- हेमंत पाल
राजनीति की दुनिया में चुनाव एक उत्सव है! जिस तरह कोई भी त्यौहार आने पर समाज कहर वर्ग अपनी-अपनी सामर्थ्य से उसे मनाता है, वही स्थिति चुनावी उत्सव की होती है! हर छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी इस उत्सव में हिस्सा लेकर अपनी ताकत दिखाती है, पर इसमें विजय जुलूस उसी का निकलता है, जिसे जनता चाहती है! चार महीने बाद मध्यप्रदेश में भी वही उत्सव होना है, जिस के प्रतिफल में किसी एक पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिलेगा। भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने की चाह है, इसलिए उसकी कोशिशें कुछ ज्यादा हैं, पर 15 साल से सत्ता से बेदखल कांग्रेस में वो शिद्दत नजर नहीं आ रही! पार्टी की सबसे बड़ी चिंता ये है कि उसके पास जीतने लायक उम्मीदवार ही नहीं हैं। इंदौर जैसे बड़े शहर को ही देखा जाए तो यहाँ की स्थानीय 6 सीटों पर ही उम्मीदवारों का टोटा है! राऊ की सीट कांग्रेस के पास है, इसलिए यहाँ जीतू पटवारी को फिर टिकट मिलने में कोई अड़चन नहीं है, पर जिन 5 सीटों पर भाजपा के विधायक हैं, वहां कांग्रेस के पास चमकते हुए चेहरों की कमी है।
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कांग्रेस इस बात को स्वीकार करे या नहीं, पर ये नितांत सच है कि मध्यप्रदेश की सत्ता में लौटने का सपना देख रही कांग्रेस के पास ऐसे उम्मीदवारों की बेहद कमी है जो चुनाव जीत सकें। प्रदेश में करीब 50 सीटें ऐसी है, जहाँ के लिए उम्मीदवारों के ही लाले पड़े हैं। सबसे बुरी स्थिति तो पश्चिम मध्यप्रदेश की है। इंदौर और उज्जैन संभाग की 25 सीटें ऐसी हैं, जहाँ कांग्रेस के पास चुनाव जीतने वाले चेहरे नहीं है। इसका कारण यह कि लगातार तीन चुनाव हारने से पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास डोल गया! जब कोई पार्टी लगातार चुनाव हारती है, तो उसके पास नए चेहरों की कमी हो जाती है, यही स्थिति कांग्रेस की है। क्योंकि, नए लोग पार्टी से जुड़ते नहीं और पुराने घर बैठ जाते हैं।
इंदौर में ही कांग्रेस की स्थिति माकूल नहीं लग रही। यहाँ विधानसभा की 6 सीटें हैं। इनमें से दो विधानसभा सीटें क्षेत्र क्रमांक-2 और 4 ऐसे हैं, जहाँ से पार्टी लम्बे समय से जीत दर्ज नहीं करा सकी। बात शुरू करते हैं विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-1 से जहाँ पिछला चुनाव भाजपा के सुदर्शन गुप्ता ने जीता था। ये इंदौर का अकेला ऐसा विधानसभा क्षेत्र है, जहाँ कांग्रेस के पास उम्मीदवारों की कमी नहीं! लेकिन, इतने ज्यादा उत्साही उम्मीदवार होने से यहाँ बगावत का खतरा भी ज्यादा है। बगावत की बयार यहाँ 2013 के विधानसभा चुनाव में भी चल चुकी है, जब पार्टी से नाता तोड़कर कमलेश खंडेलवाल ने चुनाव लड़ लिया था। लेकिन, वे जीत के लायक वोट नहीं जुटा पाए और इसका फ़ायदा भाजपा को मिला। उन्हें पार्टी ने निकाल दिया था, लेकिन अब उनकी पार्टी में वापसी हो चुकी है और वे उम्मीद लगाए हैं कि टिकट उन्हीं को मिलेगा। दूसरे सम्भावित उम्मीदवार हैं संजय शुक्ला, जो भाजपा की ही तरह धार्मिक आयोजन के जरिए क्षेत्र में अपनी पैठ बना रहे हैं। इसके अलावा दीपू यादव को भी भरोसा है कि पार्टी उनके नाम पर विचार कर सकती है। जबकि, सच्चाई ये है कि यहां चुनावी संघर्ष आसान नहीं है। दीपू यादव और संजय शुक्ला दोनों यहाँ से चुनाव हार चुके हैं। गोलू अग्निहोत्री भी उम्मीदवारी की दौड़ में हैं।
विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2 से तो कांग्रेस 1993 के बाद से कभी जीती ही नहीं! पिछला विधानसभा चुनाव कांग्रेस यहाँ से रमेश मेंदोला से 90 हजार से ज्यादा वोटों से हारी थी। मिल क्षेत्र की इस सीट से अभी तक कृपाशंकर शुक्ला, डॉ. रेखा गांधी, अजय राठौर, और सुरेश सेठ बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय और बाद में रमेश मैंदोला से हार चुके हैं। कभी कांग्रेस का गढ़ रहे, इस विधानसभा क्षेत्र में आज कांग्रेस का कोई ताकतवर दमदार उम्मीदवार नहीं है, जो कांग्रेस के लिए लड़ाई लड़ सके। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मोहन सेंगर या चिंटू चौकसे को आगे करके लड़ेगी, जो अंततः कमजोर उम्मीदवार ही साबित होंगे। जबकि, भाजपा के टिकट पर यहाँ से फिर रमेश मेंदोला का मैदान में उतरना लगभग तय है। यदि कोई बदलाव हुआ तो आकाश विजयवर्गीय को उनकी जगह उतारा जा सकता है। दोनों ही स्थितियों में नुकसान कांग्रेस को ही होगा।
विधानसभा का क्षेत्र क्रमांक-3 भी ऐसा है जहाँ से कांग्रेस पूरी उम्मीद से है। यहाँ से अभी भाजपा की उषा ठाकुर विधायक हैं और उन्हें अगले चुनाव में टिकट नहीं मिलेगा, ये भी लगभग तय माना जा रहा है। ऐसे में यहाँ से पहले भी विधायक रहे अश्विन जोशी तो सबसे सशक्त दावेदार तो हैं ही, महेश जोशी के राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जा रहे बेटे पिंटू उर्फ़ दीपक जोशी भी दावा पेश कर रहे हैं। लेकिन, एक ही परिवार के इन दोनों दावेदारों में से बटेर किसके हाथ लगती है, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। यहाँ इस ताकतवर लड़ाई को देखकर और कोई उम्मीदवारी का दावा पेश करता नजर नहीं आ रहा। जो नए नाम सामने आ रहे हैं, वे ऐसे नहीं हैं कि भाजपा को उखाड़ सकें।
विधानसभा के क्षेत्र क्रमांक-4 से कांग्रेस 1990 से अभी तक लगातार 6 चुनाव हारी है। 1990 में पहली बार यहाँ से कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा का खाता खोला था। विजयवर्गीय बाद में क्षेत्र क्रमांक-2 चले गए और फिर लगातार तीन चुनाव लक्ष्मणसिंह गौड़ ने जीते। बाद के दो चुनाव में उनकी पत्नी मालिनी गौड़ ने जीत दर्ज कराई। 1990 में यहाँ से कांग्रेस के इकबाल खान चुनाव की हार के बाद से कांग्रेस कई नेताओं को चुनाव लड़वा चुकी है, पर अभी तक उसे सफलता नहीं मिली। उजागर सिंह, ललित जैन, सुरेश मिंडा के अलावा गोविंद मंघानी भी यहां से दो बार चुनाव हार चुके हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के पास अभी भी कोई दमदार उम्मीदवार नहीं है, जो भाजपा को चुनौती दे सके। अभी तक के हालात बताते हैं कि कांग्रेस यहाँ से सुरजीतसिंह चड्ढा या सुरेश मिंडा में से किसी को चुनाव लड़ा सकती है। पर, सुरेश मिंडा का दौर अब ख़त्म हो गया है और सुरजीतसिंह इतने पुख्ता नहीं हैं, कि वे विधानसभा चुनाव जीत सकें। इसके अलावा केके मिश्रा यहाँ से ताकतवर नाम हो सकता है, पर कमलनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद ये संभावना कमजोर पड़ी है।
कांग्रेस के ध्यान न देने से शहर का क्षेत्र क्रमांक-5 इलाका आज भाजपा का गढ़ बन गया। यहाँ से कांग्रेस लगातार तीन विधानसभा चुनाव हारी है। तीन बार के विधायक महेंद्र हार्डिया को भाजपा टिकट दे या नहीं, पर कांग्रेस यहाँ कहीं मुकाबले में नजर नहीं आ रही! क्योंकि, पार्टी ने 15 सालों में भी कोई ऐसा चेहरा खड़ा नहीं किया, जो इस सीट से भाजपा को चुनौती दे सके। जबकि, यहाँ से टिकट मांगने वालों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। लगातार दो चुनाव हारी शोभा ओझा और पंकज संघवी को भी दावेदार माना जा रहा है। जबकि, पूर्व विधायक सत्यनारायण पटेल भी देपालपुर छोड़कर इस सीट से किस्मत आजमाने के मूड में हैं। महेश जोशी के बेटे पिंटू उर्फ़ दीपक जोशी, अरविंद बागड़ी, छोटे यादव, अर्चना जायसवाल और शेख अलीम भी लाइन में नजर आ रहे हैं। ऐसे में उम्मीद नहीं की जा सकती कि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा का ख़म ठोंककर मुकाबला कर सकेगी! यदि कांग्रेस ऐसा सोचती है तो ये उसकी ग़लतफ़हमी से ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि, बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की इच्छा भी रखता है तो कांग्रेस में इतना दम होना चाहिए कि उसे झेल सके।
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