Monday, August 13, 2018

फ़िल्मी देशभक्ति, यानी पाकिस्तान विरोध!


- हेमंत पाल

   बॉलीवुड पास बिकाऊ विषयों की कमी नहीं है। प्यार, बदले की कहानी, प्रेम त्रिकोण, समाज विरोधी गतिविधियाँ, सामाजिक कुरीतियाँ और पीढ़ियों के बीच अंतर्विरोध के अलावा देशभक्ति भी एक चटकारेदार बिकाऊ विषय है। यह बात अलग है कि वक़्त के साथ-साथ फिल्मों में देशभक्ति के मायने बदलते गए। आजादी से पहले देशभक्ति पर बनी फिल्मों में अंग्रेज हुकूमत को निशाने पर रखा जाता था। गुलामी के उस दौर में अंग्रेजों का सीधा विरोध संभव नहीं था! लेकिन, सांकेतिक रूप से तब भी फिल्मों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अलख जगाने का काम किया था। इस संदर्भ में कवि प्रदीप का 'किस्मत' के लिए  लिखा गीत 'दूर हटो ओ दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है' प्रासंगिक है। उन्होंने विश्वयुद्ध को आधार बनाकर यह गीत लिखकर अंग्रेजी हुकूमत को एक तरह से धोखा ही दिया था। गाने में अंग्रेजों का पक्ष लेकर विश्वयुद्ध में उसके खिलाफ लड़ने वाले देशों से कहा गया था, कि हिन्दुस्तान हमारा अर्थात अंग्रेजों का है। 
  आजादी के बाद करीब दो दशक तक फिल्मों में देशभक्ति के किस्सों को दोहराया जाता रहा। इन फिल्मों में दिलीप कुमार की 'शहीद' प्रमुख थी। उन दिनों शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और झांसी की रानी ऐसे चरित्र थे, जिन्हें केंद्र में रखकर कई बार परदे पर देशभक्ति के रंग भरे गए। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक ऐसा दौर जरूर ऐसा आया, जब चेतन आनंद ने इस विषय पर 'हकीकत' जैसी सार्थक फिल्म बनाई। लेकिन, उसके बाद देशभक्ति के नाम पर जो कुछ परोसा गया, उसमें ऐसी भक्ति की भावना करीब-करीब नदारद ही रही। भगतसिंह के चरित्र पर बनी 'शहीद' की सफलता ने मनोज कुमार को फिल्में हिट करने का एक फार्मूला जरूर दे दिया। जिसे उन्होंने बाद में अपनी लगभग सभी फिल्मों में भुनाया! 
  मनोज कुमार ने देशभक्ति के नाम पर जो परोसा, उसमें देशभक्ति कम और दूसरे मसाले ज्यादा थे। उनकी इसी देशभक्ति का नतीजा था, कि वे मनोज कुमार से भारत कुमार बन गए। उनकी ही फिल्म 'उपकार' लालबहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान जय किसान' पर आधारित थी! जबकि, मूल रूप से यह दो भाईयों के बीच जमीन के बंटवारें को लेकर बनी थी, जिसमें देशभक्ति के जज्बातों के साथ 'गुलाबी रात गुलाबी' का पैबंद भी लगाया गया। उसके बाद मनोज कुमार ने 'पूरब पश्चिम' से लगाकर रोटी कपडा और मकान, शोर और 'क्रांति' जैसी फ़िल्में बनाई! लेकिन, इनमें भी देशभक्ति की चाशनी के साथ कमाई के मसालों  की भरमार थी। बलात्कार के लम्बे दृश्य से लेकर पानी में भीगती नायिका का अंग प्रदर्शन तक सब कुछ था। फिर भी दर्शक उन्हें लम्बे समय तक देशभक्त फिल्मकार के रूप में देखते रहे। 
    इस दौर के बाद देशभक्ति के नाम से जितनी फ़िल्में बनी, उनमें फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि यदि दर्शकों की भावनाएं यदि किसी विषय पर भड़कती है, तो वो है पाकिस्तान विरोध! पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में शिकस्त देने वाले प्रसंग और ऐसे जज्बाती डायलॉग जिनपर दर्शक तालियां मारता हुआ सिनेमा हाल से बाहर निकले! जेपी दत्ता ने भारत और पाकिस्तान युद्ध पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर' बनाई! सितारों से भरपूर इस फिल्म में भी पाकिस्तान को शिकस्त के प्रसंग को जमकर भुनाया गया। यहां तक कि गीतकार जावेद अख्तर ने भी 'संदेशे आते हैं, हमें तड़फाते हैं' में अपने ससुर कैफी आजमी के 'हकीकत' के लिए लिखे उनके गीत 'हो के मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा' को ही आगे बढाया है। 
  कथित देशभक्ति के नाम पर इन दिनों बनाई जाने वाली फिल्मों का एक ही लक्ष्य होता है, जितना हो सके पाकिस्तान की फजीहत दिखाई जाए! क्योंकि, देशभक्ति का यही सबसे हिट फार्मूला भी है। निर्माता निर्देशक अनिल शर्मा ने सनी देओल और अमीषा पटेल को लेकर बनाई फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' में  'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, हिन्दुस्तान जिंदाबाद है और हिंदुस्तान जिंदाबाद रहेगा' जैसे डायलॉग लिखवाकर फिल्म को सफल बनाया था। उसके बाद आमिर खान की 'सरफरोश' आई, इसमें भी देशभक्ति का वही पुराना तड़का था। एक मुस्लिम पुलिस इंस्पेक्टर पर शंका किए जाने के प्रसंग और पाकिस्तान से संबंध जोड़कर इसे भी सफलता के दरवाजे से पार करवा दिया गया!  इन दिनों मनोज कुमार वाली भारत कुमार की पदवी अक्षय कुमार को मिली है। उनकी फिल्मों में देशभक्ति की चाशनी के साथ पाकिस्तान को कोसने का काम बदस्तूर जारी है। यहां तक कि 'रूस्तम' जैसी फिल्म को भी देशभक्ति से जोड़ा गया। लगता है बॉलीवुड के फिल्मकारों की देशभक्ति पाकिस्तान विरोध तक ही सीमित होकर रह गई है! 
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