Tuesday, August 28, 2018

कांग्रेस के पास इंदौर में चुनाव जीतने वाले चेहरे नहीं!


- हेमंत पाल 

    राजनीति की दुनिया में चुनाव एक उत्सव है! जिस तरह कोई भी त्यौहार आने पर समाज कहर वर्ग अपनी-अपनी सामर्थ्य से उसे मनाता है, वही स्थिति चुनावी उत्सव की होती है! हर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी इस उत्सव में हिस्सा लेकर अपनी ताकत दिखाती है, पर इसमें विजय जुलूस उसी का निकलता है, जिसे जनता चाहती है! चार महीने बाद मध्यप्रदेश में भी वही उत्सव होना है, जिस के प्रतिफल में किसी एक पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिलेगा।  भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने की चाह है, इसलिए उसकी कोशिशें कुछ ज्यादा हैं, पर 15 साल से सत्ता से बेदखल कांग्रेस में वो शिद्दत नजर नहीं आ रही! पार्टी की सबसे बड़ी चिंता ये है कि उसके पास जीतने लायक उम्मीदवार ही नहीं हैं। इंदौर जैसे बड़े शहर को ही देखा जाए तो यहाँ की स्थानीय 6 सीटों पर ही उम्मीदवारों का टोटा है! राऊ की सीट कांग्रेस के पास है, इसलिए यहाँ जीतू पटवारी को फिर टिकट मिलने में कोई अड़चन नहीं है, पर जिन 5 सीटों पर भाजपा के विधायक हैं, वहां कांग्रेस के पास चमकते हुए चेहरों की कमी है।     
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    कांग्रेस इस बात को स्वीकार करे या नहीं, पर ये नितांत सच है कि मध्यप्रदेश की सत्ता में लौटने का सपना देख रही कांग्रेस के पास ऐसे उम्मीदवारों की बेहद कमी है जो चुनाव जीत सकें। प्रदेश में करीब 50 सीटें ऐसी है, जहाँ के लिए उम्मीदवारों के ही लाले पड़े हैं। सबसे बुरी स्थिति तो पश्चिम मध्यप्रदेश की है। इंदौर और उज्जैन संभाग की 25 सीटें ऐसी हैं, जहाँ कांग्रेस के पास चुनाव जीतने वाले चेहरे नहीं है। इसका कारण यह कि लगातार तीन चुनाव हारने से पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास डोल गया! जब कोई पार्टी लगातार चुनाव हारती है, तो उसके पास नए चेहरों की कमी हो जाती है, यही स्थिति कांग्रेस की है। क्योंकि, नए लोग पार्टी से जुड़ते नहीं और पुराने घर बैठ जाते हैं। 
  इंदौर में ही कांग्रेस की स्थिति माकूल नहीं लग रही। यहाँ विधानसभा की 6 सीटें हैं। इनमें से दो विधानसभा सीटें क्षेत्र क्रमांक-2 और 4 ऐसे हैं, जहाँ से पार्टी लम्बे समय से जीत दर्ज नहीं करा सकी। बात शुरू करते हैं विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-1 से जहाँ पिछला चुनाव भाजपा के सुदर्शन गुप्ता ने जीता था। ये इंदौर का अकेला ऐसा विधानसभा क्षेत्र है, जहाँ कांग्रेस के पास उम्मीदवारों की कमी नहीं! लेकिन, इतने ज्यादा उत्साही उम्मीदवार होने से यहाँ बगावत का खतरा भी ज्यादा है। बगावत की बयार यहाँ 2013 के विधानसभा चुनाव में भी चल चुकी है, जब पार्टी से नाता तोड़कर कमलेश खंडेलवाल ने चुनाव लड़ लिया था। लेकिन, वे जीत के लायक वोट नहीं जुटा पाए और इसका फ़ायदा भाजपा को मिला। उन्हें पार्टी ने निकाल दिया था, लेकिन अब उनकी पार्टी में वापसी हो चुकी है और वे उम्मीद लगाए हैं कि टिकट उन्हीं को मिलेगा। दूसरे सम्भावित उम्मीदवार हैं संजय शुक्ला, जो भाजपा की ही तरह धार्मिक आयोजन के जरिए क्षेत्र में अपनी पैठ बना रहे हैं। इसके अलावा दीपू यादव को भी भरोसा है कि पार्टी उनके नाम पर विचार कर सकती है। जबकि, सच्चाई ये है कि यहां चुनावी संघर्ष आसान नहीं है। दीपू यादव और संजय शुक्ला दोनों यहाँ से चुनाव हार चुके हैं। गोलू अग्निहोत्री भी उम्मीदवारी की दौड़ में हैं। 
  विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2 से तो कांग्रेस 1993 के बाद से कभी जीती ही नहीं! पिछला विधानसभा चुनाव कांग्रेस यहाँ से रमेश मेंदोला से 90 हजार से ज्यादा वोटों से हारी थी। मिल क्षेत्र की इस सीट से अभी तक कृपाशंकर शुक्ला, डॉ. रेखा गांधी, अजय राठौर, और सुरेश सेठ बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय और बाद में रमेश मैंदोला से हार चुके हैं। कभी कांग्रेस का गढ़ रहे, इस विधानसभा क्षेत्र में आज कांग्रेस का कोई ताकतवर दमदार उम्मीदवार नहीं है, जो कांग्रेस के लिए लड़ाई लड़ सके। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मोहन सेंगर या चिंटू चौकसे को आगे करके लड़ेगी, जो अंततः कमजोर उम्मीदवार ही साबित होंगे। जबकि, भाजपा के टिकट पर यहाँ से फिर रमेश मेंदोला का मैदान में उतरना लगभग तय है। यदि कोई बदलाव हुआ तो आकाश विजयवर्गीय को उनकी जगह उतारा जा सकता है। दोनों ही स्थितियों में नुकसान कांग्रेस को ही होगा।
    विधानसभा का क्षेत्र क्रमांक-3 भी ऐसा है जहाँ से कांग्रेस पूरी उम्मीद से है। यहाँ से अभी भाजपा की उषा ठाकुर विधायक हैं और उन्हें अगले चुनाव में टिकट नहीं मिलेगा, ये भी लगभग तय माना जा रहा है। ऐसे में यहाँ से पहले भी विधायक रहे अश्विन जोशी तो सबसे सशक्त दावेदार तो हैं ही, महेश जोशी के राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जा रहे बेटे पिंटू उर्फ़ दीपक जोशी भी दावा पेश कर रहे हैं। लेकिन, एक ही परिवार के इन दोनों दावेदारों में से बटेर किसके हाथ लगती है, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। यहाँ इस ताकतवर लड़ाई को देखकर और कोई उम्मीदवारी का दावा पेश करता नजर नहीं आ रहा। जो नए नाम सामने आ रहे हैं, वे ऐसे नहीं हैं कि भाजपा को उखाड़ सकें। 
  विधानसभा के क्षेत्र क्रमांक-4 से कांग्रेस 1990 से अभी तक लगातार 6 चुनाव हारी है। 1990 में पहली बार यहाँ से कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा का खाता खोला था। विजयवर्गीय बाद में क्षेत्र क्रमांक-2 चले गए और फिर लगातार तीन चुनाव लक्ष्मणसिंह गौड़ ने जीते। बाद के दो चुनाव में उनकी पत्नी मालिनी गौड़ ने जीत दर्ज कराई। 1990 में यहाँ से कांग्रेस के इकबाल खान चुनाव की हार के बाद से कांग्रेस कई नेताओं को चुनाव लड़वा चुकी है, पर अभी तक उसे सफलता नहीं मिली। उजागर सिंह, ललित जैन, सुरेश मिंडा के अलावा गोविंद मंघानी भी यहां से दो बार चुनाव हार चुके हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के पास अभी भी कोई दमदार उम्मीदवार नहीं है, जो भाजपा को चुनौती दे सके। अभी तक के हालात बताते हैं कि कांग्रेस यहाँ से सुरजीतसिंह चड्ढा या सुरेश मिंडा में से किसी को चुनाव लड़ा सकती है। पर, सुरेश मिंडा का दौर अब ख़त्म हो गया है और सुरजीतसिंह इतने पुख्ता नहीं हैं, कि वे विधानसभा चुनाव जीत सकें। इसके अलावा केके मिश्रा यहाँ से ताकतवर नाम हो सकता है, पर कमलनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद ये संभावना कमजोर पड़ी है। 
  कांग्रेस के ध्यान न देने से शहर का क्षेत्र क्रमांक-5 इलाका आज भाजपा का गढ़ बन गया। यहाँ से कांग्रेस लगातार तीन विधानसभा चुनाव हारी है। तीन बार के विधायक महेंद्र हार्डिया को भाजपा टिकट दे या नहीं, पर कांग्रेस यहाँ कहीं मुकाबले में नजर नहीं आ रही! क्योंकि, पार्टी ने 15 सालों में भी कोई ऐसा चेहरा खड़ा नहीं किया, जो इस सीट से भाजपा को चुनौती दे सके। जबकि, यहाँ से टिकट मांगने वालों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। लगातार दो चुनाव हारी शोभा ओझा और पंकज संघवी को भी दावेदार माना जा रहा है। जबकि, पूर्व विधायक सत्यनारायण पटेल भी देपालपुर छोड़कर इस सीट से किस्मत आजमाने के मूड में हैं। महेश जोशी के बेटे पिंटू उर्फ़ दीपक जोशी, अरविंद बागड़ी, छोटे यादव, अर्चना जायसवाल और शेख अलीम भी लाइन में नजर आ  रहे हैं।  ऐसे में उम्मीद नहीं की जा सकती कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का ख़म ठोंककर मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि, बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की इच्छा भी रखता है तो कांग्रेस में इतना दम होना चाहिए कि उसे झेल सके। 
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Monday, August 27, 2018

