- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की निकटता और 'संघ' के फीडबैक के मद्देनजर सरकार ने काम शुरू कर दिया। प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जमीनी स्थिति परखने का काम भी तेज हो गया है। पिछले साल (2017) के मध्य में भी संघ ने कुछ आंतरिक सर्वे करवाकर सरकार के कामकाज और जनता के रुख को परखा था। उस वक़्त भी नतीजे मुफीद नहीं थे और न अब हैं। 'संघ' ने हाल ही के अपने एक आंतरिक सर्वे में पाया था कि कर्मचारी वर्ग और किसान सरकार से बहुत ज्यादा नाराज है। ये नाराजी चुनाव में भाजपा को नुकसान बड़ा पहुंचा सकती है। यही कारण कि सरकार ने कर्मचारियों की मांगों और किसानों की समस्याओं को देखते हुए खजाना खोल दिया। लेकिन, सरकार ये क्यों नहीं समझ रही कि कुछ वर्गों को तात्कालिक सहूलियतें देने से उसकी जीत की संभावनाएं आसान नहीं हो जाती! प्रदेश में और भी मतदाता हैं, जिनकी नाराजी किसी घोषणा की मोहताज नहीं है। बढ़ती महंगाई, अफसरों की अकड़ और निरकुंश प्रशासन सरकार चुनाव में बहुत भारी पड़ेगा।
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मध्यप्रदेश में ये चुनावों का साल है। चुनाव हैं इसलिए चुनौतियाँ भी बड़ी हैं और भाजपा के लिए कुछ ज्यादा ही! तीन बार चुनाव जीतकर सरकार बना चुकी भाजपा के सामने फिर पुराना इतिहास दोहराने की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन, जो दिख रहा और समझ में आ रहा है वो इशारे अच्छा संकेत नहीं दे रहे! चुनाव के इस साल में प्रदेश सरकार के खिलाफ कई तरह की आवाजें उठ रही है। इनमें किसान, कर्मचारी, व्यापारी और युवा प्रमुख हैं। इसके अलावा बढ़ती महंगाई, बढ़ते अपराध, असुरक्षा की भावनाओं जैसे ढेर सारे कारणों की वजह से नाराज होने वालों की कमी नहीं है। लेकिन, सरकार को समझ नहीं आ रहा कि सभी को संतुष्ट कैसे किया जाए! डेढ़ दशक कार्यकाल के बाद अब सरकार के पास ऐसा कोई कारण भी नहीं बचा कि वो बहानेबाजी करके खुद को बचा ले! नाराजी का कारण सिर्फ प्रदेश सरकार ही नहीं है। केंद्र सरकार के कई नीतिगत फैसलों ने भी जनता का मन कसैला कर रखा है। ऐसे हालात में भाजपा के पास सिर्फ 'संघ' ही है जो सरकार को सही राह पर ला सकता है। 'संघ' के कार्यकर्ताओं की फौज ही पहले भी भाजपा की तारणहार बनती रही है। इस बार भी 'संघ' ने प्रदेश सरकार के प्रति जनता की नाराजी दूर करने की अपनी कोशिशें शुरू कर दी है! लेकिन, संघ के सामने जो जमीनी निष्कर्ष आया, वो अच्छा नहीं है!
सरकार के खिलाफ बढ़ता असंतोष भाजपा की परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। भाजपा के कट्टर समर्थकों का भरोसा भी डोलता दिखाई दे रहा है। इसके पीछे छुपे कारणों को खोजने के लिए 'संघ' ने अपने चुनिंदा कार्यकर्ताओं को ग्रामीण इलाकों में भेजा था। मकसद ये था कि ये लोगों से सीधा संवाद करके उस हकीकत का पता लगाएं, जो भाजपा की जीत में पलीता लगा सकती हैं। 'संघ' की इसी कोशिश का नतीजा है कि किसानों और कर्मचारियों की नाराजगी का पता चला और सरकार ने दोनों पर खैरात लुटाना शुरू कर दिया। सरकार ने अध्यापकों की भी कई मांगों को पूरा किया और उसके पंचायत सचिवों पर भी अपना प्यार लुटा दिया। क्योंकि, अध्यापक और पंचायत सचिव समाज का ऐसा वर्ग है, जो ग्रामीणों की नब्ज जानते हैं। लोगों के बीच सरकार को लेकर चलने वाली बातचीत का निष्कर्ष भी सबसे ज्यादा इन्हें ही पता होता है।
'संघ' के इस सर्वे की गंभीरता का पता इस बात से लगता है कि उसने इस काम में संघ विचारधारा से प्रभावित कर्मचारियों को ही लगाया। इन लोगों ने अपने दफ्तरों में आने-जाने वालों से स्थानीय विधायक की सक्रियता, सरकार के कामकाज और होने वाले चुनाव के विषय छेड़कर बातचीत की और उसे एक निर्धारित फॉर्मेट में दर्ज किया। दफ्तरों के अलावा चाय की दुकानों और यात्रा के दौरान भी चर्चा की गई! कर्मचारियों के अलावा किसानों के बीच भी ऐसे लोगों को लगाया गया, जो उनके संपर्क में रहते हैं और उनकी नब्ज को सही तरीके से पहचानते हैं। इस पूरी कवायद का जो निष्कर्ष आया वो सरकार और पार्टी के लिए खतरे की घंटी है। सर्वे निचोड़ ये था कि लोग सरकार से नाराज हैं। गुजरात विधानसभा और राजस्थान के उपचुनाव में भाजपा को सिर्फ शहरी इलाकों में ही बढ़त मिली है। ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मुँह की खाना पड़ी। यही कारण है कि 'संघ' ने कमान अपने हाथ में लेकर सारा ध्यान गांवों पर लगा दिया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का हाल ही में बार-बार प्रदेश आना भी इसी से जोड़कर देखा जा सकता है। वे बहुत थोड़े अंतराल में उज्जैन, विदिशा और बैतूल आए हैं। 'संघ' की चिंता इस बात को लेकर है कि यदि कांग्रेस के बड़े नेता एकजुट होकर चुनाव लड़ते हैं, तो भाजपा के लिए जीत आसान नहीं है।
इस गोपनीय सर्वे का उभरकर आने वाला एक पक्ष ये भी है कि प्रदेश में हालात 2013 के विपरीत हैं। सरकार के प्रति लोगों की नाराजी के कई कारण हैं। असल बात ये है कि 'संघ' भी समझ नहीं पा रहा कि लोगों के इस गुस्से को कैसे ठंडा किया जाए! समाज के हर वर्ग को संतुष्ट कर पाना भी प्रदेश सरकार के लिए संभव नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी दो ऐसे मामले हैं, जो केंद्र के फैसले हैं, लेकिन इस मामले में लोगों की भाजपा से नाराजी का नजला तो प्रदेश सरकार पर ही फूटेगा। इस आंतरिक सर्वे के बारे में ये भी ख़बरें हैं कि अगर आज चुनाव हों, तो प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बनने के आसार कम ही हैं। पिछला चुनाव जीते करीब 70 विधायकों की हालात ऐसी है कि वे फिर चुनाव नहीं जीत सकते! इस सर्वे के मुताबिक तो भाजपा को 100 से भी कम 96-97 सीटें ही मिलती दिखाई दे रही है। जिन विधायकों के चुनाव हारने के आसार दिखाई दे रहे हैं, उनमें प्रदेश सरकार के कई मंत्री भी शामिल है। जबकि, पिछले साल हुई पार्टी की बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने 200 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया था। जबकि, पार्टी को यहाँ 100 सीटें जीतने के पड़ रहे हैं। इन सारी स्थितियों से पार्टी अनजान है न सरकार! यही कारण है कि पार्टी और सरकार के रणनीतिकार चुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं।
'संघ' के इस सर्वे की प्रामाणिकता पर भरोसा इसलिए किया जा रहा है कि ऐसा ही आंतरिक सर्वे चुनाव से पहले गुजरात में भी किया गया था। 'संघ' ने पाया था कि गुजरात में भाजपा को करीब 60 सीटें मिलेंगी। इसके बाद 'संघ' ने मोर्चा संभाला और बमुश्किल वहाँ सरकार बनाने लायक समर्थन मिल पाया! यहां हुए सर्वे में भी 'संघ' का अनुमान है कि मध्यप्रदेश में भाजपा की सीटें सौ के अंदर आएगी। इसका कारण सरकार नाराजी के अलावा प्रदेश भाजपा में बढ़ती गुटबाजी भी माना जा रहा है। अब ये भी खुलकर कहा जाने लगा है कि भाजपा के पूर्व प्रदेश संगठन महामंत्री अरविंद मेनन के कार्यकाल में जो असंतोष सतह के नीचे था, वो अब बाहर निकल आया है।
देखा जाए तो भाजपा की चिंता उसके मातृ संगठन ने ही बढ़ा दी। जबकि, ये कवायद सही भी है। 'संघ' ने पार्टी को उसकी खामियां बताते हुए उन्हें सुधारने को कहा है। ये भी कहा कि चौथी बार सरकार बनाने के लिए पार्टी को जनता का मनःस्थिति को टटोलना होगा, ताकि एंटी-इनकमबेंसी फेक्टर का पता लगाया जा सके। 'संघ' को प्रदेश में अपने प्रचारकों से मिला फीडबैक भी संतोषजनक नहीं है। प्रचारकों के इस फीडबैक में कहा गया कि जिलों में पार्टी नेताओं के बीच टकराव बढ़ रहा है। 'संघ' का कहना है कि जिलों में ब्यूरोक्रेसी पर काबू न होने से लोगों में नाराजी बढ़ रही है। 'संघ' ने कार्यकर्ताओं और मंत्रियों के बीच बढ़ती दूरी और नेताओं के अहम् को भी नियंत्रित करने की सलाह दी है। अब सारा दारोमदार इस बात पर है कि पार्टी और सरकार के सिपहसालार इसे किस नजरिए से लेते हैं! समय रहते यदि स्थिति संभाल ली गई, तो सरकार की गाड़ी पटरी पर आ जाएगी। अन्यथा अब फैसला तो पब्लिक को ही करना है और 'पब्लिक है ये सब जानती है!'
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