Friday, April 6, 2018

परदे पर सुलगती रही, छात्र समस्या!


- हेमंत पाल 


   इन दिनों सीबीएसई के परचों के लीक होने और छात्रों को दोबारा वे परचे देने के निर्देश के बाद छात्र आक्रोशित हैं। सीबीएसई के इस परचा लीक काण्ड ने उन्हें सड़क पर लाकर खडा कर दिया है। इससे पहले भी छात्र कभी मंडल-कमंडल के चक्कर में सड़कों पर उतरे तो कभी भाषाई विवाद ने उन्हें सड़कों पर आने को मजबूर किया था। वैसे, तो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र भी सडक पर आए, लेकिन वो वजह छात्रों की अपनी समस्या नहीं थी। उसका छात्र समस्याओं से कोई लेना-देना भी नहीं था। लेकिन, छात्रों की समस्याओं को बाॅलीवुड ने भी बखूब समझा और परखा है। यही कारण है कि छात्र        जीवन और उन पर आधारित फिल्में बनाने का सिलसिला नया नहीं है। दशकों से चली आ रही यह परम्परा आज भी जारी है। यह बात अलग है कि आज का फिल्मी छात्र पहले से ज्यादा वास्तविक और समाज से जुडा नजर आता है। 
   छात्र समस्या पर बनी फिल्मों को याद किया जाए तो गुजरे जमाने की जागृति, इम्तिहान, मेरे अपने, बूंद जो बन गई मोती उल्लेखनीय है। यह बात अलग है कि उस दौर में 'काॅलेज गर्ल' जैेसी फ़िल्में भी आई थी, जिनका छात्र जीवन से कोई सरोकार नहीं था। 60 और 70 के दशक में बनी छात्र जीवन आधारित फिल्मों में राज कपूर से लेकर शम्मी कपूर और देव आनंद से लेकर जीतेन्द्र तक ने काॅलेज के छात्रों की भूमिका की थी। छात्र जीवन पर बनी फिल्मों में वास्तविकता और काल्पनिकता के अंतर का सबसे बडा कारण यह है कि गुजरे जमाने के फिल्मकारो से लेकर कलाकारों में अधिकांश ऐसे भी थे, जिन्होंने कभी काॅलेज का मुँह तक नहीं देखा था! जबकि, आज के फिल्मकार और कलाकार दोनो ही उच्च शिक्षित है। यही कारण है कि आज की फिल्में ज्यादा यर्थाथवादी नजर आने लगी!   
   आज की यर्थाथवादी फिल्मों मे 'उडान' का नाम सबसे पहले आता है। विक्रमादित्य मोटवानी की इस मास्टर पीस फिल्म में स्कूल से निकाले गए एक 16 साल के लडके की कहानी को शिद्दत के साथ परदे पर उतारा गया था। हालांकि, इस फिल्म में बड़े कलाकार नहीं थे। लेकिन, रोनित राय ने एक शराबी और सख्त पिता की भूमिका से इसे दर्शनीय बना दिया था। फिल्मकार ने एक छात्र के पतन और उत्थान की कहानी को शानदार तरीके से पेश किया था। इसी क्रम में आमिर खान की 'तारे जमीं पर' एक कदम आगे है। आठ साल के एक मंदबुद्धि छात्र की कहानी को इस फिल्म ने काव्यात्मक ढंग से पेश किया था। बॉलीवुड के बड़े सितारे रितिक रोशन की फिल्म 'लक्ष्य' एक उद्देश्यहीन बेरोजगार छात्र की कहानी थी, जो सेना में भर्ती होकर एक 'लक्ष्य' निर्धारित कर उसे हांसिल करने के लिए सबकुछ दांव पर लगा देता है। 
  छात्र जीवन की फिल्मों में '3 इडियट्स' को मील का पत्थर कहा जा सकता है। इंजीनियरिग के छात्रों पर आधारित इस फिल्म का संदेश था कि छात्रों पर अपनी इच्छा लादने के बजाए उनकी रूचि के अनुसार पढ़ने दिया जाना चाहिए। फील्म 'पाठशाला' में इंग्लिश स्कूल के एक शिक्षक की कहानी कही गई है, जो म्यूजिक पढ़ाता है, लेकिन छात्रों और प्रबंध-तंत्र के खिलाफ संघर्ष का शिकार हो जाता है। इसी तरह फिल्म 'फालतू' चार कम पढे लिखे छात्रों की कहानी है जो खुद अपना काॅलेज खोलने का निर्णय लेकर उसे पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते है। छात्रों के आज के जीवन को रेखांकित करने वाली कारण जौहर की 'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' को छात्रों ने जहां खूब सराहा। वहीं 'द न्यू क्लासमेट' में मां और बेटी के संबंधों को पर्दे पर उतारकर यह बताया गया है कि आज की शिक्षा प्रणाली में मध्यमवर्गीय छात्रों को अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए कितने पापड बेलने पड़ते हैं। 
  श्रीदेवी की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' यूँ तो अधेड महिला की इंग्लिश सीखने की कहानी थी। लेकिन, उसके इंग्लिश सीखने की चाहत ने इसे स्टूडेंट विषयों पर आधारित सफल फिल्म बना दिया।  इस परम्परा में 'रंग दे बसंती' को भूला नहीं जा सकता है, जो भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करने में सक्षम रही! 
किसी परीक्षा का परचा लीक होना फिल्मकारों के लिए एकदम अनूठा और नया विषय है, जिसमें सारे मसाले डालकर एक उद्येश्यपूर्ण फिल्म बनाई जा सकती है। उम्मीद की जा सकती है कि कोई पारखी फिल्मकार इस गंभीर विषय पर हाथ आजमाने आज नहीं तो कल आगे आएगा ही! 
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