- हेमंत पाल
फ़िल्मी दुनिया बहुत अजीब जगह है। यहाँ कामयाबी के लिए क़ाबलियत तो जरुरी है ही, किस्मत का साथ भी जरुरी है। किसी को पूरी जिंदगी मेहनत करने के बाद भी वो जगह नहीं मिलती! पर, कुछ नाम ऐसे भी हैं, जिन्हें कामयाबी के लिए ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा! ये बात अदाकारी के साथ गीत, संगीत पर भी लागू होती है। अदाकारी की तरह फिल्म संगीत में भी अपनी जगह बनाना आसान नहीं है। गायक बरसों तक सैकड़ों गीत गा लेते हैं, पर उनकी आवाज को पहचान नहीं मिलती! क्योंकि, यहाँ हर संघर्ष की दास्तान बहुत लम्बी होती है। लेकिन, कुछ आवाजें ऐसी होती हैं, जो चंद गीत गाकर भी अमर हो गईं! इस दुनिया में ऐसा ही एक गायक है कब्बन मिर्जा जिन्होंने एक फिल्म में महज दो गीत गाए, पर वे अपनी अनोखी आवाज से सुनने वालों के दिलों पर छा गए! उन्होंने ये दो गीत कमाल अमरोही की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के लिए गाए थे।
कमाल अमरोही ने अपनी फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ में उनसे दो गाने गवाए थे। फिल्म में रजिया बनी हेमा मालिनी के साथ धर्मेंद्र हब्शी ‘याकूब’ के किरदार में थे, जिनके लिए कमाल अमरोही को भारी-भरकम और गैर पेशेवर आवाज़ चाहिए थी। उनका मानना था कि हमारा हीरो लड़ाका है, जो वक़्त मिलने और अकेला होने पर कभी अपनी मस्ती में गाता है। इसलिए मुझे ऐसी नई आवाज चाहिए, जिसमें क़द्दावरपन झलकता हो! संगीतकार खैयाम के साथ उन्होंने कई गायकों की आवाज सुनी, पर कोई उनकी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा! तभी किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया! विविध भारती के लिए प्रोग्राम करने वाले कब्बन मिर्ज़ा तब मुहर्रम के दिनों में नोहाख्वां का काम करते थे! वे मरसिये और नोहे गाते थे। ये गायकी का बिल्कुल अलग अंदाज है। ये अलग स्वर में गाये जाते हैं।
कमाल अमरोही, जगजीत सिंह और खैयाम ने कब्बन मिर्ज़ा का ऑडीशन लिया। आवाज की परख के लिए खैयाम ने उनसे मोहर्रम के समय गाए जाने वाले मर्सिया नोहे गाने के लिए कहा। कब्बन ने गाना शुरू किया तो खैयाम को लगा कि उनकी तलाश पूरी हुई! उन्हें इसी आवाज की उन्हें तलाश थी। बहुत सधे हुए ढंग से खैयाम ने उनसे से दोनों गाने गवाए। दोनों की धुन मुश्किल थी, लेकिन कब्बन ने उस धुन को साध लिया। मिर्ज़ा ने जां निसार अख्तर का लिखा गीत ‘आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे’ और निदा फाजली का 'तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है' गाया! फिल्म तो नहीं चली, पर कब्बन मिर्जा के गीत गूंजने लगे। कब्बन मिर्ज़ा ने ‘शीबा’ फिल्म में भी एक गाना गाया था, लेकिन इस गाने में उनका नाम नहीं दिया गया था। इससे पहले उनका परिचय एक रेडियो एनाउंसर के रूप में था। विविध भारती पर शाम को एक आवाज गूंजती थी 'छाया गीत सुनने वालों को कब्बन मिर्जा का आदाब।' रेडियो के श्रोता इसी खरखराती आवाज के दिवाने थे। उन्होंने 'संगीत सरिता' कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए।
ऐसा नहीं हुआ कि कब्बन मिर्जा की आवाज को एक बार में ही पसंद कर लिया गया हो! ऑडीशन में उनसे पूछा गया कि आपने तालीम कहाँ से ली है? तो उनका जवाब था, मैंने कभी सीखा नहीं! कौन से गाने गा सकते हैं, तो उन्होंने सिर्फ लोकगीत सुनाए! इस पर खैयाम परेशान हो गए कि ये तो बहुत मुश्किल काम है! इसलिए पहली बार में कब्बन को रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन, उनकी आवाज कमाल अमरोही के दिल में घर कर गई थी! दूसरे दिन उन्होंने खैयाम को इस बात के लिए राजी किया कि कब्बन मिर्जा को सुर और ताल की ट्रेनिंग दी जाए, फिर रिकॉर्डिंग हो! लेकिन, कब्बन मिर्जा को संगीत समझने में ज्यादा दिन नहीं लगे!
जब 'रजिया सुल्तान' के गीत बुलंदी पर थे, उसी वक़्त एक बुरी खबर आई कि कब्बन मिर्जा को कैंसर ने जकड़ लिया। इलाज से उस वक़्त जिंदगी तो बच गई, लेकिन उनका गला हमेशा के लिए खराब हो गया। फिर वे कभी गा नहीं सके! वे दो बार कैंसर से लड़े! पहली बार में उनकी आवाज बिगड़ी और दूसरी बार में जिंदगी! अफसोस की बात ये कि आवाज़ ही जिसकी पहचान हो, वो कैंसर से अपनी आवाज़ खो दे, तो उस पर क्या गुज़रती होगी? मुंबई के एक उपनगर मुंब्रा में एक दिन वे चुपचाप से इस दुनिया से चले गए। लेकिन, कब्बन मिर्जा की आवाज़ आज भी सुनने वाले के दिल को बेचैन करती है।
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