हिंदी फिल्मों का भाषाई संस्कार


- हेमंत पाल

   हिंदी सिनेमा की अपनी अलग ही भाषा है। ये भाषा न तो व्याकरण सम्मत है न साहित्यिक! भले ही कहने को इन्हें हिंदी फ़िल्में कहा जाता हो, पर वास्तव में ये खरी हिंदी नहीं है! मराठी, मलयालम, तमिल और यहाँ तक कि भोजपुरी फिल्मों में भी वहाँ की अपनी भाषा होती है, पर हिंदी फिल्मों की हिंदी को पूरी तरह फिल्म की भाषा नहीं कहा जा सकता! इस भाषा में इतनी मिलावट है कि इसे हिंदी फ़िल्में नहीं कहा जा सकता! इसमें क्षेत्रीय बोलियां तो मिली ही होती है, इंग्लिश का भी भरपूर इस्तेमाल होता है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में सबसे पहले बिना आवाज वाली फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' बनाई थी, तब फिल्म की भाषा कोई विषय नहीं था! लेकिन, उसके बाद 1931 में जब पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनी, तो भाषा भी एक मुद्दा बन गया! लेकिन, तब हिंदी के साथ उर्दू की नफासत का पुट था, जो धीरे-धीरे लोप होता गया। 
   शुरूआती समय से ही हिंदी सिनेमा में हिंदी और उर्दू का नजदीकी रिश्ता रहा है। किंतु, समय के साथ ये रिश्ता भी दरकने लगा! महज भाषा के इस्तेमाल में ही बदलाव नहीं आया, बोलने का लहजा और ढंग भी बदल गया। 50 और 60 के दशक के मध्यकाल तक फिल्मों में जुबान स्पष्ट और आसान थी। जबकि, अब आज की फिल्मों में इंग्लिश शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ स्थानीय बोली का भी घालमेल होने लगा। अपराध पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गैंग आफ वासेपुर' को भाषा के स्तर पर बदलाव का मोड़ कहा जा सकता है। इस फिल्म में भाषा का विकृततम रूप सुनाई दिया था। इस बात से इंकार नहीं कि समाज ही सिनेमा को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, पर भाषा ही वो घटक है, जो फ़िल्म का संस्कार दर्शाता है।
   अब तो फिल्मों की भाषा को किरदार मुताबिक गढ़ा जाने लगा है! 'तनु वेड्स मनू' की किरदार बनी कंगना रनौत अपना परिचय हरियाणवी में देती है। इसी तरह 'बाजीराव मस्तानी' में मराठा बना रणवीर सिंह मराठी बोलता नजर आता है! 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भोजपुरी, 'उड़ता पंजाब' में पंजाबी, 'पानसिंह तोमर' में ब्रज भाषा बोली गई! दरअसल, फिल्मों की भाषा दर्शक की मनःस्थिति तक पहुँचने का जरियाभर होती है! इसलिए ऐसी भाषा का प्रयोग होता है, जो आम लोगों में लोकप्रिय हो और लोगों को आसानी से समझ आए। 
  1940 में महबूब ख़ान ने फिल्म 'औरत' बनाई थी, जो एक महिला के संघर्ष की कहानी थी। इसके बाद महबूब ख़ान ने एक ग्रामीण महिला के संघर्ष को ग्रामीण परिवेश में दिखाते हुए 'मदर इंडिया' बनाई! इस फिल्म की भाषा भोजपुरी मिश्रित हिन्दी थी। ग्रामीण परिवेश की कहानी वाली फिल्मों में हिन्दी और भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता था। क्योंकि, मुंबई तथा अन्य बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए मजदूरों की संख्या ज्यादा थी, जो भोजपुरी बोलते थे। खेती छोड़कर मज़दूरी करने आए मजदूर की जिंदगी पर बिमल राय ने 'दो बीघा जमीन' जैसी फिल्म बनाई थी। इसमें बलराज साहनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की भाषा तो हिन्दी थी, पर अनेक गाने भोजपुरी भाषा से जुड़े थे। 
   फिल्मों में भाषा का जो बदलता स्वरुप सामने आ रहा है, वो काफी हद तक हमारे समाज और संस्कृति का मापदंड है। देखा जाए तो समय के साथ बोलचाल की भाषा में भी बदलाव आ रहा है। ऐसे में सबसे सही भाषा वही मानी गई है, जो अपनी बात कहने का जरिया बने! लेकिन, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वो भाषा अमर्यादित, असंस्कारित और भाव प्रकट न कर सकने वाली हो! लेकिन, ताजा दौर में फिल्मों की भाषा कुछ ऐसी ही है! अब तो फिल्मों में गाली-गलौच से भरी भाषा सामान्य होती जा रही है।     
  ये मुद्दा भी बहस का विषय रहा है कि इस बदलाव से हिन्दी को कोई बड़ा नुकसान हुआ है या फिर कोई फायदा हुआ? इस पर सभी एकमत नहीं हो सकते! इसलिए कि सभी के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं! ये भी कहा जा सकता है कि हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिन्दी का स्तर गिरा नहीं है! बल्कि, इस रास्ते से हिंदी क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक जरूर पहुंची है! ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। इसमें अंग्रेजी, हिंगलिश सबकुछ होता है। ये भी कहा जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी खराब नहीं हो रही, बल्कि समृद्ध हो रही है। साथ ही क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी संरक्षण पा रही है।
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Monday, August 20, 2018

भाजपा के सामने छोटी पार्टियों की बड़ी चुनौती!



    युद्ध हो या चुनाव इनमें मुख्य मुकाबला दो सेनाओं या दो पार्टियों में होता है। युद्ध में छोटी सेनाएं और चुनाव में छोटी पार्टियाँ महज सहायक बनती दिखाई देती है, पर उनका अपना अस्तित्व होता है, जिसका खुलासा बाद में होता है। यही स्थिति इस बार विधानसभा चुनाव में बनती नजर आ रही है। कांग्रेस ने अपनी जीत में बाधक बनने वाली कई छोटी पार्टियों को अपनी सेना में शामिल करना शुरू कर दिया, ताकि चुनाव में उसका एक ही लक्ष्य बना रहे! जबकि, मुकाबले में सामने खड़ी भाजपा फिलहाल अकेली दिख रही है! उसके पास अपनी 15 साल की सरकार की उपलब्धियों का लेखा-जोखा जरूर है, पर साथ में जनता की नाराजी भी कम नहीं! ऐसे में ये चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं है! क्योंकि, कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है! छोटी पार्टियों के साथ मिलकर वो जितने भी मोर्चों पर भाजपा को परास्त कर सकेगी, वो उसकी उपलब्धि ही होगी।  


