- हेमंत पाल
राजनीतिक जागरूकता के लिए पूरे प्रदेश में पहचाना जाने वाला शहर इंदौर आज खामोश है! 9 महीने बाद प्रदेश के साथ यहाँ भी विधानसभा चुनाव होना है, पर यहाँ ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा! गुटबाजी में फँसी सत्ताधारी भाजपा और विपक्ष का बेसुरा राग आलाप रही कांग्रेस दोनों के खेमों में सन्नाटा है। शहर में 6 विधानसभा क्षेत्र हैं, पर कहीं कोई हलचल नहीं! 6 में से 5 क्षेत्रों में भाजपा विधायक हैं और सिर्फ राऊ विधानसभा कांग्रेस के पास है। यहाँ के कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी खुद को लाइम-लाइट में रखने के रास्ते निकाल लेते हैं, पर भाजपा के पाँचों विधायक अपने-अपने इलाकों से बाहर कभी नजर ही नहीं आते! लगता है जैसे हर विधानसभा क्षेत्र की सीमाबंदी कर दी गई है। ये राजनीतिक सन्नाटा क्यों है और इससे क्या हांसिल होगा, ये समझ से परे है! भाजपा के विधायक शहर में किसी को मंत्री नहीं बनाए जाने के तीन सदमों से उबर नहीं पाए, तो कांग्रेस की गुटीय राजनीति के अपने अलग किस्से हैं।
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आज यदि किसी से सवाल किया जाए कि इंदौर का नेता कौन है, तो शायद सोचना पड़ेगा कि किसका नाम लिया जाए? क्योंकि, शहर में भाजपा के पांच विधायक होते हुए भी किसी का पूरे शहर पर प्रभाव नहीं लगता! आठ बार की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी वोटों की गिनती से जीत का रिकॉर्ड बनाया हो, पर उन्होंने कभी खुद को इंदौर के जनप्रतिनिधि के रूप में नहीं उभारा! इंदौर के आम लोगों से सांसद का जुड़ाव या जीवंत संपर्क आज तक नहीं हो सका! भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस के नेताओं की भी है। राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, वो पूरी तरह प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती! कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष (वो भी कार्यकारी) हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है। ऐसे राजनीतिक सन्नाटे वाले माहौल में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वाभाविक है और वही हो रहा है।
इंदौर में कई सालों से मातमी राजनीतिक सन्नाटा है। कहीं कोई सुगबुगाहट या हलचल नजर नहीं आती। दोनों ही बड़ी पार्टियों में यही हालत है। प्रदेश में 14 साल से ज्यादा समय से भाजपा की सरकार है, पर कोई नेता अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर नहीं लगता। किसी तूफान का भी अंदेशा भी नहीं है कि उससे पहले या बाद के सन्नाटे का अनुमान लगाया जाए! इससे पहले शहर में जो हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण काफी हद तक कारण कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से जाने के बाद शहर की राजनीतिक जीवंतता ख़त्म ही हो गई! पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद वे अपनी व्यस्तता के कारण स्थानीय राजनीति से कट से गए हैं। इसका असर इंदौर में साफ़ दिखाई देने लगा! कोई एक नेता किसी शहर को कितना चैतन्य रख सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ है। उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद शहर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ के महापौर बनने के बाद से उनकी राजनीति नगर निगम तक सीमित हो गई! भाजपा के ये पाँचों विधायक तभी नजर आते हैं, जब भाजपा का कोई बड़ा नेता इंदौर में होता है।
अभी तक कहा जाता था कि कैलाश विजयवर्गीय के प्रभाव की वजह से अपनी ताकत नहीं दिखा पाते थे! उन्हें लगता कि विजयवर्गीय के कारण उन्हें पूरा मौका नहीं मिल पाता! अब जबकि, वे इंदौर में नहीं हैं और सबके लिए मैदान खुला है! फिर भी कोई और नेता आगे बढ़कर नहीं आ पाया! सभी विधायक अपने-अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए! क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ शहर की महापौर हैं, उनके पास ये जगह लेने का मौका और संसाधन दोनों हैं! पर, वे भी निगम के कामकाज में बंधकर रह गईं! उनके पास कार्यकर्ताओं की वो टीम भी नहीं है, जो किसी नेता को बड़ा बनाती है। वे अपने परिवारवाद के मोह से ही मुक्त नहीं हो पाई। जहाँ तक निगम की सक्रियता का मामला है तो निगम कमिश्नर ने सारे सूत्र अपने हाथ में ही रखे हैं!
जहाँ तक शहर में कांग्रेस की राजनीति की बात है तो यहाँ बरसों तक महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! महेश जोशी ने अपने आपको राजनीति से अलग ही कर लिया था, पर अब वे फिर सक्रिय हैं। लेकिन, उनकी दूसरी पारी को भी लगता है नजर लग गई! करीब सालभर पहले काफी हंगामे के साथ वे कुशलगढ़ से लौटकर राजनीति में सक्रिय हुए थे और इंदौर के सभी नेताओं को एक करने की कोशिश भी की थी, पर अब सब ठंडा हो गया! महेश जोशी का रुखा व्यवहार आज के कार्यकर्ताओं को रास भी नहीं आ रहा! कृपाशंकर शुक्ला जरूर हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। आज भी उनकी आवाज में वो खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! इसके बाद कोई नेता इस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा! इसका कारण था कि कांग्रेस गुटों में बाँट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने को अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे!
सज्जन वर्मा भी इंदौर से ही हैं, पर उनकी पूरी राजनीति सोनकच्छ और शाजापुर जिले तक सीमित हो गई! वे कमलनाथ खेमे से जुड़े हैं इसलिए उनकी राजनीति का केंद्र बिंदु भी वही हैं। तुलसी सिलावट सांवेर विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं इसलिए आज भी उनकी सक्रियता का दायरा वहीं तक है। लेकिन, उनमे सबसे ज्यादा ऊर्जा तभी दिखाई देती है, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया इंदौर आते हैं। तात्पर्य ये कि इंदौर के हर नेता का रिमोट किसी बड़े नेता से संचालित होता है। बाकी जो नेता हैं, वे दिग्विजय सिंह से जुड़े हैं और अभी ये सारे नेता नर्मदा परिक्रमा पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं। क्योंकि, सभी को लग रहा है कि ये धार्मिक यात्रा पूरी होने के बाद दिग्विजय सिंह राजनीतिक धमाके करने वाले हैं। जिस तरह प्रदेश में कांग्रेस तीन कबीलों में बंटी है, वही धारा इंदौर में भी बहती है। यहाँ भाजपा के ताकतवर होने का बड़ा कारण कांग्रेस का कमजोर होना है। बीते 3 चुनाव में कांग्रेस के जो नेता विधानसभा चुनाव जीते, ये उनकी अपनी उपलब्धि है। इसमें पार्टी का कोई योगदान नहीं है। भाजपा उम्मीदवार के सामने आश्विन जोशी दो बार विधानसभा चुनाव जीते और और पिछले चुनाव में जीतू पटवारी ने राऊ जीता! लेकिन, इसमें कहीं शहर कांग्रेस का योगदान होगा, ऐसा नजर नहीं आया! अपने नेता के इंदौर आने पर एयरपोर्ट पर भीड़ लगाने वाले पदाधिकारी कभी कांग्रेस के दफ्तर 'गाँधी भवन' में दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि बरसों से कांग्रेस प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर पाई!
कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दो दशक से ज्यादा समय से इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। अब जरूर लोग ये मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा हमेशा अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है!
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