- हेमंत पाल
अटलबिहारी बाजपेई नेता नहीं थे, पत्रकार भी नहीं थे, कवि भी नहीं थे! बल्कि, वे एक संपूर्ण व्यक्ति वाले महामानव थे जो लाखों, करोड़ों में कभी-कभार ही धरती पर अवतरित होता है। क्योंकि, उनमें न तो नेताओं जैसा दोगलापन था, न वे पत्रकारों जैसे शातिर थे और न उनमें कवियों की तरह मार्केटिंग का हुनर था। वे सबकुछ थे और इन सबसे ऊपर थे। उनके व्यक्तित्व का आभामंडल ऐसा था कि जो भी उसमें आता, उनका होकर रह जाता! मुझे भी उनसे कई बार मिलने का मौका मिला! लेकिन, उनसे जुडी एक घटना ऐसी है, जो यादगार बन गई! ये 1983 की फ़रवरी की किसी तारीख की बात है! अटलजी बसंत पंचमी पर धार की भोजशाला आए थे! तब प्रेमप्रकाश खत्री धार में भाजपा बड़े नेता थे। भोजशाला से लौटने के बाद पत्रकारों को उनसे बात करने के लिए बुलाया गया! मैंने भी तभी पत्रकारिता शुरू ही की थी! मैं उत्साहित था कि मुझे आज एक बड़े नेता से मिलने का मौका मिलेगा। बातचीत शुरू हुई! अटलजी का आभामंडल और व्यक्तित्व ऐसा था कि कोई उनसे सवाल पूछने साहस कर सके ये संभव नहीं था। मैंने भी काफी देर तक उनकी बातें सुनी! अटलजी ने भोजशाला विवाद पर अपनी बात कही और ये भी जोड़ा कि इंग्लैंड से वाग्देवी की प्रतिमा को वापस लाने के प्रयास किया जाएगा! ये सरस्वती की वही प्रतिमा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ये राजा भोज ने इसे बनवाकर भोजशाला में लगाया था। राजा भोज रोज देवी की इसी प्रतिमा का पूजन किया करते थे। सभी पत्रकार अटलजी की बात सुनते रहे! मुझसे रहा नहीं गया कि कोई कुछ पूछ क्यों नहीं रहा है! सकुचाते हुए मैंने ही अटलजी से पूछा लिया 'आप देश के विदेश मंत्री रहे हैं, आज जब आप वाग्देवी की प्रतिमा इंग्लैंड से आपस लाने की बात कह रहे हैं जो अब आसान नहीं है! आपने ये प्रयास तब क्यों नहीं किए जब आप सत्ता में थे और विदेश मंत्री जैसे पद पर थे? आज आप जब विपक्ष में हैं, तो प्रयास की बात क्यों कर रहे हैं?'
मेरा सवाल सुनकर कमरे में सन्नाटा सा छा गया! मौजूद नेता और पत्रकार एक-दूसरे मुँह देखने लगे! किसी को समझ नहीं आया कि मैंने ऐसा सवाल कैसे पूछ लिया? अटलजी से धार जैसी छोटी जगह में कोई अंजान सा पत्रकार ये पूछने का साहस कर ले, ये उस दौर में संभव भी नहीं था! बड़े अख़बारों के प्रतिनिधि और न्यूज़ एजेंसी वाले सीनियर के होते, मैंने ये पूछ लिया तो सभी मुझे घूरने से लगे! मुझे भी लगा कि शायद मुझसे कोई बड़ी गलती हो गई! लेकिन, जो होना था, वो हो चुका था! अटलजी कुछ बोलते उससे पहले ही एक नेता ने अटलजी की व्यस्तता बताते हुए बात खत्म कर दी!
सभी लोग कमरे बाहर आ गए! कुछ साथियों ने मेरी तारीफ भी की कि मैंने अटलजी से सीधे ऐसा सवाल करने का साहस किया! अभी हम वहाँ से निकलने ही वाले थे कि एक भाजपा नेता जो वकील भी थे, आए और मुझसे रुकने को कहा! बाकी पत्रकार भी रुक गए! वो मेरे पास आए और बोले कि अंदर आओ, अटलजी आपको बुला रहे है! ये सुनकर साथ में खड़े सभी पत्रकार भी रुक गए कि शायद मेरे साथ उन्हें भी अंदर बुलाया जाएगा! लेकिन, वे सिर्फ मुझे ही अंदर ले गए! लेकिन, बाकी लोग मेरे पीछे आकर दरवाजे से सटकर ये जानने के लिए खड़े हो गए कि अंदर क्या होने वाला है!
कमरे में अटलजी वहीँ बैठे थे, जहाँ हम उन्हें छोड़कर गए थे! मुझे देखते ही अटलजी मुस्कुराते हुए बोले 'आओ युवातुर्क!' मैंने उन्हें नमस्ते किया और सामने खड़ा हो गया! लेकिन, उन्होंने मुझे पास बुलाया और बैठा लिया! मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए बोले 'मुझे बहुत अच्छा लगा कि तुमने मुझसे ये सवाल करके मुझे निरुत्तर कर दिया! आज मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है! लेकिन, मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि धार में कोई युवा पत्रकार ऐसा है, जो मुझे अपने एक सवाल से चुप करा सकता है!' मैंने ये सुनकर सम्मानवश उनके पैर छू लिए! वे आशीर्वाद देते हुए बोले 'मेरा आशीर्वाद है तुम खूब उन्नति करो, जो मुझे जवाब सोचने के लिए बाध्य कर दे, वो किसी की भी बोलती बंद करा सकता है!' ये बोलते हुए वे जोर से हंस पड़े! अटलजी शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं! क्योंकि, वे किसी भाजपा नेता के नहीं एक महामानव का आशीर्वाद था! इसके बाद जब 1989 में मैं मुंबई 'जनसत्ता' में था, तब भी उनसे मुलाकात हुई और मैंने धार की घटना याद दिलाई तो वे मुझे पहचान गए! लेकिन, जब एक बार इंदौर में उनसे पत्रकार के रूप में सामना हुआ तो आगे होकर हँसते हुए बोले 'मित्र, आज कौनसा सवाल दागने वाले हो?' आज जब वो दुनिया से छाए गए उनकी वो हंसी कानों में गूंज रही है!
------------------------------ --------------------
No comments:
Post a Comment