- हेमंत पाल

   ध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में जुटी भाजपा का मुकाबला इस बार सिर्फ कांग्रेस से नहीं है! उसे एक साथ कई मोर्चों पर छोटी-छोटी पार्टियों से भी जूझना पड़ेगा! मुख्य मुकाबला तो भाजपा का कांग्रेस से है, मगर प्रदेश के हर इलाके में स्थानीय मुद्दों को लेकर बनी पार्टियाँ भी भाजपा को चुनौती देने के लिए तैयार खड़ी हैं। अधिकांश पार्टियों का लक्ष्य सत्ता पाना नहीं, बल्कि सत्ता में बैठी भाजपा को उसकी गलतियों का अहसास कराना है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जयस (जय आदिवासी संगठन) राष्ट्रीय पंचायत पार्टी, हार्दिक पटेल की 'किसान क्रांति सेना' व कर्मचारियों के संगठन 'सपाक्स' समेत कई पार्टियाँ उसे खासा नुकसान पहुंचा सकती हैं। 'जयस' ने सार्वजनिक रूप से तो विधानसभा चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी, पर इस पर अभी भरोसा नहीं किया जाना चाहिए! वो खुद चुनाव लड़े, पर उसका समर्थन और विरोध रंग लाएगा! इसके अलावा कांग्रेस से जुड़कर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तो भाजपा को शह देने के लिए कमर कस ही रही है! मसला सीटों को लेकर उलझा है, जिसके जल्द सुलझने की उम्मीद की जा रही है।    
  अभी तक के चुनाव में भाजपा को बड़ा खतरा कांग्रेस से ही था। इसके अलावा बसपा व सपा जैसी पार्टियां ही उसे कुछ सीटों पर नुकसान पहुंचाते थे, इसलिए भाजपा की चुनावी रणनीति इन्हें ध्यान में रखकर बनती थी। लेकिन, अबकी बार प्रदेश में कई छोटी-छोटी पार्टियाँ अपनी दमदार उपस्थिति दिखाकर भाजपा के लिए परेशानी खड़ी कर सकती हैं। आदिवासियों की पार्टी गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और आदिवासी संगठन 'जयस' दोनों ही प्रदेश की 47 आदिवासी सीटों पर सक्रिय होते दिखाई दे रहे हैं। इन्हें अच्छा समर्थन भी मिल रहा है। 'जयस' का प्रभाव मालवा-निमाड़ इलाके में ज्यादा है। इसके अलावा झाबुआ और मंडला जैसे आदिवासी जिलों में भी 'जयस' काम कर रहा है। इनकी अराजनीतिक रैलियों में ही 10 से 15 हज़ार तक लोग इकट्ठा हो रहे हैं, जो इनकी सफलता का संकेत है। इसके अलावा 230 में से 35 सीटें ऐसी भी हैं, जहां आदिवासियों की संख्या 50 हजार तक है, वे यहाँ चुनाव को प्रभावित करने माद्दा रखते हैं।  
  मध्यप्रदेश में 47 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं। इनमें से फिलहाल भाजपा के पास 30 सीटें हैं। भाजपा के लिए चिंता वाली बात ये है कि कांग्रेस ने 'जयस' और 'गोंडवाना' दोनों से गठबंधन के संकेत दिए हैं। पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करने के लिए गठित सामान्य, पिछड़ा, अल्पसंख्यक वर्ग समाज संस्था 'सपाक्स' ने भी चुनाव मैदान में उतरने का मन बना लिया। यह संगठन भाजपा को खासा नुकसान पहुंचा सकता है। 'सपाक्स' ने अपने पंजीकृत राजनीतिक पार्टी के चिन्ह पर सभी 230 विधानसभा सीटों से प्रत्याशी उतारने की रणनीति भी बना ली। इसके मुखिया हीरालाल त्रिवेदी खुद उज्जैन जिले की बड़नगर सीट से चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं। 
   दूसरी चुनौती बन रही है नोयडा के पंचायत संगठन से जुड़े राष्ट्रीय पदाधिकारी नरेश यादव की 'राष्ट्रीय पंचायत पार्टी' जिसने प्रदेश में किसानों और पंचायत संगठनों को समेटना शुरू कर दिया। चुनाव को लेकर इस पार्टी की गंभीरता इस बात से आंकी जा सकती है कि प्रदेशभर में 'राष्ट्रीय पंचायत पार्टी' ने छोटी-छोटी 21 पार्टियों और संगठनों से चुनावी गठजोड़ किया है। 'सपाक्स' की तरह इस पार्टी ने भी चुनाव आयोग में अपना पंजीयन करवाकर 'पोस्ट बॉक्स' चुनाव चिन्ह भी ले लिया। इस पार्टी का फोकस किसान, पंचायत से जुड़े लोग और ग्रामीण है। मध्यप्रदेश के अलावा ये छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भी चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में है। इन सभी छोटे दलों की सक्रियता देखकर लग रहा है कि भाजपा को ये जहां नुकसान पहुचाएंगे, वहीं इसका फायदा कांग्रेस को होगा! क्योकि, ये पार्टियाँ जीत भले ही न पाएं मगर वोट भाजपा के ही काटेंगे! यदि कांग्रेस से इन पार्टियों का चुनावी गठबंधन हो जाता है, तो ये भाजपा के लिए परेशानी का कारण होगा। 
  गुजरात चुनाव में भाजपा के लिए परेशानी खड़ी करने वाले पाटीदार नेता और 'किसान क्रांति सेना' के अध्यक्ष हार्दिक पटेल भी विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी अड़चन हैं। घोषित तौर पर तो उनका कहना है कि वे न तो कांग्रेस के साथ है और न भाजपा के! लेकिन, सभी जानते है कि हार्दिक वे हमेशा भाजपा के खिलाफ ही खड़े दिखाई देते हैं। प्रदेश की 58 सीटों को पाटीदार वोट चुनाव को प्रभावित करते हैं। इनमें ज्यादातर सीटें मालवा-निमाड़ के अलावा रीवा और सागर संभाग में हैं। आंकड़ों के नजरिये से देखा जाए तो प्रदेश में 1 करोड़ 42 लाख लोग पाटीदार समाज से हैं। 
  मालवा और निमाड़ के जिस इलाके में किसान आंदोलन ने जोर पकड़ा, वो इलाका आरएसएस और भाजपा का गढ़ माना जाता है। आरएसएस के अलावा भाजपा कार्यकर्ताओं की पकड़ जमीनी स्तर पर काफी मजबूत मानी जाती है। लेकिन, मंदसौर किसान आंदोलन और गोलीकांड ने भाजपा को अपनी रणनीति पर सोचने पर मजबूर कर दिया है। क्योंकि, एक तरफ भाजपा के कार्यकर्ता घर-घर जाकर मोदी सरकार की चार साल की उपलब्धियों के साथ शिवराज सरकार की उपलब्धियों का गुणगान कर रहे हैं! लेकिन, किसानों के अंदर पनप रही नाराजगी का न तो आरएसएस को अंदाजा लगा और न भाजपा राज खूबियां गिना रहे कार्यकर्ताओं को। हालात इतने ज्यादा बिगड़ गए कि मालवा और निमाड़ इलाके से पनपा आंदोलन देशभर में फैल गया। शिवराज सरकार की बेपरवाही के चलते किसानों का आक्रोश भी बढ़ गया। आरएसएस जैसे बड़े संगठन की छाया और कैडर बेस पार्टी का दम भरने वाली भाजपा सकते में आ गई! इसे सरकार के इंटेलीजेंस की नाकामी के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन भाजपा को अब समझ आ रहा है कि जिस अंचल में किसानों के वोट बैंक के दम पर भाजपा दम भरती थी, आज वो वोट बैंक नाराज होने के साथ-साथ भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन गया है। 
  इधर, उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने भी मध्यप्रदेश की एक-एक विधानसभा सीट का सर्वे कराया है। इसी आधार पर जो रिपोर्ट तैयार हुई, उससे स्पष्ट हुआ कि भाजपा अपने आपको जितना ताकतवर दिखाने की कोशिश कर रही है, उतनी है नहीं! यही कारण है कि सपा ने विधानसभा सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की थी। लेकिन, यदि उसका कांग्रेस से औपचारिक गठबंधन हो गया तो उसे सीमावर्ती 10-12 सीटें मिल सकती है। सपा की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तरप्रदेश से लगने वाली बुंदेलखंड की सीटों पर पार्टी की पकड़ मजबूत है। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश के 51 जिलों में पर्यवेक्षक भेजे थे। इन पर्यवेक्षकों ने वहाँ रहकर एक-एक विधानसभा का बीस बिंदुओं पर सर्वे किया है। यही स्थिति बहुजन पार्टी की भी है, जिसने 2013 के चुनाव में सीमावर्ती सीटों पर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज की थी। लेकिन, इनमें से कोई भी पार्टी भाजपा की तरफ झुकती नजर नहीं आती! क्योंकि, जो राजनीतिक फ़ायदा इन पार्टियों को कांग्रेस से मिल सकता है, वो भाजपा से संभव नहीं है।   
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Sunday, August 19, 2018

जब जॉनी लीवर को गले लगाया!


