- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में चुनावी रंग अपना असर दिखाने लगा है। ख़बरों में राजनीति, बातचीत राजनीति और व्यवहार में भी राजनीति नजर आने लगी! जहाँ भी चर्चा के ठीये दिखाई देते हैं, विषय राजनीति ही होता है। लेकिन, मुद्दा ये है कि इस बार मतदाता किसे वोट देगा और क्यों? क्या 15 साल से प्रदेश की सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी को या विधानसभा में विपक्ष की कुर्सी की शोभा बढ़ा रही कांग्रेस को? सवाल अहम् है, पर जवाब नहीं! क्योंकि, वोट को लेकर हर मतदाता का पैमाना अलग-अलग है! पार्टी कार्यकर्ताओं और पार्टी-भक्त मतदाताओं को छोड़कर शेष का नजरिया अलग होता है! यही 10-12 प्रतिशत मतदाता होते हैं, जो फैसला करते हैं कि किस पार्टी की सरकार बनें!। इस बार भी इन्हीं मतदाताओं की भूमिका पर नजर है! इस नजरिए से देखा जाए तो इस बार पार्टी से अलग, उम्मीदवार की छवि बहुत महत्वपूर्ण होगी! सामान्य मतदाता अब उन लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाना चाहता है, जो राजनीति की गंदगी में भी खुद उजला रखने में कामयाब रहा हो!
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यदि चुनावी स्थितियां सामान्य रही, तो प्रदेश में ये ऐसा चुनाव होगा, जिसमें सत्ताधारी भाजपा की लोकप्रियता, मतदाताओं में पैठ और उसकी नीतियों का निष्पक्ष मूल्यांकन होगा। तीन बार प्रदेश में सरकार बनाकर भाजपा ने क्या किया, लोगों ने भाजपा के कामकाज को कितना सही समझा और क्या भाजपा फिर से मौका देने की स्थिति में है? इस साल के अंत में होने वाला विधानसभा चुनाव इस तरह के सारे सवालों का शायद सही जवाब होगा। क्योंकि, अब जबकि भाजपा मतदाताओं के सामने वोट मांगने खड़ी है, उसके पास मतदाताओं की समस्याओं को हल न कर पाने का कोई बहाना नहीं है! वो मतदाताओं से आँख भी नहीं चुरा सकती! मतदाताओं ने उसे तीन कार्यकाल काम करने का मौका दिया, इसलिए उसे अपने कामकाज का पूरा हिसाब मतदाताओं के सामने रखना होगा। वादे या रंगीन सपने दिखाकर इस बार मतदाताओं भरमाया नहीं जा सकेगा! आज का मतदाता तांगे में जुते घोड़े की तरह नहीं है, जिसे सिर्फ सामने का रास्ता ही दिखाई देता है! सजग मतदाता चारों तरफ देखता है और सब समझता है! उसे किसी भ्रमजाल में फंसाया नहीं जा सकता! भाजपा के पास मतदाताओं के सवालों से बचने या विपक्ष के असहयोग का कोई बहाना नहीं होगा।
मुकाबले में खड़ी कांग्रेस के लिए भी राह आसान नहीं कही जा सकती! क्योंकि, विधानसभा चुनाव की निकटता बावजूद पार्टी की गुटबाजी पर कोई फर्क नहीं पड़ा! अरुण यादव के अध्यक्ष पद से हटने के बाद कमलनाथ ने कुर्सी संभाल ली हो, पर गुटों की रस्साकशी जस की तस है! पार्टी के प्रतिद्वंदी नेता से खुद को आगे दिखाने की कोशिश में ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनका मुकाबला भाजपा से है, न कि आपस में! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ही मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। कमलनाथ तो 1993 से अपने दिल में मुख्यमंत्री बनने की इच्छा दबाए बैठे हैं। लेकिन, तब पीवी नरसिंहाराव ने उन्हें केन्द्र में मंत्री बनाकर रोक लिया था। प्रदेश में 2003 से कांग्रेस सत्ता से बेदखल है! कमलनाथ ने कई बार पार्टी हाईकमान से कांग्रेस की कमान संभालने की इच्छा जताई, लेकिन पार्टी तैयार नहीं हुई। इस बार पार्टी ने उनको मौका दिया है। लेकिन, फिर भी ये तय नहीं है कि यदि कांग्रेस चुनाव में बहुमत ले आई तो मुख्यमंत्री पद उनको मिल सकेगा या नहीं?
