, फिर गुजरात विधानसभा चुनाव में मंदिर जाने को एक चौंकाने वाली घटना माना गया। सिर्फ यहीं नहीं, संसद में तीन तलाक बिल पर कांग्रेस के बदले रुख से भी यही सब जाहिर हुआ! पार्टी ने 30 साल पुराने शाहबानो मामले में अपनाए नजरिये को छोड़कर इस बिल को बिना किसी विरोध के पास हो जाने दिया। कुछ विशेषज्ञों की राय है कि अपने इन कदमों के जरिए कांग्रेस ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की तरफ झुक रही है। लेकिन, कांग्रेस के 132 साल पुराने इतिहास को समझने वाले जानते हैं कि कांग्रेस के लिए एक साथ धार्मिक और सेक्युलर होना सामान्य बात रही है। आने वाले चुनाव में यदि कांग्रेस दिल खोलकर इस रास्ते पर चल पड़ती है, तो इसे पलटी मारना नहीं, बल्कि अपनी मूल धारा में लौट आना ही माना जाएगा।
  कांग्रेस ने उत्तराखंड में चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत के लिए भी ऋषिकेश को चुना था। उस समय भी कहा गया था कि कांग्रेस एक बार फिर सॉफ्ट हिंदुत्व की लाइन पर लौटने लगी है। कांग्रेस के भीतर लंबे समय से इस बात पर गहन मंथन भी चल रहा है। पिछले कुछ सालों से पार्टी नेता इस बात से भी कतराते रहे हैं कि हिंदुओं के धार्मिक कार्यक्रमों और पूजा-पाठ से संबंधित चित्र में वे खुद न दिखें, जबकि पुरानी कांग्रेस की छवि धर्मनिरपेक्ष वाली रही है। लेकिन, अब कहा जा रहा है कि गुजरात चुनाव के बाद कांग्रेस का नया जन्म हुआ है। क्योंकि, यहाँ कांग्रेस ने सॉफ्ट-हिंदुत्व की रणनीति को अपनाया और गुजरात के एक बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाने में कामयाबी हांसिल की! प्रचार के दौरान राहुल गाँधी ने 85 दिन में 27 मंदिरों में सर झुकाया! उनके मंदिर जाने को लेकर भाजपा ने कई बवाल भी खड़े किए! उनके हिंदू होने पर भी सवाल उठाए गए! विवाद इतना बढ़ा की जनेऊ तक पर बात आ गई! लेकिन, राहुल गांधी ने सॉफ्ट-हिंदुत्व की राह को नहीं छोड़ा और लगातार मंदिर दर्शन करते रहे!
 मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गाँधी के सॉफ्ट-हिंदुत्व को दिग्विजय सिंह का भी साथ मिलेगा जो ताजा-ताजा नर्मदा परिक्रमा के बाद भाजपा पर हमलावर की मुद्रा में होंगे। इस परिक्रमा से उनकी मुस्लिम समर्थक वाली पहचान भी काफी हद तक धुल गई है! सोशल मीडिया पर रोजाना दिग्विजय सिंह के जोड़े समेत नर्मदा आरती के चित्रों से लोगों के बीच उनकी नई छवि बनी है, जो निश्चित रूप से हिंदूवादी की न सही पर हिन्दू समर्थक की तो है। ऐसे में भाजपा के लिए नया संकट खड़ा हो जाएगा! क्योंकि, भाजपा के पास कांग्रेस के खिलाफ बोलने के लिए कुछ नहीं बचा! न तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार है न प्रदेश में! चुनाव में कांग्रेस के आरोपों के तीर ज्यादा पैने होंगे! इस तरह के माहौल में कांग्रेस का सॉफ्ट-हिंदुत्व कार्ड भाजपा की घेराबंदी कर ले तो आश्चर्य की बात नहीं!     
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