हेमंत पाल 

    टलबिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति कि वे शख्सियत थे, जिनकी काबलियत का लोहा उनके विरोधी भी आजतक मानते हैं।  उन्होंने राजनीति को कभी पेशा नहीं समझा! देशहित के आगे उन्हें राजनीति करना कभी पसंद नहीं था और न उन्होंने कभी ऐसा किया! यही कारण है कि उनके नाम शायद कोई राजनीतिक विवाद दर्ज नहीं है। जगजाहिर है कि वे उतनी ही राजनीति करते थे, जितना जरुरी होता था। वक़्त बिताने के लिए उनके पास बहुत से शौक थे! उनका कॅरियर पत्रकारिता से शुरू हुआ था! वे कविता लिखते थे। उनकी कई कविताओं के एलबम भी निकले। लेकिन, उन्होंने अपने शौक को कभी छुपाया नहीं! वे फुरसत में फ़िल्में देखते थे।    
  अटलजी की पसंदीदा फिल्मों में देवदास, बंदगी और 'तीसरी कसम' को गिना जाता है। इंग्लिश फिल्मों में उनकी फेवरेट फिल्म थी द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाय, बॉर्न फ्री और 'गांधी' थी। अटलबिहारी वाजपेयी को 'बंदिनी' फिल्म का एसडी बर्मन का संगीतबद्ध किया और उनकी ही आवाज में गाया गीत ओ रे मांझी ... बेहद पसंद था। बताते हैं कि 'कभी कभी' फिल्म का मुकेश और लता मंगेशकर का गाया 'कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है ... गाना भी वे अकसर सुनते थे। लता मंगेशकर, मुकेश के अलावा उन्हें मोहम्मद रफ़ी भी पसंद थे। 
 अटलजी के शौक में कविता, साहित्य के बाद तीसरा रिश्ता फिल्मों से ही रहा! उन्हें कौनसा एक्टर पसंद था, ये बात तो कभी सामने नहीं आई, पर एक्ट्रेस हेमामालिनी के वे खासे प्रशंसक थे। जब वक़्त मिलता वे हेमा की फिल्में देखते थे। खुद अटलजी ने कभी सार्वजनिक रूप से अपनी पसंद का इजहार नहीं किया, पर एक कार्यक्रम में हेमा मालिनी ने जरूर कहा था कि अटलजी को 1972 में आई फिल्म 'सीता और गीता' इतनी पसंद आई थी। उन्होंने इसे फिल्म को करीब 25 बार देखा था। जब हेमा मालिनी पहली बार अटलजी से मिली, तब वे उनसे खुलकर बात नहीं कर पाए और संकोच में रहे! तब अटलजी के संकोच का खुलासा वहाँ मौजूद एक महिला ने हेमा मालिनी से किया था। बताया कि अटलजी ने आपकी फिल्म ‘सीता और गीता’ कई बार देखी है, वे आपकी एक्टिंग को पसंद करते हैं, इसलिए अचानक आपको सामने देखकर हिचकिचा गए!  
  साह‍ित्य पढ़ने और कविताएं करने में भी अटलजी की रुच‍ि रही। उन्होंने कई बार मंचों से भी कविता की, पर मंचीय कवि नहीं रहे! उनकी कव‍िताओं को बॉलीवुड के कई द‍िग्गजों ने भी आवाज दी। जब वे प्रधानमंत्री बने उस दौर में उनकी कविताओं पर कई म्यूजिक एलबम बनाए गए। इन एलबम को लता मंगेशकर, जगजीत स‍िंह, हरिहरन, पद्मजा जग और शंकर महादेवन ने भी आवाज दी। लता मंगेशकर ने भी उनकी कविताओं को अपने सुरों में पिरोया है। जगजीत स‍िंह ने अटलजी की कव‍िताओं को अपने एलबम 'नई दिशा' में भी ल‍िया था। 1999 में आए इस एलबम को 'बेस्ट नॉन फिल्म ल‍िर‍िक्स कैटेगरी' में स्क्रीन अवॉर्ड दिया गया था। राजनीति में होते हुए, मनोरंजन जगत का यह अवॉर्ड पाने वाले अटलजी पहले व्यक्ति थे। लेकिन, व्यस्तता के चलते वे इस समारोह में शामिल नहीं हो पाए थे। बाद में उन्हें उनके आवास पर इस सम्मान से नवाजा गया। अटलजी ने खुद कभी किसी फिल्म में काम नहीं किया, पर मनमोहन सिंह के जीवन पर बन रही फिल्म में अभिनेता रामवतार उनकी भूमिका में जरूर नजर आएंगे। 
  बॉलीवुड के कई सितारे अटलजी के प्रशंसक रहे हैं। कई फिल्मों में भी उनकी शख्सियत को दिखाने की कोशिश भी की गई! लेकिन, लता मंगेशकर और अटलबिहारी वाजपेयी के बीच एक बहुत ही दिलचस्प वाकया हुआ था, जिसका जिक्र लेखक यतींद्र मिश्र ने अपनी किताब 'लता सुरगाथा' में किया है। लताजी ने बताया कि अटलजी प्रेम और आदर से भरे राजनेता रहे हैं। एक बार मैंने उनसे मजाक में कहा कि अटलजी, आपके नाम की अंग्रेजी की स्पेलिंग को उलटकर पढ़िए तो मेरा नाम लता बनता है। इस बात पर वे खिलखिलाकर हंस पड़े थे।  
  अटलजी उन नेताओं में से थे, जिनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर अद्भुत था। जाने-माने कॉमेडियन जॉनी लीवर हमेशा अपने जोक्स में अटलजी के भाषण की स्टाइल कॉपी किया करते रहते हैं। एक बार जॉनी लीवर का अटलजी से सामना हो गया तो जॉनी लीवर घबरा गए! उन्हें लगा कि कहीं कॉपी करने की वजह से उन्हें कुछ सुनना न पड़े! लेकिन, जो हुआ वो जॉनी लीवर के लिए अविस्मरणीय बन गया। जॉनी को देखते ही अटलजी ने अपने अंदाज में सामने से सभी को हटाते हुए हाथ खोलकर कहा 'अरे ... मेरा पार्टनर आ गया यार' और फिर मुझे गले लगा लिया। लेकिन, अब अटलजी सिर्फ यादों और किस्सों में ही बचे हैं और हमेशा यहीं बने रहेंगे!
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Thursday, August 16, 2018

'तुमने तो मुझे निरुत्तर कर दिया!'


