- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा की अपनी अलग ही भाषा है। ये भाषा न तो व्याकरण सम्मत है न साहित्यिक! भले ही कहने को इन्हें हिंदी फ़िल्में कहा जाता हो, पर वास्तव में ये खरी हिंदी नहीं है! मराठी, मलयालम, तमिल और यहाँ तक कि भोजपुरी फिल्मों में भी वहाँ की अपनी भाषा होती है, पर हिंदी फिल्मों की हिंदी को पूरी तरह फिल्म की भाषा नहीं कहा जा सकता! इस भाषा में इतनी मिलावट है कि इसे हिंदी फ़िल्में नहीं कहा जा सकता! इसमें क्षेत्रीय बोलियां तो मिली ही होती है, इंग्लिश का भी भरपूर इस्तेमाल होता है। दादासाहेब फाल्के ने जब 1913 में सबसे पहले बिना आवाज वाली फिल्म 'राजा हरिशचंद्र' बनाई थी, तब फिल्म की भाषा कोई विषय नहीं था! लेकिन, उसके बाद 1931 में जब पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनी, तो भाषा भी एक मुद्दा बन गया! लेकिन, तब हिंदी के साथ उर्दू की नफासत का पुट था, जो धीरे-धीरे लोप होता गया।
शुरूआती समय से ही हिंदी सिनेमा में हिंदी और उर्दू का नजदीकी रिश्ता रहा है। किंतु, समय के साथ ये रिश्ता भी दरकने लगा! महज भाषा के इस्तेमाल में ही बदलाव नहीं आया, बोलने का लहजा और ढंग भी बदल गया। 50 और 60 के दशक के मध्यकाल तक फिल्मों में जुबान स्पष्ट और आसान थी। जबकि, अब आज की फिल्मों में इंग्लिश शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ स्थानीय बोली का भी घालमेल होने लगा। अपराध पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'गैंग आफ वासेपुर' को भाषा के स्तर पर बदलाव का मोड़ कहा जा सकता है। इस फिल्म में भाषा का विकृततम रूप सुनाई दिया था। इस बात से इंकार नहीं कि समाज ही सिनेमा को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, पर भाषा ही वो घटक है, जो फ़िल्म का संस्कार दर्शाता है।
अब तो फिल्मों की भाषा को किरदार मुताबिक गढ़ा जाने लगा है! 'तनु वेड्स मनू' की किरदार बनी कंगना रनौत अपना परिचय हरियाणवी में देती है। इसी तरह 'बाजीराव मस्तानी' में मराठा बना रणवीर सिंह मराठी बोलता नजर आता है! 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में भोजपुरी, 'उड़ता पंजाब' में पंजाबी, 'पानसिंह तोमर' में ब्रज भाषा बोली गई! दरअसल, फिल्मों की भाषा दर्शक की मनःस्थिति तक पहुँचने का जरियाभर होती है! इसलिए ऐसी भाषा का प्रयोग होता है, जो आम लोगों में लोकप्रिय हो और लोगों को आसानी से समझ आए।
1940 में महबूब ख़ान ने फिल्म 'औरत' बनाई थी, जो एक महिला के संघर्ष की कहानी थी। इसके बाद महबूब ख़ान ने एक ग्रामीण महिला के संघर्ष को ग्रामीण परिवेश में दिखाते हुए 'मदर इंडिया' बनाई! इस फिल्म की भाषा भोजपुरी मिश्रित हिन्दी थी। ग्रामीण परिवेश की कहानी वाली फिल्मों में हिन्दी और भोजपुरी का ही ज्यादा प्रयोग होता था। क्योंकि, मुंबई तथा अन्य बड़े शहरों में बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश से गए मजदूरों की संख्या ज्यादा थी, जो भोजपुरी बोलते थे। खेती छोड़कर मज़दूरी करने आए मजदूर की जिंदगी पर बिमल राय ने 'दो बीघा जमीन' जैसी फिल्म बनाई थी। इसमें बलराज साहनी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की भाषा तो हिन्दी थी, पर अनेक गाने भोजपुरी भाषा से जुड़े थे।
फिल्मों में भाषा का जो बदलता स्वरुप सामने आ रहा है, वो काफी हद तक हमारे समाज और संस्कृति का मापदंड है। देखा जाए तो समय के साथ बोलचाल की भाषा में भी बदलाव आ रहा है। ऐसे में सबसे सही भाषा वही मानी गई है, जो अपनी बात कहने का जरिया बने! लेकिन, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वो भाषा अमर्यादित, असंस्कारित और भाव प्रकट न कर सकने वाली हो! लेकिन, ताजा दौर में फिल्मों की भाषा कुछ ऐसी ही है! अब तो फिल्मों में गाली-गलौच से भरी भाषा सामान्य होती जा रही है।
ये मुद्दा भी बहस का विषय रहा है कि इस बदलाव से हिन्दी को कोई बड़ा नुकसान हुआ है या फिर कोई फायदा हुआ? इस पर सभी एकमत नहीं हो सकते! इसलिए कि सभी के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं! ये भी कहा जा सकता है कि हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिन्दी का स्तर गिरा नहीं है! बल्कि, इस रास्ते से हिंदी क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक जरूर पहुंची है! ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। इसमें अंग्रेजी, हिंगलिश सबकुछ होता है। ये भी कहा जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी खराब नहीं हो रही, बल्कि समृद्ध हो रही है। साथ ही क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां भी संरक्षण पा रही है।
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