- हेमंत पाल
इस यक्ष प्रश्न का अभी तक सही-सही जवाब नहीं मिला कि सिनेमा देखकर समाज अपने आपको बदलता है या सिनेमा की कहानियां समाज के नजरिए से प्रभावित होती हैं। ये मुद्दा इसलिए कि भारतीय समाज में सिनेमा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ये सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक तरह से ये जीवन का हिस्सा है! इसलिए जब भी सामाजिक बदलाव का दौर आता है तो सेलुलॉइड का परदा भी उसी धारा की तरह अपना रंग बदलने लगता है। जब समाज में वर्जनाएं खंडित होना शुरू होती है, तो सिनेमा भी उनका अनुसरण करने में देर नहीं करता। ये हर दौर में होते देखा गया है। आजादी से पहले से लगाकर आज तक सिनेमा का बदलाव समाज के साथ हो होता देखा गया।
आजादी से पहले जब देश में स्व-अस्मिता की भावना जोर पकड़ने लगी और राष्ट्रभक्ति की चेतना अंकुरित हुई, तो सिनेमा के परदे पर भी वही रंग भरने लगे। फिल्मकारों ने अपने-अपने तरीके और मर्यादा में आजादी की भावना को विषय वस्तु बनाया। उस दौर में दबे-छुपे आजादी के भाव को उभारा गया। जब देश आजाद हो गया, तो इस संघर्ष से जुड़े सेनानियों को हीरो बनाकर परदे पर उकेरा गया। फिर आया राष्ट्र निर्माण का दौर जिसमें सामाजिक बुराइयों और बदलाव की कहानियों को जगह मिलने लगी। इसी समय में समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की भी बात उठने लगी थी। इसी समयकाल में महबूब खान ने 'औरत' और उसके बाद 'मदर इंडिया' बनाकर फिल्मों के जरिए कृषि और समाज की महाजनी अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े अंतर्विरोधों को दर्शकों के सामने रखा। इस सच से भी समाज का सरोकार करवाया कि कृषि समाज में औरत की हैसियत क्या है? हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में भारतीय नारियों की पहचान वाली फिल्मों में वे सीता, सावित्री, तारावती, पार्वती और दुर्गा के रूप में थी। इन प्रतिरूपों पर फ़िल्में भी बनी! पर, महबूब खान ने भारतीय स्त्री के यथार्थ को परदे पर दिखाकर समाज को घुटनों पर झुकने पर मजबूर कर दिया।
सामाजिक बदलाव के दूसरे दौर में किसानों की समस्याओं से जुड़ी कई फिल्में बनीं। बिमल रॉय ने 'दो बीघा जमीन' बनाकर देश के संक्रमणकालीन द्वंद्वों को उजागर किया। 1953 में बनी इस फिल्म ने आजादी के बाद बदलते राजनीतिक-आर्थिक दौर को सामने रखा है और स्पष्ट किया कि भविष्य में औद्योगिकीकरण कृषि भारत से कैसी कीमत वसूलेगा! किसानों का अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ेगा, गाँवों खाली हो जाएंगे, भूमिहीन किसानों को विस्थापन की पीड़ा भोगना पड़ेगी और भू-मालिक मजदूर बनने को मजबूर हो जाएगा। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि जब फिल्मकार किसानों को लेकर फ़िल्में बना रहे थे, उसी 50वें दशक में बस्तर, भिलाई, दुर्ग, छोटा नागपुर, राँची जैसी औद्योगिक सभ्यता की घुसपैठ शुरु हो गई थी। मशीम और मानव श्रम के बीच की प्रतिस्पर्धा इसी समय में तेज हुई थी। इसका फिल्मांकन बी.आर.चोपड़ा ने 'नया दौर' में किया था। राजकपूर अभिनीत 'जागते रहो' में भी गाँवों से पलायन और शहरों में गँवाई हिंदुस्तानी की हताशा दिखाई दी थी।
समाज के अंतर्विरोधों को केए अब्बास ने भी 'शहर और सपना' में सामने रखा था। शहर की संस्कृति कितनी संवेदनाशून्य होती है और कैसे नारकीय जीवन को जन्म देती है। इसी थीम को बाद में शहरीकरण की विद्रूपताओं के साथ श्री 42, बूट पॉलिस, जागते रहो, फिर सुबह होगी जैसी फिल्मों में भी दिखाया गया। बरसों बाद में इसी का परिष्कृत रूप त्रिशूल, अग्निपथ, सत्या, कंपनी, सरकार, हथियार जैसी फिल्मों में देखने को मिला। लेकिन, ये नेहरूयुगीन समाजवाद का नारा ज्यादा दिन जोर नहीं पकड़ सका और देश भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था में पहुँच गया। इसी के साथ एक अन्य सिनेमा ने जन्म लिया जो 'कृष, रा-वन, कोई मिल गया, अवतार, 2050, माई नेम इज खान, न्यूयार्क, गजनी जैसी फंतासी फिल्मों में प्रतिबिंबित हुआ।
ऐसी फिल्मों से संकेत मिलते हैं कि देश में तेजी से बदलाव आ रहा है और समाज में पूरी तरह उपभोक्तावाद आ गया। भूमंडलीकृत दौर में बनी फिल्मों में उपभोक्तावाद का चरम विस्फोट, मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का बाजारीकरण, नायक और खलनायक की भूमिका में बदलाव, बेढप शक्तियों का ग्लैमरीकरण, बढ़ती हिंसा की घटनाओं ने आक्रामकता के साथ जड़ पकड़ी हैं। आज यदि इन सारे मसालों को मिलाकर देश के राजनीतिक व आर्थिक परिदृश्य पर कोई फिल्म बनाई जाए तो वह ठीक ऐसी ही होगी। बीते दो दशकों में हुए महाघोटालों ने देश और समाज को झकझोरकर रख दिया है। अपराधिक लोग राजनीति में जगह बनाने लगे। कथित समाजसेवी अरबपतियों की गिनती में आ गए, बाबाओं का चोला पहने लोग व्यापारी बन गए। इस यथार्थ का चित्रण राजनीति, सरकार, गंगाजल, अपहरण, सत्याग्रह, नायक और पीके जैसी फिल्मों में पूरी शिद्धत के साथ दिखाई देता है।
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