- हेमंत पाल 
  टलबिहारी बाजपेई नेता नहीं थे, पत्रकार भी नहीं थे, कवि भी नहीं थे! बल्कि, वे एक संपूर्ण व्यक्ति वाले महामानव थे जो लाखों, करोड़ों में कभी-कभार ही धरती पर अवतरित होता है। क्योंकि, उनमें न तो नेताओं जैसा दोगलापन था, न वे पत्रकारों जैसे शातिर थे और न उनमें कवियों की तरह मार्केटिंग का हुनर था। वे सबकुछ थे और इन सबसे ऊपर थे। उनके व्यक्तित्व का आभामंडल ऐसा था कि जो भी उसमें आता, उनका होकर रह जाता! मुझे भी उनसे कई बार मिलने का मौका मिला! लेकिन, उनसे जुडी एक घटना ऐसी है, जो यादगार बन गई! 
   ये 1983 की फ़रवरी की किसी तारीख की बात है! अटलजी बसंत पंचमी पर धार की भोजशाला आए थे! तब प्रेमप्रकाश खत्री धार में भाजपा बड़े नेता थे। भोजशाला से लौटने के बाद पत्रकारों को उनसे बात करने के लिए बुलाया गया! मैंने भी तभी पत्रकारिता शुरू ही की थी! मैं उत्साहित था कि मुझे आज एक बड़े नेता से मिलने का मौका मिलेगा। बातचीत शुरू हुई! अटलजी का आभामंडल और व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई उनसे सवाल पूछने साहस कर सके ये संभव नहीं था। मैंने भी काफी देर तक उनकी बातें सुनी! अटलजी ने भोजशाला विवाद पर अपनी बात कही और ये भी जोड़ा कि इंग्लैंड से वाग्देवी की प्रतिमा को वापस लाने के प्रयास किया जाएगा! ये सरस्वती की वही प्रतिमा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ये राजा भोज ने इसे बनवाकर भोजशाला में लगाया था। राजा भोज रोज देवी की इसी प्रतिमा का पूजन किया करते थे। सभी पत्रकार अटलजी की बात सुनते रहे! मुझसे रहा नहीं गया कि कोई कुछ पूछ क्यों नहीं रहा है! सकुचाते हुए मैंने ही अटलजी से पूछा लिया 'आप देश के विदेश मंत्री रहे हैं, आज जब आप वाग्देवी की प्रतिमा इंग्लैंड से आपस लाने की बात कह रहे हैं जो अब आसान नहीं है! आपने ये प्रयास तब क्यों नहीं किए जब आप सत्ता में थे और विदेश मंत्री जैसे पद पर थे? आज आप जब विपक्ष में हैं, तो प्रयास की बात क्यों कर रहे हैं?'
  मेरा सवाल सुनकर कमरे में सन्नाटा सा छा गया! मौजूद नेता और पत्रकार एक-दूसरे मुँह देखने लगे! किसी को समझ नहीं आया कि मैंने ऐसा सवाल कैसे पूछ लिया? अटलजी से धार जैसी छोटी जगह में कोई अंजान सा पत्रकार ये पूछने का साहस कर ले, ये उस दौर में संभव भी नहीं था! बड़े अख़बारों के प्रतिनिधि और न्यूज़ एजेंसी वाले सीनियर के होते, मैंने ये पूछ लिया तो सभी मुझे घूरने से लगे! मुझे भी लगा कि शायद मुझसे कोई बड़ी गलती हो गई! लेकिन, जो होना था, वो हो चुका था! अटलजी कुछ बोलते उससे पहले ही एक नेता ने अटलजी की व्यस्तता बताते हुए बात खत्म कर दी!    
   सभी लोग कमरे बाहर आ गए! कुछ साथियों ने मेरी तारीफ भी की कि मैंने अटलजी से सीधे ऐसा सवाल करने का साहस किया! अभी हम वहाँ से निकलने ही वाले थे कि एक भाजपा नेता जो वकील भी थे, आए और मुझसे रुकने को कहा! बाकी पत्रकार भी रुक गए! वो मेरे पास आए और बोले कि अंदर आओ, अटलजी आपको बुला रहे है! ये सुनकर साथ में खड़े सभी पत्रकार भी रुक गए कि शायद मेरे साथ उन्हें भी अंदर बुलाया जाएगा! लेकिन, वे सिर्फ मुझे ही अंदर ले गए! लेकिन, बाकी लोग मेरे पीछे आकर दरवाजे से सटकर ये जानने के लिए खड़े हो गए कि अंदर क्या होने वाला है! 
  कमरे में अटलजी वहीँ बैठे थे, जहाँ हम उन्हें छोड़कर गए थे! मुझे देखते ही अटलजी मुस्कुराते हुए बोले 'आओ युवातुर्क!' मैंने उन्हें नमस्ते किया और सामने खड़ा हो गया! लेकिन, उन्होंने मुझे पास बुलाया और बैठा लिया! मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए बोले 'मुझे बहुत अच्छा लगा कि तुमने मुझसे ये सवाल करके मुझे निरुत्तर कर दिया! आज मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है! लेकिन, मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि धार में कोई युवा पत्रकार ऐसा है, जो मुझे अपने एक सवाल से चुप करा सकता है!' मैंने ये सुनकर सम्मानवश उनके पैर छू लिए! वे आशीर्वाद देते हुए बोले 'मेरा आशीर्वाद है तुम खूब उन्नति करो, जो मुझे जवाब सोचने के लिए बाध्य कर दे, वो किसी की भी बोलती बंद करा सकता है!' ये बोलते हुए वे जोर से हंस पड़े! अटलजी  शब्द  मेरे कानों में गूंजते हैं! क्योंकि, वे किसी भाजपा नेता के नहीं एक महामानव का आशीर्वाद था! इसके बाद जब 1989 में मैं मुंबई 'जनसत्ता' में था, तब भी उनसे मुलाकात हुई और मैंने धार की घटना याद दिलाई तो वे मुझे पहचान गए! लेकिन, जब एक बार इंदौर में उनसे पत्रकार के रूप में सामना हुआ तो आगे होकर हँसते हुए बोले 'मित्र, आज कौनसा सवाल दागने वाले हो?' आज जब वो दुनिया से छाए गए उनकी वो हंसी कानों में गूंज रही है! 
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Monday, August 13, 2018

तमाशबीनों की भीड़ और राजनीतिकों का भ्रमजाल!


हेमंत पाल




    इन दिनों मध्यप्रदेश में भीड़-तंत्र की राजनीति का जोर है। जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों में इस बात की प्रतिद्वंदिता बढ़ रही है, कि कौन अपनी सभाओं में ज्यादा भीड़ जुटा रहा है। एक तरफ मुख्यमंत्री की 'जन आशीर्वाद यात्रा' में भीड़ जुट रही है, दूसरी तरफ कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ ने भी अपने चुनावी दौरे शुरू कर दिए! दोनों पार्टियों ने इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया कि किसकी सभाओं में ज्यादा भीड़ है! ऐसे में चुनाव के मूल मुद्दे और लोगों की समस्याओं की बातें गौण हो गई! लगता है कि सारी राजनीति भीड़ की संख्या पर आकर केंद्रित है। नेता भी इस बात को जानते हैं, कि लोकतंत्र में एक व्यक्ति का एक ही वोट होता है और भीड़ का होना इस बात का संकेत कतई नहीं, कि जितनी भीड़ दिखाई दे रही है उतने वोट पक्के हो गए। क्योंकि, भीड़ तो तमाशबीन होती है, उसकी प्रतिबद्धता तमाशा देखने में ही ज्यादा होती है।   
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 आजकल की राजनीति भीड़ केंद्रित हो गई! नेताओं ने भी अपनी लोकप्रियता का पैमाना इस बात को मान लिया कि उनकी सभाओं में कितनी भीड़ जुटती है! ऐसे में ये सवाल प्रासंगिक हो जाता है कि क्या किसी राजनीतिक पार्टी की रैली या रोड-शो में आने वाली भीड़ उसके प्रति जनता के समर्थन का पैमाना हो सकती है? क्या इस भीड़ को विश्वसनीय माना जाना चाहिए? सीधे शब्दों में कहा जाए तो क्या सभाओं की भीड़ को वोटर माना जाना चाहिए? क्योंकि, ऐसे कई उदाहरण है, जब किसी पार्टी के नेताओं की चुनावी रैलियों में भीड़ तो लाखों की हुई, पर जब चुनाव का नतीजा सामने आया तो वोट हजारों में सिमटकर रह गए! बीते कुछ सालों में राजनीति के साथ-साथ रैलियों की भीड़ की प्रकृति में भी बदलाव आया है। कहा जाता है कि इस भीड़ में कई लोग तो पार्टी के कार्यकर्ता होते हैं। बाक़ी लोगों को पैसे और खाने का लालच देकर लाया जाता है। ये वो गरीब लोग होते हैं, जिन्हें गाड़ियों में भरकर रैली में लाया जाता है। ये लोग सिर्फ भीड़ का हिस्सा होते हैं! इन्हें न तो नेता से कोई सरोकार होता है न किसी पार्टी से! मीडिया में भी यही दिखाता जाता रहा है, कि कैसे किसी पार्टी कि रैली में लोगों को किराए की बसों और गाड़ियों में भरकर लाया गया। सवाल ये है कि जब मीडिया राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की रैलियों की भीड़ का सच जानता है, तो उस भीड़ को पार्टी या नेता के जनाधार के रूप में क्यों पेश करता है?
  सभाओं और रैलियों में जुटने वाली भीड़ कभी वोट का पैमाना नहीं होती! लेकिन, यह भीड़ माहौल बनाने का जरिया जरूर बनती है। अगर किसी रैली में जमकर भीड़ उमड़ती है, तो लोगों के बीच उस पार्टी के प्रति ये संदेश जाता है कि ये सब उसके समर्थन में है। यदि ऐसा नहीं होता और तो इसे उस पार्टी या नेता की अलोकप्रियता का संकेत समझा जाता है, जो कि नकारात्मक होता है। भीड़ का ये पैमाना सिर्फ नेताओं या पार्टियों तक ही सीमित नहीं है! अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी भी भीड़ के इस सम्मोहन से नहीं बच सके। वे भी जिंदाबाद के नारों के बीच अभिभूत होते हैं। दिल्ली में जब दूसरी बार अन्ना हजारे का अनशन हुआ तो उसकी असफलता का सबसे बड़ा आकलन यही था कि उसमें भीड़ नहीं जुटी थी! जिंदाबाद के नारे और तालियों की गड़गड़ाहट से ही नेताओं को ऊर्जा मिलती है।  
  मध्यप्रदेश में इन दिनों ख़बरें जमकर चर्चा में है, कि शिवराजसिंह चौहान की यात्रा के लिए हजारों लोग देर रात तक जमे रहे या बरसते पानी में छाते लगाकर खड़े रहे! दूसरे दिन जब यहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया का भाषण होता है, तो वही चेहरे फिर दिखाई देते हैं! आशय यह कि झंडे का रंग बदला, नेताओं का चेहरा बदला, पर भीड़ वही थी! राजनीतिक पार्टियों का भीड़ इकट्ठा करने का अपना अलग ही फार्मूला होता है। नेता कितना भी बड़ा और प्रभावशाली क्यों न हो, उसे सुनने आने वाले उतने नहीं होते, जितने दिखाई देते हैं। वो सिर्फ भीड़ होती है। यदि भीड़ नहीं है, तो समझो सारी मेहनत बेकार है। जिनके पास भीड़ लाने की जिम्मेदारी होती है, वे इसका मैनेजमेंट भी जानते हैं। वाहनों को जुटाया जाता है और बजट बनाया जाता है कि भीड़ को कितने में लाया जाएगा! नेताओं की राजनीतिक पहुँच भी इसी से आंकी जाती है कि कौन कितनी बसें भरकर भीड़ ला सकता है। इस सबसे सभा करने वाला नेता तो खुश हो जाता है, लेकिन किसी को ये नहीं भूलना चाहिए कि ये भीड़ महज भ्रम होती है। जिसे लोकतंत्र कहकर प्रचारित किया जाता है, वो दरअसल भीड़-तंत्र है। 
   बात सिर्फ़ भाजपा या कांग्रेस तक सीमित नहीं है। जहाँ जिस पार्टी का प्रभुत्व है, वह अपना प्रभाव दिखने के लिए यही करती है। चुनाव के माहौल में सभी पार्टियां एक रंग में रंग जाती है! अब चुनावों में रैली अथवा जनसभाएं नहीं होतीं, बल्कि एक तरह से इवेंट होता है, इसके लिए हर पार्टी में एक ऐसी टीम होती है, जिसे ये इवेंट करने में महारथ होती है। क्योंकि, पैसों से यदि भीड़ जुटाई जाती है, तो उसे राजनीतिक रैली नहीं कहा जा सकता! पैसों से रैलियां नहीं होतीं, बल्कि इवेंट्स होते हैं। अब वो समय नहीं रहा, जब नेताओं को सुनने के लिए भीड़ खुद चलकर आती थी! कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी और भाजपा के नेता अटलबिहारी वाजपेयी को सुनने लोग खुद आते थे। उनसे राजनीतिक रूप से असहमत होते हुए भी लोग उनकी भाषण शैली के मुरीद थे। 1939 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी नई पार्टी 'फॉरवर्ड ब्लॉक' की पटना के गांधी मैदान पर रैली की थी, तो लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। महात्मा गांधी की एक आवाज़ पर पूरा देश उनके साथ खड़ा हो जाता था। जयप्रकाश नारायण ने जब 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में 'संपूर्ण क्रांति' का नारा बुलंद किया था, तो लोग कामकाज छोड़कर गांधी मैदान पहुंच गए थे। उनके एक आह्वान पर सारे देश में भूचाल आ गया था। ये कोई इवेंट नहीं था। ये पैसे देकर लाई भीड़ भी नहीं थी। मगर, अब देश में न तो ऐसे नेता बचे न कोई ऐसी पार्टी जिसके नेता अपने मौलिक विचारों से लोगों को एक जगह इकट्ठा कर ले!   