भाजपा के नजरिए से स्थिति को देखा जाए तो प्रदेश में जिस भी पार्टी सरकार होती है, उसके सामने चुनाव में सरकार बचाने की चुनौती होती है! मध्यप्रदेश में भाजपा ने लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीतकर अपनी जड़ें तो गहरी कर ली, पर असल मुकाबला इस बार है कि जड़ें कितनी गहराई तक पहुँची हैं। भाजपा ने दो बार कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की खामियों को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता! पिछले चुनाव में मोदी-फैक्टर की अहम् भूमिका थी! इससे कोई इंकार भी नहीं करेगा। लेकिन, इस बार ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा! बल्कि, चुनौतियों के स्पीडब्रेकर भाजपा के रास्ते में रोड़े अटका सकते हैं। राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार की नीतियों से मतदाताओं की नाराजी भी चुनाव में मुद्दा बनेगी! असल बात ये है कि भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने के लिए कड़ी चुनौतियों से जूझना होगा! ऐसे कई कारण हैं, जो भाजपा की राह में अड़चन बनेंगे! उनमें भाजपा नेताओं की छवि भी एक मसला है! मतदाताओं ने जिस भरोसे से 15 साल पहले भाजपा को चुना था, वो भरोसा कई मायनों ध्वस्त हुआ। भाजपा के विधायकों, मंत्रियों और नेताओं की छवि से मतदाता खुश नहीं हैं। इस ग्राफ में पिछले पाँच सालों में कुछ ज्यादा ही गिरावट आई।
मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी के जिस भाव की नेताओं से उम्मीद की जाती है, भाजपा के नेताओं में वो धीरे-धीरे नदारद हो गई! लगता है कि अधिकांश भाजपा नेताओं ने सत्ता को स्थाई सुख मान लिया! वे ये बिसरा बैठे कि सत्ता का रिमोट मतदाताओं के हाथ में होता है! मतदाता जब तक चाहेगा, तब तक ही कोई पार्टी सरकार में रह सकती है! जब मतदाता नहीं चाहेगा, पार्टी को हटना ही पड़ेगा! इस बार मतदाताओं की भाजपा से नाराजी का कारण पक्षपात पूर्ण व्यवहार, सत्ता का अहम् और सामाजिक छवि का पतन है। कोई भी स्वीकार नहीं करता कि भाजपा के विधायक, नेता और मंत्री ईमानदार, व्यावहारिक और गैर-पक्षपाती हैं। लोगों को आज राजनीति की सारी खामियाँ भाजपा नेताओं में ही नजर आती हैं। इसलिए कि पार्टी के बड़े नेता और संघ के पैरोकार दंभ में चूर हैं। उन्हें लगता है कि वे ही जनता के सही प्रतिनिधि हैं। ये सारी बुराइयां कांग्रेस में भी है, लेकिन न तो उनके पास सत्ता है और न अहम् दिखाने का कोई कारण! इसलिए चुनाव में मतदाताओं की नाराजी उन पर कम उतरेगी! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा नेताओं की छवि कहीं ज्यादा दागदार है। ऐसे में पार्टी को उन चेहरों से निजात पाना होगी, जो पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पार्टी की छवि उन्हीं लोगों से बनती है, जो उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस तरह भाजपा को अपने विधायकों, मंत्रियों और संगठन के नेताओं के व्यवहार से खतरा है, उसी तरह कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा रोड़ा आपसी गुटबाजी है। प्रदेश में कांग्रेस के तीन गुट सार्वजनिक हैं। इसके अलावा अन्य नेताओं के गुटों के छोटे-छोटे भी टापू हैं, जो गुटीय समीकरणों को प्रभावित करते रहते हैं। कमलनाथ के अध्यक्ष बनते ही, इनमें से कई सक्रिय तो हो गए तो अरुण यादव जैसे नेताओं के समर्थक नेपथ्य में चले गए। लेकिन, नए अध्यक्ष ने गुटों को साधने या पार्टी हित में उनकी ताकत को समेटने की कोई कोशिश नहीं की! अब, जबकि चुनाव सर पर आ गए, कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि जंग कहाँ से शुरू की जाए! साथ ही उन उम्मीदवारों का चयन भी करना है, जो भाजपा के चेहरों मुकाबले बेहतर हों! लेकिन, यदि कांग्रेस ने टिकट बंटवारे में गुटीय संतुलन बनाने की कोशिश की, तो उनके लिए चुनाव जीतना आसान नहीं होगा! क्योंकि, ऐसी स्थिति में कांग्रेस अच्छे चेहरों को चुनने में गलती कर सकती है। क्योंकि, इस बार मतदाताओं में नए ज़माने का तड़का लगा है। यानी, नए मतदाताओं के हाथ में फैसला है! ये मतदाता नहीं चाहते कि उनका प्रतिनिधि दागदार हो! माना कि दाग अच्छे हैं, पर नेताओं पर लगे दाग किसी डिटर्जेंट से नहीं निकलते! ये चुनाव यही फैसला करेगा कि किस पार्टी के उम्मीदवार बेदाग है!
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