  मध्यप्रदेश में चुनाव का बुखार नेताओं और पार्टियों के सिर चढक़र बोल रहा है। एक-दूसरे की निंदा का वातावरण चरम पर है। भीड़ के सामने प्रतिद्वंदी पार्टी की खामियों को जिस बचकाना ढंग से प्रचारित किया जा रहा है, वो राजनीति के गिरते स्तर को दर्शा रहा है। ऐसे में रैलियों की भीड़ की विश्वसनीयता भी संदिग्ध ही है। नेता समझते हैं कि वे जनता को भरमा रहे हैं, जबकि भीड़ की मानसिकता भी इससे अलग नहीं होती! राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के आसपास की भीड़ भी उसी हाव-भाव के साथ मौजूद होती है। फिलहाल किसी को समझ नहीं आ रहा कि कौन किसे भरमा रहा है!  शिवराज सिंह की 'जन आशीर्वाद यात्रा' में चारों तरफ जुटी भीड़ को भले कांग्रेस किराए से लाई भीड़ कहकर हँसी उड़ा रही हो, पर कांग्रेस भी उससे अलग नहीं है! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी उसी तरह के प्रयासों में कमी नहीं हो रही! ऐसे में जनता है कि दोनों पार्टियों के नेताओं के लिए ताली पीट रही है।      
शिवराज सिंह की जन आशीर्वाद यात्रा के पीछे सत्ता की तरफ ताकती कांग्रेस के नेता भी भीड़ की मनःस्थिति टटोलने में देर नहीं कर रहे! भीड़ भी ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ, अजय सिंह, जीतू पटवारी के आसपास अपनी अदा बिखेरने में कंजूसी नहीं कर रही। भाजपा चौथी बार सत्ता में वापसी के लिए प्रयास कर रही है तो कांग्रेस के नेता भी एक होने का भ्रम बनाए रखते हुए ये संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि वे भाजपा से बेहतर हैं! 
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फ़िल्मी देशभक्ति, यानी पाकिस्तान विरोध!


- हेमंत पाल

   बॉलीवुड पास बिकाऊ विषयों की कमी नहीं है। प्यार, बदले की कहानी, प्रेम त्रिकोण, समाज विरोधी गतिविधियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ और पीढ़ियों के बीच अंतर्विरोध के अलावा देशभक्ति भी एक चटकारेदार बिकाऊ विषय है। यह बात अलग है कि वक़्त के साथ-साथ फिल्मों में देशभक्ति के मायने बदलते गए। आजादी से पहले देशभक्ति पर बनी फिल्मों में अंग्रेज हुकूमत को निशाने पर रखा जाता था। गुलामी के उस दौर में अंग्रेजों का सीधा विरोध संभव नहीं था! लेकिन, सांकेतिक रूप से तब भी फिल्मों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अलख जगाने का काम किया था। इस संदर्भ में कवि प्रदीप का 'किस्मत' के लिए  लिखा गीत 'दूर हटो ओ दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है' प्रासंगिक है। उन्होंने विश्वयुद्ध को आधार बनाकर यह गीत लिखकर अंग्रेजी हुकूमत को एक तरह से धोखा ही दिया था। गाने में अंग्रेजों का पक्ष लेकर विश्वयुद्ध में उसके खिलाफ लड़ने वाले देशों से कहा गया था, कि हिन्दुस्तान हमारा अर्थात अंग्रेजों का है। 
  आजादी के बाद करीब दो दशक तक फिल्मों में देशभक्ति के किस्सों को दोहराया जाता रहा। इन फिल्मों में दिलीप कुमार की 'शहीद' प्रमुख थी। उन दिनों शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और झांसी की रानी ऐसे चरित्र थे, जिन्हें केंद्र में रखकर कई बार परदे पर देशभक्ति के रंग भरे गए। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक ऐसा दौर जरूर ऐसा आया, जब चेतन आनंद ने इस विषय पर 'हकीकत' जैसी सार्थक फिल्म बनाई। लेकिन, उसके बाद देशभक्ति के नाम पर जो कुछ परोसा गया, उसमें ऐसी भक्ति की भावना करीब-करीब नदारद ही रही। भगतसिंह के चरित्र पर बनी 'शहीद' की सफलता ने मनोज कुमार को फिल्में हिट करने का एक फार्मूला जरूर दे दिया। जिसे उन्होंने बाद में अपनी लगभग सभी फिल्मों में भुनाया! 
  मनोज कुमार ने देशभक्ति के नाम पर जो परोसा, उसमें देशभक्ति कम और दूसरे मसाले ज्यादा थे। उनकी इसी देशभक्ति का नतीजा था, कि वे मनोज कुमार से भारत कुमार बन गए। उनकी ही फिल्म 'उपकार' लालबहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान जय किसान' पर आधारित थी! जबकि, मूल रूप से यह दो भाईयों के बीच जमीन के बंटवारें को लेकर बनी थी, जिसमें देशभक्ति के जज्बातों के साथ 'गुलाबी रात गुलाबी' का पैबंद भी लगाया गया। उसके बाद मनोज कुमार ने 'पूरब पश्चिम' से लगाकर रोटी कपडा और मकान, शोर और 'क्रांति' जैसी फ़िल्में बनाई! लेकिन, इनमें भी देशभक्ति की चाशनी के साथ कमाई के मसालों  की भरमार थी। बलात्कार के लम्बे दृश्य से लेकर पानी में भीगती नायिका का अंग प्रदर्शन तक सब कुछ था। फिर भी दर्शक उन्हें लम्बे समय तक देशभक्त फिल्मकार के रूप में देखते रहे। 
    इस दौर के बाद देशभक्ति के नाम से जितनी फ़िल्में बनी, उनमें फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि यदि दर्शकों की भावनाएं यदि किसी विषय पर भड़कती है, तो वो है पाकिस्तान विरोध! पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में शिकस्त देने वाले प्रसंग और ऐसे जज्बाती डायलॉग जिनपर दर्शक तालियां मारता हुआ सिनेमा हाल से बाहर निकले! जेपी दत्ता ने भारत और पाकिस्तान युद्ध पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर' बनाई! सितारों से भरपूर इस फिल्म में भी पाकिस्तान को शिकस्त के प्रसंग को जमकर भुनाया गया। यहां तक कि गीतकार जावेद अख्तर ने भी 'संदेशे आते हैं, हमें तड़फाते हैं' में अपने ससुर कैफी आजमी के 'हकीकत' के लिए लिखे उनके गीत 'हो के मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा' को ही आगे बढाया है। 
  कथित देशभक्ति के नाम पर इन दिनों बनाई जाने वाली फिल्मों का एक ही लक्ष्य होता है, जितना हो सके पाकिस्तान की फजीहत दिखाई जाए! क्योंकि, देशभक्ति का यही सबसे हिट फार्मूला भी है। निर्माता निर्देशक अनिल शर्मा ने सनी देओल और अमीषा पटेल को लेकर बनाई फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' में  'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, हिन्दुस्तान जिंदाबाद है और हिंदुस्तान जिंदाबाद रहेगा' जैसे डायलॉग लिखवाकर फिल्म को सफल बनाया था। उसके बाद आमिर खान की 'सरफरोश' आई, इसमें भी देशभक्ति का वही पुराना तड़का था। एक मुस्लिम पुलिस इंस्पेक्टर पर शंका किए जाने के प्रसंग और पाकिस्तान से संबंध जोड़कर इसे भी सफलता के दरवाजे से पार करवा दिया गया!  इन दिनों मनोज कुमार वाली भारत कुमार की पदवी अक्षय कुमार को मिली है। उनकी फिल्मों में देशभक्ति की चाशनी के साथ पाकिस्तान को कोसने का काम बदस्तूर जारी है। यहां तक कि 'रूस्तम' जैसी फिल्म को भी देशभक्ति से जोड़ा गया। लगता है बॉलीवुड के फिल्मकारों की देशभक्ति पाकिस्तान विरोध तक ही सीमित होकर रह गई है! 
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Saturday, August 11, 2018

चुनाव वही जीतेगा, जिसकी छवि होगी बेदाग़!


- हेमंत पाल 


   मध्यप्रदेश में चुनावी रंग अपना असर दिखाने लगा है। ख़बरों में राजनीति, बातचीत राजनीति और व्यवहार में भी राजनीति नजर आने लगी! जहाँ भी चर्चा के ठीये दिखाई देते हैं, विषय राजनीति ही होता है। लेकिन, मुद्दा ये है कि इस बार मतदाता किसे वोट देगा और क्यों? क्या 15 साल से प्रदेश की सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी को या विधानसभा में विपक्ष की कुर्सी की शोभा बढ़ा रही कांग्रेस को? सवाल अहम् है, पर जवाब नहीं! क्योंकि, वोट को लेकर हर मतदाता का पैमाना अलग-अलग है! पार्टी कार्यकर्ताओं और पार्टी-भक्त मतदाताओं को छोड़कर शेष का नजरिया अलग होता है! यही 10-12 प्रतिशत मतदाता होते हैं, जो फैसला करते हैं कि किस पार्टी की सरकार बनें!। इस बार भी इन्हीं मतदाताओं की भूमिका पर नजर है! इस नजरिए से देखा जाए तो इस बार पार्टी से अलग, उम्मीदवार की छवि बहुत महत्वपूर्ण होगी! सामान्य मतदाता अब उन लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाना चाहता है, जो राजनीति की गंदगी में भी खुद उजला रखने में कामयाब रहा हो!        
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  यदि चुनावी स्थितियां सामान्य रही, तो प्रदेश में ये ऐसा चुनाव होगा, जिसमें सत्ताधारी भाजपा की लोकप्रियता, मतदाताओं में पैठ और उसकी नीतियों का निष्पक्ष मूल्यांकन होगा। तीन बार प्रदेश में सरकार बनाकर भाजपा ने क्या किया, लोगों ने भाजपा के कामकाज को कितना सही समझा और क्या भाजपा फिर से मौका देने की स्थिति में है? इस साल के अंत में होने वाला विधानसभा चुनाव इस तरह के सारे सवालों का शायद सही जवाब होगा। क्योंकि, अब जबकि भाजपा मतदाताओं के सामने वोट मांगने खड़ी है, उसके पास मतदाताओं की समस्याओं को हल न कर पाने का कोई बहाना नहीं है! वो मतदाताओं से आँख भी नहीं चुरा सकती! मतदाताओं ने उसे तीन कार्यकाल काम करने का मौका दिया, इसलिए उसे अपने कामकाज का पूरा हिसाब मतदाताओं के सामने रखना होगा। वादे या रंगीन सपने दिखाकर इस बार मतदाताओं भरमाया नहीं जा सकेगा! आज का मतदाता तांगे में जुते घोड़े की तरह नहीं है, जिसे सिर्फ सामने का रास्ता ही दिखाई देता है! सजग मतदाता चारों तरफ देखता है और सब समझता है! उसे किसी भ्रमजाल में फंसाया नहीं जा सकता! भाजपा के पास मतदाताओं के सवालों से बचने या विपक्ष के असहयोग का कोई बहाना नहीं होगा।  
   मुकाबले में खड़ी कांग्रेस के लिए भी राह आसान नहीं कही जा सकती! क्योंकि, विधानसभा चुनाव की निकटता बावजूद पार्टी की गुटबाजी पर कोई फर्क नहीं पड़ा! अरुण यादव के अध्यक्ष पद से हटने के बाद कमलनाथ ने कुर्सी संभाल ली हो, पर गुटों की रस्साकशी जस की तस है! पार्टी के प्रतिद्वंदी नेता से खुद को आगे दिखाने की कोशिश में ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनका मुकाबला भाजपा से है, न कि आपस में! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। कमलनाथ तो 1993 से अपने दिल में मुख्यमंत्री बनने की इच्छा दबाए बैठे हैं। लेकिन, तब पीवी नरसिंहाराव ने उन्हें केन्द्र में मंत्री बनाकर रोक लिया था। प्रदेश में 2003 से कांग्रेस सत्ता से बेदखल है! कमलनाथ ने कई बार पार्टी हाईकमान से कांग्रेस की कमान संभालने की इच्छा जताई, लेकिन पार्टी तैयार नहीं हुई। इस बार पार्टी ने उनको मौका दिया है। लेकिन, फिर भी ये तय नहीं है कि यदि कांग्रेस चुनाव में बहुमत ले आई तो मुख्यमंत्री पद उनको मिल सकेगा या नहीं? 
   भाजपा के नजरिए से स्थिति को देखा जाए तो प्रदेश में जिस भी पार्टी सरकार होती है, उसके सामने चुनाव में सरकार बचाने की चुनौती होती है! मध्यप्रदेश में भाजपा ने लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीतकर अपनी जड़ें तो गहरी कर ली, पर असल मुकाबला इस बार है कि जड़ें कितनी गहराई तक पहुँची हैं। भाजपा ने दो बार कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की खामियों को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता! पिछले चुनाव में मोदी-फैक्टर की अहम् भूमिका थी! इससे कोई इंकार भी नहीं करेगा। लेकिन, इस बार ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा! बल्कि, चुनौतियों के स्पीडब्रेकर भाजपा के रास्ते में रोड़े अटका सकते हैं। राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार की नीतियों से मतदाताओं की नाराजी भी चुनाव में मुद्दा बनेगी! असल बात ये है कि भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने के लिए कड़ी चुनौतियों से जूझना होगा! ऐसे कई कारण हैं, जो भाजपा की राह में अड़चन बनेंगे! उनमें भाजपा नेताओं की छवि भी एक मसला है! मतदाताओं ने जिस भरोसे से 15 साल पहले भाजपा को चुना था, वो भरोसा कई मायनों ध्वस्त हुआ। भाजपा के विधायकों, मंत्रियों और नेताओं की छवि से मतदाता खुश नहीं हैं। इस ग्राफ में पिछले पाँच सालों में कुछ ज्यादा ही गिरावट आई। 
  मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी के जिस भाव की नेताओं से उम्मीद की जाती है, भाजपा के नेताओं में वो धीरे-धीरे नदारद हो गई! लगता है कि अधिकांश भाजपा नेताओं ने सत्ता को स्थाई सुख मान लिया! वे ये बिसरा बैठे कि सत्ता का रिमोट मतदाताओं के हाथ में होता है! मतदाता जब तक चाहेगा, तब तक ही कोई पार्टी सरकार में रह सकती है! जब मतदाता नहीं चाहेगा, पार्टी को हटना ही पड़ेगा! इस बार मतदाताओं की भाजपा से नाराजी का कारण पक्षपात पूर्ण व्यवहार, सत्ता का अहम् और सामाजिक छवि का पतन है। कोई भी स्वीकार नहीं करता कि भाजपा के विधायक, नेता और मंत्री ईमानदार, व्यावहारिक और गैर-पक्षपाती हैं। लोगों को आज राजनीति की सारी खामियाँ भाजपा नेताओं में ही नजर आती हैं। इसलिए कि पार्टी के बड़े नेता और संघ के पैरोकार दंभ में चूर हैं। उन्हें लगता है कि वे ही जनता के सही प्रतिनिधि हैं। ये सारी बुराइयां कांग्रेस में भी है, लेकिन न तो उनके पास सत्ता है और न अहम् दिखाने का कोई कारण! इसलिए चुनाव में मतदाताओं की नाराजी उन पर कम उतरेगी! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा नेताओं की छवि कहीं ज्यादा दागदार है। ऐसे में पार्टी को उन चेहरों से निजात पाना होगी, जो पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पार्टी की छवि उन्हीं लोगों से बनती है, जो उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।      
  जिस तरह भाजपा को अपने विधायकों, मंत्रियों और संगठन के नेताओं के व्यवहार से खतरा है, उसी तरह कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा रोड़ा आपसी गुटबाजी है। प्रदेश में कांग्रेस के तीन गुट सार्वजनिक हैं। इसके अलावा अन्य नेताओं के गुटों के छोटे-छोटे भी टापू हैं, जो गुटीय समीकरणों को प्रभावित करते रहते हैं। कमलनाथ के अध्यक्ष बनते ही, इनमें से कई सक्रिय तो हो गए तो अरुण यादव जैसे नेताओं के समर्थक नेपथ्य में चले गए। लेकिन, नए अध्यक्ष ने गुटों को  साधने या पार्टी हित में उनकी ताकत को समेटने की कोई कोशिश नहीं की! अब, जबकि चुनाव सर पर आ गए, कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि जंग कहाँ से शुरू की जाए! साथ ही उन उम्मीदवारों का चयन भी करना है, जो भाजपा के चेहरों  मुकाबले बेहतर हों! लेकिन, यदि कांग्रेस ने टिकट बंटवारे में गुटीय संतुलन बनाने की कोशिश की, तो उनके लिए चुनाव जीतना आसान नहीं होगा! क्योंकि, ऐसी स्थिति में कांग्रेस अच्छे चेहरों को चुनने में गलती कर सकती है। क्योंकि, इस बार मतदाताओं में नए ज़माने का तड़का लगा है। यानी, नए मतदाताओं के हाथ में फैसला है! ये मतदाता नहीं चाहते कि उनका प्रतिनिधि दागदार हो! माना कि दाग अच्छे हैं, पर नेताओं पर लगे दाग किसी डिटर्जेंट से नहीं निकलते! ये चुनाव यही फैसला करेगा कि किस पार्टी के उम्मीदवार बेदाग है!       
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दो गीतों ने कब्बन को अमर किया!


 - हेमंत पाल  

  फ़िल्मी दुनिया बहुत अजीब जगह है। यहाँ कामयाबी के लिए क़ाबलियत तो जरुरी है ही, किस्मत का साथ भी जरुरी है। किसी को पूरी जिंदगी मेहनत करने के बाद भी वो जगह नहीं मिलती! पर, कुछ नाम ऐसे भी हैं, जिन्हें कामयाबी के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा! ये बात अदाकारी के साथ गीत, संगीत पर भी लागू होती है। अदाकारी की तरह फिल्म संगीत में भी अपनी जगह बनाना आसान नहीं है। गायक बरसों तक सैकड़ों गीत गा लेते हैं, पर उनकी आवाज को पहचान नहीं मिलती! क्योंकि, यहाँ हर संघर्ष की दास्तान बहुत लम्बी होती है। लेकिन, कुछ आवाजें ऐसी होती हैं, जो चंद गीत गाकर भी अमर हो गईं! इस दुनिया में ऐसा ही एक गायक है कब्बन मिर्जा जिन्होंने एक फिल्म में महज दो गीत गाए, पर वे अपनी अनोखी आवाज से सुनने वालों के दिलों पर छा गए! उन्होंने ये दो गीत कमाल अमरोही की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के लिए गाए थे। 
  कमाल अमरोही ने अपनी फिल्‍म ‘रज़ि‍या सुल्‍तान’ में उनसे दो गाने गवाए थे। फिल्‍म में रजिया बनी हेमा मालिनी के साथ धर्मेंद्र हब्‍शी ‘याकूब’ के किरदार में थे, जिनके लिए कमाल अमरोही को भारी-भरकम और गैर पेशेवर आवाज़ चाहिए थी। उनका मानना था कि हमारा हीरो लड़ाका है, जो वक़्त मिलने और अकेला होने पर कभी अपनी मस्ती में गाता है। इसलिए मुझे ऐसी नई आवाज चाहिए, जिसमें क़द्दावरपन झलकता हो! संगीतकार खैयाम के साथ उन्होंने कई गायकों की आवाज सुनी, पर कोई उनकी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा! तभी किसी ने कब्‍बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया! विविध भारती के लिए प्रोग्राम करने वाले कब्‍बन मिर्ज़ा तब मुहर्रम के दिनों में नोहाख्‍वां का काम करते थे! वे मरसिये और नोहे गाते थे। ये गायकी का बिल्कुल अलग अंदाज है। ये अलग स्‍वर में गाये जाते हैं। 
   कमाल अमरोही, जगजीत सिंह और खैयाम ने कब्बन मिर्ज़ा का ऑडीशन लिया। आवाज की परख के लिए खैयाम ने उनसे मोहर्रम के समय गाए जाने वाले मर्सिया नोहे गाने के लिए कहा। कब्बन ने गाना शुरू किया तो खैयाम को लगा कि उनकी तलाश पूरी हुई! उन्हें इसी आवाज की उन्हें तलाश थी। बहुत सधे हुए ढंग से खैयाम ने उनसे से दोनों गाने गवाए। दोनों की धुन मुश्किल थी, लेकिन कब्बन ने उस धुन को साध लिया। मिर्ज़ा ने जां निसार अख्‍तर का लिखा  गीत ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’ और निदा फाजली का 'तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है' गाया! फिल्म तो नहीं चली, पर कब्बन मिर्जा के गीत गूंजने लगे। कब्‍बन मिर्ज़ा ने ‘शीबा’ फिल्म में भी एक गाना गाया था, लेकिन इस गाने में उनका नाम नहीं दिया गया था। इससे पहले उनका परिचय एक रेडियो एनाउंसर के रूप में था। विविध भारती पर शाम को एक आवाज गूंजती थी 'छाया गीत सुनने वालों को कब्बन मिर्जा का आदाब।' रेडियो के श्रोता इसी खरखराती आवाज के दिवाने थे। उन्होंने 'संगीत सरिता' कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए।    
   ऐसा नहीं हुआ कि कब्बन मिर्जा की आवाज को एक बार में ही पसंद कर लिया गया हो! ऑडीशन में उनसे पूछा गया कि आपने तालीम कहाँ से ली है? तो उनका जवाब था, मैंने कभी सीखा नहीं! कौन से गाने गा सकते हैं, तो उन्होंने सिर्फ लोकगीत सुनाए! इस पर खैयाम परेशान हो गए कि ये तो बहुत मुश्किल काम है! इसलिए पहली बार में कब्बन को रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन, उनकी आवाज कमाल अमरोही के दिल में घर कर गई थी! दूसरे दिन उन्होंने खैयाम को इस बात के लिए राजी किया कि कब्बन मिर्जा को सुर और ताल की ट्रेनिंग दी जाए, फिर रिकॉर्डिंग हो! लेकिन, कब्बन मिर्जा को संगीत समझने में ज्यादा दिन नहीं लगे! 
 जब 'रजिया सुल्तान' के गीत बुलंदी पर थे, उसी वक़्त एक बुरी खबर आई कि कब्बन मिर्जा को कैंसर ने जकड़ लिया। इलाज से उस वक़्त जिंदगी तो बच गई, लेकिन उनका गला हमेशा के लिए खराब हो गया। फिर वे कभी गा नहीं सके! वे दो बार कैंसर से लड़े! पहली बार में उनकी आवाज बिगड़ी और दूसरी बार में जिंदगी! अफसोस की बात ये कि आवाज़ ही जिसकी पहचान हो, वो कैंसर से अपनी आवाज़ खो दे, तो उस पर क्‍या गुज़रती होगी? मुंबई के एक उपनगर मुंब्रा में एक दिन वे चुपचाप से इस दुनिया से चले गए। लेकिन, कब्‍बन मिर्जा की आवाज़ आज भी सुनने वाले के दिल को बेचैन करती है।
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